शिक्षकों के गैर पेशेवर पहचान को बढ़ावा देती नई शिक्षा नीति।

शिक्षकों के गैर पेशेवर पहचान को बढ़ावा देती नई शिक्षा नीति।

Posted on: Sat, 10/31/2020 - 07:43 By: admin

शिक्षकों  के गैर पेशेवर पहचान को बढ़ावा देती नई शिक्षा नीति।

स्वतंत्र भारत के करीब-करीब 75 सालों के इतिहास में अभी तक तीन बार शिक्षा नीति बनाई गई हैl 1968,1986( संशोधित रूप में 1992) और अब 2020, निश्चित ही शिक्षा के क्षेत्र में ये महत्वपूर्ण नीतिगत दस्तावेज है। शिक्षा नीति किसी भी देश में शिक्षा की दिशा और दशा तय करती है। किसी भी नीति में कुछ अच्छे और कुछ बुरे प्रावधान हो सकते हैं लेकिन अच्छे और बुरे प्रावधानों से नीति की व्याख्या नहीं की जा सकती है। नीति की व्याख्या वह कौन सी दिशा तय करती है,इस संदर्भ में करना होता है।

स्कूली शिक्षा को सभी नीतिगत दस्तावेजों में महत्वपूर्ण माना गया है लेकिन उसे लेकर हमारा ढीला-ढाला रवैया करीब करीब सभी दस्तावेजों का हिस्सा रहा है। ब्रिटिश शासन जिसके अंतर्गत भारत में आधुनिक स्कूली शिक्षा का उदय हुआ, 1870 में ही ब्रिटेन के बच्चों के लिए अनिवार्य शिक्षा कानून लेकर आ गई और हम अपने देश में यह कानून 2010 में लेकर आ पाए। जब हम दुनिया से अपने देश की तुलना करते हैं तो 1870 और 2010 का फर्क एक महत्वपूर्ण पैमाना है जिसके जरिए हम शिक्षा के क्षेत्र में अपने पिछड़ेपन को समझ सकते हैं। 

पिछले दशकों में स्कूली शिक्षा का विस्तार हुआ है। स्कूल जाने वाले उम्र के करीब करीब सभी बच्चे स्कूल में दाखिला लेते हैं। भारत में प्राथमिक कक्षाओं में NER 100% तक पहुंच गया। लेकिन एक और विचित्र घटना इसके साथ साथ हो रही थी। जहां एक और शिक्षा का विस्तार हो रहा था वहीं दूसरी ओर शिक्षक के पेशेवर पहचान को महत्वहीन बनाया जा रहा था। एक ऐसा माहौल बनाया गया जहां बड़ी संख्या में गैर पेशेवर लोग भी शिक्षक की भूमिका में आ सकते हैं। ऐसा करने के पीछे मकसद यह रहा कि स्कूली शिक्षा पर होने वाले खर्च को घटाया जाए क्योंकि पेशेवर शिक्षक के वेतन की वजह से सरकारों पर खर्च का बोझ बढ़ता जा रहा था।

तमाम ऐसे शोध करवाए गए जिससे यह साबित हो सके की गैर पेशेवर लोग भी जब शिक्षक बनते हैं तो वे बच्चों को बेहतर पढ़ाते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में संसाधन तो बचाया जा सका लेकिन शिक्षा को नहीं। गुणवत्ता के नए मानक गढ़ दिए गए। लेकिन खोखले मानक अधिक दिनों तक टिक नहीं सकते है।आज हमारे सामने ऐसी परिस्थिति है जहां स्कूलों में 95- 97% नंबर लाने वाले बच्चे आत्महत्या कर रहे हैं। हमारे स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे अत्यधिक दबाव में जीते हैं।  कई तरह की मानसिक और व्यावहारिक असंगतियाँ उनके व्यक्तित्व में पैदा हो रही है। एक समाज के तौर पर हमें इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है। 

शिक्षकों के पेशेवर पहचान को मजबूत कर इस समस्या से हम निजात पाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठा सकते थे। स्कूली शिक्षा व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए नई शिक्षा नीति से यह उम्मीद थी कि शिक्षक के पेशेवर पहचान को महत्वहीन बना दिए जाने वाली प्रक्रिया पर रोक लगा सकेगी लेकिन अफसोस, नीति के प्रावधानों से ऐसा होता हुआ नहीं दिख रहा है।

