हालात ऐसे भी है |

Posted on: Fri, 10/30/2020 - 16:39 By: admin

आज सुबह मैंने सुमित से पूछा कि वीर क्यों नही आया?  तभी ऋतिका बीच में बोल पड़ी, “सर को बता दूँ?” फिर चुप हो गई….. मैंने ज़िद की तो फिर बोली कि सर,  कल न… वीर को पुलिस ले गई थी। फिर सुमित बताने लगा,” सर! उसने न चोरी की थी| कल कुछ बच्चों ने मिलकर दुकान से कुछ चुराने की  कोशिश की और  पकड़े जाने पर एक ने बाकी  बच्चों के नाम भी बता दिए। सुमित कहने लगा कि सर… मेरा भी नाम दिया था, पुलिस ने मुझे दो थप्पर लगाया। सुमित ने बताया कि वह नही जाता है चोरी करने।

मैंने फिर पूछा कि और कौन जाते हैं अपने क्लास से चोरी करने? सुमित ने वीर, रोहन तथा आकाश का नाम लिया।

सामाजिक विज्ञान में अवधारणा की समझ

Posted on: Mon, 10/26/2020 - 16:21 By: admin

एक बार पढ़ने पढ़ाने के तरीके पर चर्चा करते समय शिक्षाविद प्रोफेसर कृष्ण कुमार अवधारणा का प्रश्न उठाते हैं कि एक शिक्षक के नाते शिक्षण प्रक्रिया में हम इसे कितना महत्व देते हैं , या कितना देना चाहिए। ‘अवधारणा’ किसी भी विषय को समझने-समझाने का प्राथमिक पैमाना है। यह एक सहज, प्राकृतिक व अनिवार्य शर्त है – शिक्षण प्रक्रिया की। उतनी ही सहज जैसे वृक्ष कहते ही हरी पत्तियों से लदा एक तना मिट्टी में अपनी जड़ जमाए दिख जाए । पर क्या हम अपनी शिक्षण प्रक्रिया में इसे इसी रूप में समाहित कर पाते हैं ?

समावेशी समाज के लिए जरूरी है सरकारी स्कूलों का अस्तित्व।

Posted on: Sun, 10/25/2020 - 10:01 By: admin

पिछले वर्ष मैंने अपनी बेटी का दाखिला एक सरकारी स्कूल में दूसरी कक्षा में करा दिया। अपनी बेटी को प्राइवेट स्कूल से निकालकर सरकारी स्कूल में कराने का मेरा निर्णय सिर्फ़ आर्थिक कारणों से नहीं था। मैं चाहता था कि बेटी समाज की वास्तविकता और विविधता में रहकर सीखे। वह समझ सके कि हम जैसे मध्यवर्गीय या निम्न मध्यवर्गीय परिवारों से अलग ढर्रे पर चलने वाली दुनिया भी अस्तित्व में है। वह जान सके कि दुनिया की बहुरंगी वास्तविकताएं और जरूरतें हैं। लोगों का आचार- विचार- व्यवहार बहुत हद तक इन्हीं सबसे निर्धारित होता है। वह यह भी जान सके कि इनमें से कुछ भिन्नताओं को हम इंसानों ने ही स्वार्थवश गढ़ा है जो विषमता

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