हल्का सा एक चपत पड़ते ही सोनू चिल्लाते हुए उठा,
मम्मी, क्या हुआ…
रीना बहुत देर से उसे उठाने की कोशिश कर रही थी,
चल मेरे साथ बाहर आ, कहते हुए रीना बेड से नीचे उतर जाती है, उसने अपने पल्लू को ठीक किया, गर्दन तक घूंघट खींच लिया। सोनू को गोदी में लेकर वह बाहर निकली। बाहर बहुत अंधेरा था, बरामदे पे टँगी दीवार घड़ी में रात के दो बज रहे थे। आंगन के दूसरे कोने पे जाकर उसने सोनू को नीचे उतार दिया,
ठहरो यहाँ, मैं अभी आती हूँ, कहते हुए, रीना प्लास्टिक के एक पर्दे के उस पार चली गयी।
थोड़ी देर में वह आती है, तब तक सोनू वहीं जमीन पर सो चुका था।
तुम भी हो आओ,
मुझे अभी नही आ रहा है, नींद में ही बोलते हुए, सोनू ने जवाब दिया।
शमरेश जी आज शाम ही बम्बई से लौटे हैं। दादा के आने की खुशी में सोनू रात काफी देर तक जगा रहा था। शहर में लोकडॉन होने की खबर बहुत दिनों से चल रही थी। शहर के छोटे से घर में बंद होने कि आशंका को देखते हुए, उन्होंने अपने बड़े बेटे से एक सप्ताह पहले ही गाँव जाने की इक्छा जताते हुए कहा था…
“अपनी माँ को और थोड़े दिनों के लिए यहीं रख लो, मुझे जाने दो,गाँव में बहु अकेली है और अभी बच्चा भी छोटा है”
कुछ 5 साल पहले ही उनके छोटे बेटे की असमय मृत्यु हो गयी थी। सोनू उस वक्त 1 साल का ही था, और रीना भी कुछ 22 साल की रही होगी। रीना के जीवन मे कम्पलीट लोकडॉन का यह छठा साल था।
शुरुआत के कुछ सालों में उसे बहुत परेशानी हुई थी, लेकिन धीरे-२ परेशानी और जब्बतों की जगह सामाजिक मर्यादा ने ले ली थी। और सामाजिक मर्यादा का पाठ पढ़ाने में शमशेर जी का बड़ा हाथ था।
घूंघट काढ़े, आंगन के चूल्हे पर चाय बनाते हुए, रीना सोनू से कहती है…
“दादा जी से पूछना आज क्या खाने में लेंगे, रोटी या चावल”
दादा जी महज 5 कदम की दूरी पर बरामदे में लकड़ी के कुर्सी पर बैठे रेडियों पर कुछ सुन रहे थे।
रीना की आवाज उन्होंने सुनी होगी, लेकिन जवाब उन्होंने सोनू के पूछे जाने के बाद ही दिया…
“बेटे, अभी दो दिनों से चावल ही खा रहा हूँ, वैसे भी आज एकादशी है, मम्मी को कहो कि रोटी ही बना लेगी।”
रोशन के जाने के बाद, शुरुआती सालों में रीना ने कोशिश की थी ससुर जी से सीधे बात-चीत करने की, लेकिन शमशेर जी ने साफ शब्दों में कह दिया था…
“मुझे ये सब नही पसंद है, हम खानदानी लोग हैं, हमें अपने वंश की मान-मर्यादा का ख्याल रखना होता है।”
तब से फिर कभी रीना ने कोशिश नही की।
आये दिन काम करते हुए, झाड़ू लगाते हुए, कभी पल्लू गिर जाता था, तो शमशेर जी टोक देते थे।
बाहर की दुनिया से शादी होते ही उसका लोकडॉन हो गया था। रोशन ही उसका दुनिया था। रोशन के जाने के बाद लोकडॉन कर्फ्यू में बदल गया था। वह सुंदर कपड़ा नही पहन सकती थी, श्रृंगार नही कर सकती थी, किसी पुरुष से बात नही कर सकती थी। अपशकुन समझे जाने वाली परंपरा की वजह से आसपास की महिलाएं उसके पास बैठना ज्यादा पसंद नही करती थी।
वैसे आस पड़ोस के घरों में कहानियाँ जरूर बनती रहती थी। पड़ोस की रहने वाली हीरा बुआ आज ही अपनी माँ को बता रही थी…
“वो साड़ी बेचने वाला हर दूसरे -तीसरे दिन उसके आंगन में आता रहता है”
ये सारी बातें रीना के जिंदगी में लोकडाउन को और भयावह बनाती जा रही थी। फिर भी वह जिंदा थी, धीरे-धीरे उसने जीना सीख लिया था। हमारा समाज तो शुरू से ही आधी आबादी को लोकडॉन के लिए तैयार करती रहती है।
पिछले गर्मी में एक रात जब रीना की नींद खुली तो उसने किसी को खिड़की से अंदर झांकते हुए देखा था, नज़रे मिल जाने पर झेंपते हुए जल्दी से बरामदे में लगे अपने बिस्तर पर आकर शमसेर जी लेट गए थे। रीना की जिंदगी में अगली सुबह से अनिश्चित काल के लिए लोकडॉन की घोषणा हो चुकी थी।
लेखक- मुरारी झा
- Log in to post comments