इस लेख में हम देखेंगे कि शिक्षकों के गैर पेशेवर पहचान की प्रक्रिया क्या होती है? इसका क्या मतलब होता है? यह किस प्रकार हमारे स्कूली शिक्षा व्यवस्था को नुकसान पहुंचा रही है? और फिर नीति के प्रावधान कैसे इसे रोकने में असफल होती दिख रही है? लेख में हम ‘शिक्षक के पेशेवर पहचान को महत्वहीन बना दिए जाने वाली प्रक्रिया‘ के लिए डिप्रोफेशनलाइजेशन शब्द का इस्तेमाल करेंगे।

 

डिप्रोफेशनलाइजेशन को गूगल सर्च किस प्रकार परिभाषित करता है,पहले यह देख लेते हैं।

“Deprofessionalisation is the systematic deskilling of professional positions. It is a process which occurs in a workplace or industry when non-qualified or less-qualified individuals are used to perform work which is more properly performed by appropriately qualified individuals.”

पेशेवर वातावरण के अभाव में क्या होता है?

क्या फर्क पड़ता है?

हाल ही में एक चर्चा में भाग ले रहा था। बात आई कि शिक्षक किताबों में पाठ को पढ़ाने से पहले शिक्षकों के लिए जो नोट दिया हुआ रहता है उसे अमूमन नहीं पढ़ते हैं।

कई प्रिंसिपल से मेरी बात होती है वे कहते हैं कि अगर ध्यान नहीं रखा जाए तो कई शिक्षक क्लास में नहीं जाते हैं अगर जाते हैं तो पहले निकल जाते हैं, फोन पर बात करते हैं,तैयारी करके नहीं जाते हैं। कुछ नया पढ़ना और सीखना तो बहुत दूर की बात है।

अमूमन ब्यूरोक्रेसी और स्कूल प्रबंधन इसका उपाय टेक्नोलॉजी और प्रबंधन क्षमताओं के अंदर ढूंढने की कोशिश करता है और उसके फलस्वरूप माइक्रोमैनेजमेंट की कोशिश में जुट जाता है।

माइक्रोमैनेजमेंट- हम सब कुछ तय कर देंगे- क्या पढ़ाना है, कैसे पढ़ाना है, खड़े रहना है या बैठ जाना है, कितनी देर बोलना है कितनी देर चुप रहना है, क्लास में कहाँ खड़ा होना है, कहां पर बैठ जाना है, किन शब्दों का इस्तेमाल करना है, किन शब्दों का इस्तेमाल नहीं करना है, इत्यादि।

इन सभी उपायों से कुछ देर के लिए ऐसा लगने लगता है कि यह उपाय कारगर है। लेकिन वास्तव में ऐसा सिर्फ लगता है ।पढ़ने पढ़ाने की प्रक्रिया को यह पूरी तरह मशीनीकृत बना देता है। अभी तक के समझ के अनुसार यह स्थापित रहा है कि पढ़ना-पढ़ाना एक गहन अंतर्संबंध का कार्य (Intimate work) है।

हम जब भी अपने जीवन में उन शिक्षकों के योगदान को याद करते हैं जिन्होंने हमारे जीवन के यात्रा को प्रभावित किया है तो अमूमन वे शिक्षक याद आते हैं जो भावनात्मक रूप में हम से जुड़े हुए थे। यह प्यार में पड़े दो लोगों के तरह होता है जहाँ एक की झलक आप दूसरे की आंखों में देख सकते हैं। मुझे ऐसे शिक्षक मिले हैं। 

मेरे ख्याल में कोई भी टेक्नोलॉजी या मैनेजरियल स्किल्स बच्चे और शिक्षक के बीच के इस भावनात्मक संबंध को तय नहीं कर सकता है । असली पढ़ाई यहीं होती है इसी भावनात्मक द्वंद में जो शिक्षक और बच्चे के बीच कार्य करता है । और यही वह खाई है। जिसे सिर्फ और सिर्फ शिक्षकों को पेशेवर बनाकर भरा जा सकता है।

