आज सुबह राधेश्याम जी को डांट पड़ते हुए मैंने देख लिया था। उस वक्त तो नहीं, लेकिन दोपहर जब मैं घर लौटा तो थोड़ी देर उनके पास बैठ गया पूछा उनसे
क्या बात हो गई थी? क्यों सुपरवाइजर डांट रहा था आपको?
उन्होंने बताया…
सुबह 4:00 बजे के आसपास थोड़ी झपकी आ गई थी उस वक्त सर्दी भी बहुत लगती है तो थोड़ी देर के लिए आंख बंद हो गयी थी। एक कंबल यही छुपा कर रखता हूं टेबल के नीचे पैर पर उसे ओढ़ लिया था।थोड़ी गर्माहट आ गई। चाहे कितनी भी सर्दी हो हमें अपने गार्ड वाले ड्रेस में ही रहना होता है कंबल ओढ़ लेने की अनुमति नहीं है। किसी ने नियंत्रण कक्ष से कैमरे पर देख लिया और सुबह-सुबह फिर इसी बात पर मुझे डांट पड़ रही थी।
वे 3 साल पहले तक बिहार के एक गांव में एक अच्छे खासे किसान थे। 4 बीघा जमीन, दो बैल और 1 भैंस उनके पास था। बेटी की शादी के समय उन्होंने कुछ कर्ज लिया और कर्ज पर ब्याज इस तरीके से बढ़ने लगा कि उनके पास खेती छोड़ कर शहर भागने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बच गया। इस बीच उन्होंने अपने बैल,भैस सब बेच दिये। खेत बटाई पर लगा दी जहां से उन्हें ना के बराबर ही उत्पाद हासिल होता है। बता रहे थे कि पिछले दशक में खेती में लगने वाली कीमत में बेतहाशा वृद्धि हुई लेकिन उसके उत्पाद की कीमत बिल्कुल ही नहीं बढ़ी।
गांव में अब अकेली बूढ़ी मां बच गई है। पिछले साल पत्नी को यहीं ले आए हैं। दिन में 8 घंटे और रात में 12 घंटे की ड्यूटी दो अलग-2 जगहों पर करते हैं। झपकी तो आ ही जाएगी लेकिन यह बात कैमरे को समझ नहीं आएगा।
आंदोलन करने वाले किसान इन बातों को समझते हैं। वे शहर की झुग्गियों में आकर गुमनाम जिंदगी नहीं जीना चाहते हैं। वे सिर्फ अपने खेतों से अनाज नहीं उगाते हैं बल्कि अपने खेत की मिट्टी में अपनी परंपरा,विरासत, इतिहास और संस्कृति को उन्होंने संजोए रखा है वे इसे नहीं खोना चाहते हैं।
किसानों की यह लड़ाई दरअसल किसी राजनीतिक दल के खिलाफ नही है। और ना ही मौजूदा सरकार के खिलाफ है। इस लड़ाई को अगर हम व्यापक अर्थों में समझने की कोशिश करें तो 1990 के दशक के बाद से भारत में चली आ रही नई आर्थिक नीति और उसके दुष्परिणामों के खिलाफ है जो पिछले 3 दशकों में इकट्ठा होकर एक ऐसी परिस्थिति में पहुंच चुकी है जहां यह अब करीब-करीब भारत में लोकतंत्र को ही चुनौती देने लगी है।
देश के संसाधनों को पूंजीपति वर्ग के हाथों में सौंपने की नीति अलग-अलग सरकारों के समय अलग-अलग गति से आगे बढ़ती रही। पिछले कुछ सालों में यह गति थोड़ी तीव्र हो गई है। जिस भारत की कल्पना भारत के संविधान में की गई है पूंजीपति वर्ग के हाथों में भारत के संसाधनों को सौंपकर उस भारत के सपने को साकार नहीं किया जा सकता है।
स्वतंत्रता आंदोलन के समय और देश की आजादी के बाद भी वर्षों तक यह समझ बनी रही कि भारत की आत्मा उसके गांव में बसती है। 1990 के बाद गांव को उजाड़ कर शहर बसाने को विकास कहकर परिभाषित किया जाने लगा। एक सामान्य ग्रामीण व्यक्ति अपने घर, खेत- खलिहान, स्वच्छ, हवा, पानी के साथ अपने परिवेश में जीता था। एक सामुदायिक जिंदगी थी। वे साथ मिलकर गाते थे और साथ मिलकर लड़ाई करते थे, साथ बैठकर खाना खाते थे उन्होंने हजारों वर्षों में एक संस्कृति विकसित की जिसकी जड़ें बहुत गहरी है।
अपने जड़ों से उखाड़ दिए जाने के बाद एक किसान शहर में आकर गुमनाम जिंदगी जीता है। अक्सर शहर के किसी झुग्गी में उसका ठिकाना होता है। बड़े पैमाने पर गांव को उजाड़ कर शहर बसाना जंगलों को उजाड़ कर चिड़िया घर बनाने जैसा है। जानवरों के संबंध में हमारी सोच विकसित हुई और कम से कम चिड़िया घर बनाने की अवधारणा की दुनिया भर में भर्त्सना की गई और हम अब बायोडायवर्सिटी पार्क, वन अभ्यारण्य, राष्ट्रीय वन इत्यादि बनाते हैं यानी कि जानवरों को उनके परिवेश में ही रहने देते हैं और साथ में उन्हें जिस तरीके की सुरक्षा की आवश्यकता होती है हम वहीं यह सुनिश्चित करते हैं लेकिन मनुष्यों के संबंध में हमने चिड़ियाघर बनाना जारी रखा है।
पिछले दशकों में ग्रामीण परिवेश में हमने स्कूली व्यवस्था को तबाह कर दिया, अस्पताल अब वहां बचे नहीं है, उच्च शिक्षा सिर्फ खंडहर पड़ी इमारतों का नाम बनकर रह गई है। इन सब के बावजूद बड़ी संख्या में लोग अभी भी गांव में हैं क्योंकि आजीविका का साधन यानी कृषि,अभी तक बचा हुआ था अब हमने अंततः उसको बर्बाद करने की तैयारी कर ली है।
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