अध्यापकीय जीवन के फलितार्थ: योगफल नहीं, गुणनफल

अध्यापकीय जीवन के फलितार्थ: योगफल नहीं, गुणनफल

Posted on: Tue, 01/05/2021 - 01:31 By: admin
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अध्यापकीय जीवन के फलितार्थ: 

योगफल नहीं, गुणनफल

 

 

“आप कैसा महसूस कर रहे हैं?” 

पिछले दिनों महामारी के दौर से गुजरते हुए इस बात पर बहुत चर्चा हुई है कि भावनात्मक रूप से लोगों के जीवन पर इसका क्या असर पड़ रहा है| कई संगठनों ने इस मुद्दे पर वर्कशॉप आयोजित किये है| कुछ में हिस्सा लेने का मौका मुझे भी मिला। यह जुमला वे बार-बार इस्तेमाल करते हैं| मुझे लगता है किताब पढ़ना भी एहसास का मामला है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है की किताब पढ़ने के हमारे शुरुआती एहसास खासकर स्कूल के दिनों में अच्छे नहीं हो पाते हैं और अमूमन यह एक मशीनीकृत अनुभव रहता है और कई मायनों में दर्द भरा|

 

 श्री श्याम नारायण मिश्रा जी के जीवन पर आधारित पुस्तक “ अध्यापकीय जीवन का गुणनफल” पढ़ते हुए मैं  कैसा महसूस कर रहा था?  मुझे लगता है कि हमारी शब्दावली हमारे एहसास को बयां करने को लेकर अभी बहुत विकसित नहीं है फिर भी मैं कहूंगा... मैं ऐसा महसूस कर रहा था कि मैं अपनी जड़ों से जुड़ गया हूं| ग्राउंडेड फील कर रहा हूँ। परिवार में छोटे बच्चों को उनके दादा-दादी अपने परिवार से जुड़ी हुई कहानियों को सुनाते हैं और इसी प्रक्रिया के जरिए विरासत की अमूर्त पहलु को एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी मे हस्तांतरित की जाती है| श्याम बाबू के जीवन की कहानी मेरे लिए यही अनुभव लेकर आया है|उस विरासत को लेकर इस समुदाय के साथ मैं और ज्यादा एकात्म महसूस करता हूं।

 

कई साल पहले महाराष्ट्र की लेखिका अनीता पवार की पुस्तक “द वीव ऑफ़ माय लाइफ” मैंने पढ़ी थी | पहली बार उस पुस्तक को पढ़ते हुए यह एहसास हुआ था कि एक व्यक्ति अपने जीवन की गाथाओं को कहते हुए उस वक्त की सामाजिक, सांस्कृतिक, एवं राजनीतिक हालात को भी बयान करता है| वस्तुतः यह किसी व्यक्ति के जीवन के द्वारा ही प्रतिबिंबित होता है या यूं कहें कि मूर्त रूप लेता है| हमें अगर किसी समय और काल में प्रचलित सामाजिक,आर्थिक, राजनीतिक मूल्यों को समझना है तो उसका सबसे सशक्त माध्यम आत्मकथा हो सकती है| उस पुस्तक को पढ़ते हुए ज्ञान निर्माण के क्षेत्र में इस विधा से मेरा गहरा जुड़ाव हो गया था |

 

 श्री श्याम नारायण मिश्र जी के जीवन को बताती पुस्तक “अध्यापकीय जीवन का गुणनफल” बिहार के एक इलाके के शिक्षा व्यवस्था, सामाजिक-राजनीतिक जीवन के बारे में बताता है| मैंने अपने जीवन के 20 वर्ष इसी इलाके में गुजारे हैं| 1990 के दशक में बिहार के एक गांव में मेरी स्कूली शिक्षा हुई थी। उन स्कूली अनुभवों को अब मैं अगर देखूं तो वे निराशाजनक थे। इस किताब को पढ़ते हुए यह जानकर बहुत खुशी हुई कि ऐसी स्थिति बिहार में हमेशा से नहीं रही है। और सिर्फ खुशी ही नहीं गर्व महसूस हुआ कि पूरे बिहार में सामुदायिक स्तर पर शिक्षा को लेकर एक ललक थी जहां बच्चों को शिक्षित करने के लिए लोग सरकारी व्यवस्था का इंतजार नहीं करते थे| गांव के लोग खुद आगे आते थे, अपना जमीन दान देते थे| चंदा करके पैसा इकट्ठा किया जाता था, स्कूल बनाए जाते थे, शिक्षक नियुक्त किए जाते थे और पढ़ाई-लिखाई का काम चल पड़ता था| 1960-70 के दशक में बिहार के करीब करीब सभी गांव में लोगों ने आगे आकर स्कूल और कॉलेज का निर्माण किया। मुझे यह बात हतप्रभ करता है...आज जिस बिहार को सबसे पिछड़े राज्य के रूप में स्थापित कर दिया गया है, वहां के लोग सामुदायिक भागीदारी से स्कुल और कॉलेज निर्माण के कार्य में जुटे थे| मुजफ्फरपुर के लंगट सिंह कॉलेज की कहानी जहाँ श्याम बाबु ने पढाई की थी, यकीन नहीं होता है कि अमेरिका, ब्रिटेन से पीएचडी किये हुए प्रोफेसर वहां पढ़ाते थे|