अन्यथा हम पहले से ही स्कूलों में एक मशीनी कृत व्यवस्था का शिकार हो चुके हैं। यह दिन पर दिन बढ़ता रहेगा। हमारा स्कूल इंसान के बदले मशीन बनाकर बच्चों को बाहर निकालेगा। स्कूल एक संस्था के रूप में जिस प्रकार संचालित होती है उसको देखते हुए 1970 के दशक में ही अमेरिकी शिक्षाविद इवान इलिच ने कहा था कि हम अपने स्कूलों में साइकोलॉजिकली इम्पोटेंट लोग बना रहे हैं, जो सोच नहीं सकते हैं।

नीचे लिखे न्यूज़पेपर के इस हेड लाइन को देखकर क्या आपको नहीं लगता है कि इसे दुरुस्त किए जाने की जरूरत है? इसका उत्तर सिर्फ और सिर्फ शिक्षकों के प्रोफेशनलाइजेशन की प्रक्रिया को बढ़ावा देने में निहित है।

“Two Gurugram students commit suicide post CBSE results, admn issues advisory”

Both had got good score, but were not happy with their performance: Police

स्कूल एक ऐसी संस्था है जिसका वास्ता हम सब के जीवन से है। अगर हमने इस संस्था को दुरुस्त करने में दिलचस्पी नहीं दिखाई तो इसकी आँच आज नहीं तो कल हम सब के दरवाजे तक पहुंचेगी। बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी। एक व्यापक समाज में जिस मुद्दे को लेकर आज कोई चिंता नहीं है उसकी कीमत हमें कई बार अपने बच्चों की जान देकर चुकानी पड़ती है।

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अब हम बिंदु बार यह देखते हैं कि पॉलिसी के प्रावधानों ने कैसे शिक्षकों के पेशेवर संस्थान को महत्वहीन बनाने से रोकने की दिशा में न केवल असफल दिख रही है बल्कि इसे और बढ़ावा दे रही है।

Workers/Teachers

पूरे दस्तावेज में यह शब्द 5 बार इस्तेमाल किया गया है। पूर्व प्राथमिक शिक्षा से संबंधित शिक्षकों को वर्कर भी बुलाया जा सकता हैं और वर्करों को शिक्षक भी बुलाया जा सकता है। वैसे इस शब्द का इस्तेमाल आंगनवाड़ी वर्कर के संदर्भ में हुआ है। लेकिन मेरा सवाल है कि क्या इसी तरह 

आशा वर्कर/डॉक्टर लिखा जा सकता है?

सिक्योरिटी गार्ड/पुलिस ऑफिसर लिखा जा सकता है?

पीयर टूटरिंग

पॉलिसी इस बात की ओर सबका ध्यान आकर्षित करती है कि बहुत बड़ी संख्या में ऐसे बच्चे हैं जो पढ़ना-लिखना नहीं सीख पाए हैं। इसको दूर करने के लिए पॉलिसी यह सुझाव देती है कि बड़ी संख्या में वालंटियर या वे कोई भी लोग जो पढ़-लिख सकते हैं, स्कूल उनको साथ लेकर पियर-ट्यूटरिंग के जरिए इन सभी बच्चों को तय समय सीमा के अंदर पढ़ना लिखना सिखा दे।

कितना आदर्श और नेक मकसद है यह!

 

क्या आपको नहीं लगता है कि भारत में शिक्षकों के प्रति एक मानसिकता जो पहले से ही काम करती आ रही है- क्या करते हो तुम, अ, आ इ ई ही तो सिखाते हो- को और बढ़ावा मिलेगा?

इस संबंध में मेरा एक निजी अनुभव भी है। 2008 में जब मैंने शिक्षक की नौकरी शुरू की थी, मेरी मां से किसी ने पूछा

‘आजकल आपका बेटा क्या कर रहा है’

मम्मी ने जवाब दिया

‘मास्टर बन गया है’

सज्जन बहुत दुखी होते हुए बोले

‘ अरे वह तो कोई भी बन जाता है, मैंने तो सुना था कि बहुत अच्छा पढ़ाई-लिखाई करता है दिल्ली में रहकर’

क्या आपको नहीं लगता है कि इस मानसिकता को शिक्षा के नीतिगत दस्तावेज में जगह दे दी गई है?

क्या शिक्षकों के पेशेवर पहचान पर यह एक प्रश्न चिन्ह नहीं है?

