आन्दोलन के प्रति दुराग्रह(contempt) आपको लोकतान्त्रिक समाज में नागरिक होने से रोकता है
आप एक सूचि बनाइये ! सूचि में उन सभी वस्तुओं, सेवाओं और अवसरों को लिखिए जिसे आप अपने गरिमामयी जीवन के लिए जरुरी मानते हैं|
आप गौर करेंगे की करीब-करीब वो सभी बातें जो आज आपके जीवन को गरिमा प्रदान करती है, इतिहास में हुए अनगिनत आंदोलनों का परिणाम है| जैसे कि लिखने-पढने की आजादी, कपडे पहनने की आजादी, अपने पसंद की जगहों पर आ-जा सकने की आजादी, यहाँ तक की अपने पसंद का खाना खाने की आजादी|
राज्य अपने स्वभाव से ही अपने नागरिकों के जीवन के हर पहलु को नियंत्रित करना चाहता है| नागरिकों को प्राप्त अधिकार राज्य के शक्तियों को नियंत्रित करता है| किसी भी अन्य संस्था की तरह राज्य भी हमेशा अपनी शक्तियों के विस्तार में लगा रहता है, लेकिन राज्य की शक्ति का विस्तार अगर नागरिक अधिकारों के हनन से होता हो, तो फिर एक लोकतान्त्रिक देश के नागरिक के रूप में आप को हमेशा नागरिकों के अधिकारों के पक्ष में खड़ा होना चाहिए|
हम और आप सभ्यता के विकास के जिस पैदान पर खड़े हैं और जिन सुविधाओं एवं अवसरों का इस्तेमाल कर अपनी जिन्दगी जी रहे हैं, उसमे लाखों आन्दोलनकारियों का योगदान है जिन्होंने कई वर्ष जेल में बिताये, अपनी जानों की क़ुरबानी दी, हफ़्तों और महीनों भूखे रहे, यातनाएं सही| याद रखिये इतिहास में मानवता ऐसी दौर से गुजरी है जब लोगों का खरीद-फरोख्त होता था|
परोपकार जैसे मूल्य को भारतीय संस्कृति में बहुत अहमियत प्राप्त है, मुझे लगता है आन्दोलनकारियों से ज्यादा परोपकारी कोई और हो नहीं सकता है| उनकी अपनी जिन्दगी तो आन्दोलनों की भेंट चढ़ जाती है, लेकिन आने वाली पीढियां उनके संघर्षों से उपजी बेहतर जीवन मूल्यों का फायदा उठाती है| इंजीनियर- डॉक्टर बनना आसान है, आन्दोलनकारी बनना कठिन है-बहुत कठिन| वे बहुत साहसी लोग होते हैं, और बहुत बिरले| आधुनिक बाज़ार आधारित जीवन शैली जिसमे नौकरी की अनिश्चितता और ऋण की अव्श्यम्भाव्य्ता हम सब के जीवन का हिस्सा बन गया है, आन्दोलनकारी बनने की सम्भावना ही खत्म कर देता है| बाजार आधारित जीवन शैली घोर गैर बराबरी पैदा करती है यह व्यवस्था कभी नहीं चाहेगी की आप आन्दोलनकारी बनें| लेकिन एक लोकतान्त्रिक समाज शांतिपूर्ण आन्दोलनों के बिना जिन्दा नहीं रह सकता है| लोकतान्त्रिक समाज में आन्दोलनों को यज्ञ की तरह देखना चाहिए| आन्दोलन के तप से देश और उसके नागरिक निखर कर बाहर आते हैं|
भारत जैसे विशाल देश में जहाँ इतने अलग-अलग समूहों में लोग रहते हैं, कई बार ऐसा हो सकता है कि एक समूह की मांग को दूसरा समूह अपने खिलाफ मान सकता है| ऐसे में लोकतान्त्रिक तरीकों से एवं संवैधानिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए रास्ते निकाले जा सकते हैं| हमारे संविधान में वर्णित न्याय एवं बराबरी का सिध्धांत हमें मौका देता है कि हम किसी मुद्दे को एक या दुसरे समूह के हित या अहित से जोड़कर देखने के बजाय न्याय एवं बराबरी के संवैधानिक मूल्यों के कसौटी पर देखें तो समाधान आसानी से निकल आएगा| मेरे ख्याल से किसी भी आन्दोलन को आप संवैधानिक मूल्यों की कसौटी पर रख कर देखें| अगर आन्दोलनकारी समूह की मांग संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप है तो आप पूरी श्रधा से इन आंदोलनों के पक्ष में खड़े हो जाएँ| कई बार आपको यह अपने हित के खिलाफ जाता नजर आएगा लेकिन न्याय और बराबरी के हित में अगर है तो फिर यह आपके अहित में भी नहीं होगा|
लोकतान्त्रिक समाज इन्हीं आन्दोलनकारी लोगों के संघर्षों का नतीजा है| उनके संघर्षों के प्रति दुराग्रह आपको लोकतान्त्रिक समाज का नागरिक होने से रोकता है| इतने संघर्षों से प्राप्त लोक्तात्न्त्रिक मूल्यों को जो आपके जीवन को गरिमा प्रदान करता है क्या आप अपने दुराग्रह का भेट चढ़ाना चाहते हैं?
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