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इस किताब को पढ़ते हुए इसका दूसरा भावनात्मक पहलू है... मेरा खुद शिक्षक होना। राजनीति, मीडिया और अन्य पेशे से जुड़े हुए लोगों ने अनगिनत आत्मकथाएं लिखी हैं| भरपूर साहित्य उपलब्ध है, लेकिन शिक्षकों का जीवन कैसा रहा है? किन संघर्षों का उन्होंने सामना किया?  किस तरह के अवसर उन्हें मिले?  कैसे उन्होंने समाज को प्रभावित किया? दुर्भाग्यपूर्ण रूप से आज भी यह मौखिक परम्परा का ही हिस्सा है। आप लोगों को कहते हुए पाएंगे...फलाने गाँव में एक मास्टर साहब थे....

शिक्षा साहित्य में एक शिक्षक के रूप में आप अपना प्रतिनिधित्व कहाँ पाते हैं? और जब कोई ऐसी किताब आपके हाथ लग जाये तो बेहद ख़ुशी होती है| शायद विदेशी धरती पर देशी खाना मिल जाने का अनुभव जैसा|

 

श्याम बाबू के शिक्षकीय जीवन का यह सफर पढ़ते-पढ़ते मैं उनके साथ हो लेता था। साख मोहन गांव के बाहर बसी उस स्कूल को मैं अपने हाईस्कूल के साथ जोड़कर देख पाता था| उनके द्वारा कही गई कहानी ऐसा लगता है जैसे मेरे मानस पटल पर कोई चलचित्र चल रहा हो और मैं हर चीज देख पा रहा हूं|  ऐसा लगता है  कि यह कहानी तो मैं भी कहना चाहता हूं जिसको श्याम नारायण मिश्र कह रहे हैं| किसी भी साहित्यिक रचना की यह खूबसूरती होती है की पढने वाले को वह अपनी अभिव्यक्ति का एहसास दे| बहुत ही सहज तरीके से बातों को कहा गया है| मुझे ताज्जुब होता है कि कितनी बारीकी से वे लोगों का नाम, इसवी-सन इत्यादी को अंकित कर पाए हैं|

 

व्यापक संदर्भ में अक्सर हम शिक्षक के जीवन को एक फ्रेम में कैद कर देते हैं जहां हम यह मानने लगते हैं कि उनका काम बच्चों को पढ़ाना है। इस किताब में शिक्षक के जीवन के उन तमाम पहलुओं को बखूबी दर्शाया गया है जहां वह कक्षा से बाहर आकर जीवन के और भी पहलुओं को जीता है उसे प्रभावित करता है| शिक्षक यूनियन के आंदोलन में उनका शामिल होना, उसका नेतृत्व करना, अलग-अलग जगह पर जाकर स्कूल रूपी संस्था का निर्माण करना, इत्यादी, उनके जीवन की यह कहानी एक शिक्षक के जीवन की व्यापकता को बताता है | दिल्ली जैसे बड़े शहर के स्कूलों के साथ काम करते हुए यह जज्बा अमूमन  देखने को नहीं मिलता है कि शिक्षक किसी संस्था के निर्माण में लगे हुए हों| आज के जमाने में हम जिस प्रकार अपने आपको असम्बद्ध कर लेते हैं ऐसे में  अध्यापकीय जीवन के गुणनफल की अवधारणा का अनुभव हम नहीं कर पाते हैं| 

 

उस जमाने में जब अनेक मौके उपलब्ध नहीं थे अपने जुनून को उन्होंने चुना और एक नियमित आय वाली सरकारी नौकरी छोड़ दी| केंद्र सरकार के डाक विभाग में उनकी नौकरी लगी थी|  यह  उनके जीवन के साहस को दिखाता है और पूरी कहानी साहस की कहानी है। किसी भी जीवन में गुणनफल बिना साहस के संभव नहीं है।

 

किसी भी व्यक्ति के जीवन में अनेकों घटनाएं घटती हैं यह संभव नहीं है कि किसी भी किताब में उन सभी घटनाओं का जिक्र किया जाए लेकिन घटनाओं का चुनाव और उसका आपसी तारतम्य एक बेहतर क्राफ्ट का नतीजा होता है या उसकी पहचान होती है| इस किताब को पढ़ते हुए आप यह समझ पाएंगे कि यह उस क्राफ्ट का एक बेहतरीन उदाहरण है| किताब शुरू से अंत तक आपको बांधे रखता है| आप जिज्ञासा से भरे हुए रहते हैं और अंत तक आते-आते एहसास होता है कि इतनी जल्दी क्यों खत्म हो गई| लेखक से मिलने की उत्कंठा आपके अंदर जगती है| शिक्षा अधिकारी महोदय का ‘तौलिया के प्रति लगाव के प्रसंग’ को पढ़ते हुए आप ठहाके लगायेंगे|   किताब की वह पंक्ति जो उन्होंने अपनी विदाई समारोह में कही थी को पढ़ते हुए शायद किसी भी पाठक की आंखों में आंसू आ जायेगा... बहारें फिर से आएंगी, फूल फिर से खिलेंगे और किताब की आखिरी पंक्ति…"फेरे लगते रहें। परिक्रमा जारी रहे।" मन को छू जाती है।

 

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