पॉलिसी जो बात-बात पर रिसर्च का हवाला देती हैं यहां एक बड़ी चूक कर रही है । 

प्रारंभिक शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले लोग जानते हैं कि शुरुआती वर्षों में बच्चों को पढ़ना-लिखना सिखाना एक महत्वपूर्ण कौशल का काम है जो सबके बस की बात नहीं है।

इसके लिए खास तरह के प्रशिक्षण की जरूरत होती है।

प्रारंभिक कक्षाओं में भारत में NER 100% है। यानी स्कूल जाने वाले उम्र के सभी बच्चे इस प्रक्रिया में शामिल होते हैं। फिर अगर ये पढ़ना-लिखना नहीं सीख पाते हैं तो इसका मतलब है कि पढ़ना-लिखना सीखने से जुड़ा हुआ बच्चों का अनुभव बहुत खराब रहा है। और इस काम में जुड़े हुए व्यक्तियों में प्रशिक्षण की कमी रही है।

ऐसे में अप्रशिक्षित लोग जब इन बच्चों के साथ जुड़ेंगे तो क्या आपको नहीं लगता है कि इस बात की बड़ी संभावना है कि इन बच्चों का पढ़ने-लिखने का अनुभव और खराब होगा जो शायद इन्हें शिक्षा से और दूर धकेलेगा।

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पूर्व प्राथमिक शिक्षकों के लिए अपर्याप्त प्रशिक्षण की व्यवस्था

“वे कोमल, अविकसित मस्तिष्क अपनी कोमलता के कारण ही अधिक भयंकर होते हैं, जब लोग पक्की सड़क पर चलते हैं तब हमारे पाँव की छाप नहीं पड़ती लेकिन जब गीली मिट्टी पर, धूल पर, रेत पर चलते हैं तब पैर बहुत गहरा धँस जाता है। पक्की सड़क पर पानी बह जाती है, कच्ची सड़क पर जहां जहां धंसे हुए पैरों से गड्ढे होते हैं, वहां कीच बनती है…”

ऊपर लिखी हुई ये पंक्तियां मैंने अज्ञेय से उधार ले ली है। सिर्फ यह बताने के लिए की पूर्व प्राथमिक शिक्षा कितना महत्वपूर्ण है और उसमें शामिल होने वाले शिक्षक जिनको पॉलिसी में वर्कर भी कहा गया है की कितनी बड़ी भूमिका है।

आगे देखते हैं कि पॉलिसी इनके लिए किस प्रकार के योग्यता और प्रशिक्षण का सुझाव दे रही है।

जिन्होंने 12वीं पास कर रखी है वे 6 महीने का सर्टिफिकेट कोर्स करके पढ़ा सकते हैं और जिन्होंने 12वीं तक की पढ़ाई नहीं की है- पांचवी तक की होगी, आठवीं तक की या 10वीं तक की, वे एक वर्ष का सर्टिफिकेट कोर्स करके इन बच्चों को पढ़ाने के लिए योग्य हो जाएंगे।

क्या आप इसे शिक्षक के पेशेवर पहचान पर एक प्रश्न चिह्न नहीं मानते की पांचवी या आठवीं पास कोई भी व्यक्ति एक वर्ष का सर्टिफिकेट कोर्स करके शिक्षक/वर्कर बन जाएगा और खासकर उन बच्चों को पढ़ाने के लिए जहां सबसे ज्यादा प्रशिक्षण की जरूरत है?

और इस पृष्ठभूमि में जहां पॉलिसी ही कहती है

“…This is to support the fact that all stages of school education will require the highest-quality teachers, and no stage will be considered more important than any other.”

