वैसे तो बहुत से शिक्षाविदों ने ऐसी मान्यताओं को तार्किक आधार पर सिरे से खारिज किया है जो बच्चों को महज कोरा कागज़ समझती हैं या फिर गीली मिट्टी, जिस पर शिक्षकों, अभिभावकों और बड़ों के द्वारा जो भी लिखा जाएगा वही अंकित होगा। वह जैसे ढाले जाएँगे उसी तरह ढल जाएँगे। इसमें स्वयं उनके प्रयासों, अवलोकनों, अंतर्निहित क्षमताओं या सहज रूप से उपलब्ध परिवेश की भूमिका गौण ही रहेगी। आज भी कमोबेश हमारी शिक्षा व्यवस्था में यही समझ प्रभावी बनी हुई है। स्कूल किताबों को अंतिम ज्ञान मान उसी को रटाने के प्रयास में जुटे हैं।
बच्चे अक्सर इस प्रचलित समझ के परे अपनी स्मृद्ध उपस्थिति दर्ज कराते हैं। वह अपनी गतिविधियों, बातचीत और सहज मेधा से यह सिद्ध करते रहते हैं कि उन्हें महज कोरे कागज समझना गलत है। वे अपनी सामाजिक- साँस्कृतिक संदर्भों के अनुरूप अनुभवों और समझ से लैस होते हैं। औपचारिक रूप से सीखना वे बिल्कुल शून्य से शुरू नहीं करते। पैदा होने के बाद और स्कूलों में प्रवेश पाने तक के बीच वे भाषा, शारीरिक कौशलों एवं संस्कृति के सरल सूत्रों को कुछ हद तक आत्मसात कर चुके होते हैं। वे अपनी कुछ विशिष्ट क्षमताओं को भी कच्चे रूप में ही सही अवसर मिलने पर प्रदर्शित करने लगते हैं। वास्तव में आगे के औपचारिक व सुनियोजित अधिगम को ग्राह्य करने और उसके साथ अंतःक्रिया करने में यह विशिष्टताएं बहुत काम की होती हैं। इनको आधार बनाकर सीखने की प्रक्रिया को रुचिकर और आसान बनाया जा सकता है। पर स्कूलों में स्कूल के बाहर सीखे गये अनुभव या ज्ञान को तरजीह देने की संस्कृति अभी भी बहुत कमजोर है ।
मुझे अपनी छठीं की कक्षा में ‘असमानता और भेदभाव’ की संकल्पना को बच्चों के स्तरानुरूप बनाने के लिए उपयुक्त उदाहरण ढूँढना मुश्किल पड़ रहा था। पाठ में जातीय, धार्मिक, लैंगिक या आर्थिक आधार पर होने वाले भेदभावों का उदाहरण दिया है। पर मैं शुरुआत स्वयं बच्चों द्वारा अनुभव की जाने वाली परिस्थितियों के वर्णन से करना चाहता था। बात करने पर इसमें मेरी मदद आठवीं कक्षा के एक विद्यार्थी ने की। उसने बताया कि ‘हम बच्चे जब दुकान पर कोई सामान लेने जाते हैं और यदि कोई बड़ा व्यक्ति हमारे बाद वहाँ कुछ खरीदने आ जाए तो अक्सर दुकानदार हमें सामान न देकर पहले उन्हें देते हैं । उनकी नजर में हम बच्चों के समय की कोई कीमत नहीं होती। यह उम्र के आधार पर होने वाला भेदभाव ही तो है।’ इस अनुभव आधारित उदाहरण ने कक्षा में इस संकल्पना को खोलने में शुरुआती आधार का काम बखूबी कर दिया। बच्चों का अपना अनुभव जब किताबी ज्ञान से जुड़ता है तभी वह जीवंत बनता है।
बच्चे हम बड़ों या शिक्षकों को भी कई बार नई या अनोखी सीख देते हैं। इसलिए उन्हें अपने-आप को अभिव्यक्त करने का अवसर देना बहुत जरूरी है। मेरी एक छात्रा ने तो मुझे एक वाक्य बोलकर ही बहुत बड़ी सीख दे दी। वह मुझसे कुछ पूछना चाहती थी, पर मैंने मासिक रजिस्टर का काम पूरा करने के चक्कर में उसे बाद में आने को कहा। वह रजिस्टर की तरफ देखते हुए बोली, ‘आखिर मुझसे जरूरी कौन सा काम हो सकता है?’ उसके इस कथन ने मेरी चेतना को झिंझोड़ कर रख दिया। ऐसा लगा कि समस्त शैक्षिक दर्शन और ज्ञानमीमांसा की बारिश उसने मुझ पर एक साथ कर दी हो। जाहिर है मैं निरूत्तर हो उसकी तरफ ध्यान देने को विवश हो गया।
बच्चों को बच्चा तो समझा जाना चाहिये पर बच्चे का मतलब अनाड़ी नहीं है। कहने का तात्पर्य है कि उन्हें हमें अपने परिवेश का जीवंत सामाजिक- साँस्कृतिक इकाई मानकर आगे बढ़ना होगा। एक ऐसी इकाई जो अपने अवलोकन, अवसरों के दोहन, गलतियों और प्रयासों से निरंतर सीखती है। सीखने की यह प्रक्रिया समता, स्वतंत्रता से पूर्ण वातावरण में संपन्न की जानी चाहिए। आत्मविश्वास और लोकतांत्रिक मूल्यों से लैस इकाइयां ही न्याय और बंधुत्व पर आधारित सामाजिक समष्टि का निर्माण करेंगी जोकि अभी तक विषमता, वर्चस्व और अन्याय पर टिकी हुई है।
- आलोक कुमार मिश्रा
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