सेकेंडरी कक्षा में अनेक विषय चुनने की आजादी

पूर्व प्राथमिक कक्षाओं से निकलकर थोड़ा ऊपर पहुंचते हैं और जिक्र करते हैं पॉलिसी के उन प्रावधानों का जिसे लेकर जश्न का माहौल है और हो भी क्यों नहीं लोकतांत्रिक देश में चुनने का अवसर सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है।

नौवीं से 12वीं कक्षा के बीच में पढ़ने वाले बच्चों को ढेर सारी विषयों को चुनने का मौका मिलेगा। मैं यहां जानबूझकर ढेर सारी विषयों को ‘पढ़ने का मौका मिलेगा’ शब्द का इस्तेमाल नहीं कर रहा हूँ।

इसके ज्ञान मीमांसिय यानी कि एपिस्टेमिक पहलू पर किसी और लेख में चर्चा करेंगे फिलहाल यहाँ यह प्रावधान शिक्षक के पेशे को और अधिक डिप्रोफेशनलाइज कैसे करता है इस पर केंद्रित करते हैं।

स्कूल चलाने वाले -सरकारी और गैर सरकारी समूह- दोनों में ही शिक्षकों के वेतन पर आने वाला खर्च हमेशा से एक बड़ी चिंता की वजह रही है। समय-समय पर कई संस्थाओं ने सरकारों को सुझाव भी दिया है कि इसे कैसे कम किया जा सकता है। सुझाव देने वाली संस्थाओं में विश्व बैंक भी शामिल है। उन्हीं सुझावों का नतीजा है कि आज देश के करीब-करीब हर राज्य में बड़ी संख्या में शिक्षकों को ठेके पर नियुक्त किया जाता है। बताया जाता है कि बिहार में शिक्षकों की कुल संख्या 5 लाख में से 4 लाख 60 हजार ठेके पर नियुक्त हैं। अब इसकी भी जरूरत नहीं रहेगी और भी बेहतर उपाय सोच लिए गए हैं। नए प्रावधान के साथ पॉलिसी ने उस चिंता को दूर करने का पुख्ता इंतजाम कर दिया है।

स्कूली शिक्षा में इसे ‘अर्बन क्लेप’ मोमेंट कहा जा सकता हैं। छात्र अगर नहीं भी तो स्कूल प्रशासन जरूर इस स्थिति में होगा कि हर दिन वह तय कर सके कि आज किन किन विषयों की डिमांड है और उस हिसाब से ऐप के जरिए वह सर्विस रिक्वेस्ट डाल सके।

वैसे इस मामले में स्कूल प्रशासन खुद बहुत होशियार होता है लेकिन पॉलिसी एक कदम आगे बढ़ कर उन्हें सुझाव देती है कि शिक्षकों को आप स्कूलों के लिए नहीं ‘स्कूल काम्प्लेक्स’ के लिए नियुक्त कर सकते हैं। एक स्कूल कांपलेक्स में कितने स्कूल होंगे यह निर्धारित नहीं की गई है। 

स्कूल कांपलेक्स में एक स्कूल से दूसरे स्कूल में भटकते हुए शिक्षक के तस्वीर को क्या आप ट्यूशन पढ़ाने वाले उन शिक्षकों से अलग कर सकते है जो अपना गुजारा चलाने के लिए एक घर से दूसरे घर भटकते हुए बच्चों को पढ़ाते है?

निराश होने की जरूरत नहीं है NEP ने शिक्षकों के लिए कुछ सुंदर शब्द भी लिखें हैं साथ में इसे भी पढ़ लीजिए।

“The high respect for teachers and the high status of the teaching profession must be restored so as to inspire the best to enter the teaching profession. The motivation and empowerment of teachers is required to ensure the best possible future for our children and our nation.”

‘less strenuous’ नॉन टीचिंग वर्क

शिक्षकों के द्वारा non-teaching काम के संबंध में पॉलिसी से जुड़े हुए करीब करीब सभी दस्तावेजों में चिंता जताई गई है। 21वीं सदी के पॉलिसी दस्तावेज में उन्हीं चिंताओं को दोहराई गई है।

आप ऐसे किसी भी काम के बारे में सोचिये, जो आप नहीं कर सकते हैं। शिक्षकों से ऐसे सभी काम करवाए जाते हैं। सिर्फ कोविड के दौरान ही नही कोविड जब नहीं थी तब भी।

यहां तक कि पार्टियों में पूरी बांटना, स्वछता आंदोलन के तहत यह सुनिश्चित करना कि खुले में कोई सौच तो नहीं कर रहा है। जनगणना और चुनाव कार्यों को तो देशभक्ति का कार्य ही मान लिया गया है।

पहले शिक्षकों के non-teaching काम के सम्बंध में RTE के प्रावधानों को देखते हैं. यह कानून 2010 में लागू हो गया था।

(25 (2) For the purpose of maintaining the Pupil-Teacher Ratio under sub-section 1. No teacher posted in school shall be made to serve in any other school or office or deployed for any non educational purpose other than those specified in section 27

27) No teacher shall be deployed for any non educational purposes other than the decential population census, disaster relief duties or duties related to elections to the local authority or the state legislature or Parliament as the case may be.

मैं कुछ न्यूज़ पेपर के हेडलाइंस को लिख रहा हूँ जो शिक्षको के non-teaching कार्य से जुड़ा है। 

“Teachers asked to check open defecation in this Rajasthan town”

“MP teachers made to serve food at mass wedding, endure ‘poori-sabzi wala’ calls”

ये RTE कानून लागू होने के बाद की खबरें हैं। 

अब देखते हैं कि NEP ने इसे कैसे दुरुस्त किया है।

“5.12. To prevent the large amounts of time spent currently by teachers on non-teaching activities, teachers will not be engaged any longer in work that is not directly related to teaching; in particular, teachers will not be involved in strenuous administrative tasks and more than a rationalized minimum time for mid-day meal related work, so that they may fully concentrate on their teaching-learning duties.”

क्या आप कोई फर्क ढूंढ पाए?

शिक्षकों के पेशेवर पहचान को ये सभी काम न सिर्फ नकारात्मक रूप में प्रभावित करते है बल्कि अपमानजनक भी है। पॉलिसी दस्तावेज में इसको लेकर चिंता व्यक्त की गई है और सुझाव दिया गया है कि शिक्षकों से ऐसे काम लिए तो जा सकते हैं लेकिन वह ‘less strenuous’ हो। पॉलिसी दस्तावेजों को पढ़ते हुए शब्दों का खेल बहुत निराला होता है। शब्दों पर गौर करना बहुत महत्वपूर्ण होता है। less strenuous वह हर व्यक्ति तय करेगा जो शिक्षकों के ऊपर काम थोंपने कि स्थिति में होगा।

हाल ही में लेबर लॉ में हुए बदलावों के संबंध में मुझे एक हैडलाइन याद आता है एक न्यूज़ पेपर में हैडलाइन था-

“अब लोग सप्ताह में 80 घंटे से अधिक काम कर सकेंगे”

इसे पढ़कर ऐसा नहीं लगता है कि न जाने कब से लोग इसकी मांग कर रहे थे और उनकी मांगों को मान लिया गया है।

‘less strenuous’ भी शायद ऐसा ही है। कोई प्रशासनिक अधिकारी काम देते वक्त सिर्फ यह कह सकता है कि आज हमने आपको 100 घरों का सर्वे करने के लिए कहा था ऐसा करिए आप 90 घरों में ही कर लीजिए थोड़ा लेस स्ट्रेनियस होगा। सामान्यतः किसी स्कूल में 1 दिन में 8 पीरियड की पढ़ाई होती है। सप्ताह में कुल मिलाकर 48 पीरियड मैक्सिमम कोई शिक्षक पढ़ा सकता है। 47 लेस स्ट्रेनियस होगा।

RTE और फिर NEP को एक साथ देखने के पीछे मकसद यही था कि इस संबंध में कोई बदलाव नहीं हुआ है। यथास्थिति बरकरार है।

क्या आप इस प्रावधान को शिक्षकों के पेशेवर पहचान पर एक सवाल नहीं मानते हैं?

क्या इन प्रावधानों के साथ हम शिक्षा में बेस्ट माइंड को आकर्षित कर पाएंगे?

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क्या स्कूली शिक्षा का निजीकरण भी शिक्षकों को गैर पेशेवर बनाने की प्रक्रिया को बढ़ावा देती है

पॉलिसी दस्तावेज में शिक्षा के निजीकरण की पुख्ता वकालत की गई है। इसके पक्ष और विपक्ष में कई लेख लिखे गए हैं । मैं उस बारे में बातचीत नहीं करूंगा। मैं सिर्फ यह देखने कि यहां कोशिश कर रहा हूं कि किस प्रकार शिक्षा का निजीकरण डीप्रोफेशनलाइजेशन को बढ़ावा देता है।

बड़े शहरों के कुछ चुनिंदा स्कूलों को अगर आप छोड़ दें तो बिना पर्याप्त प्रशिक्षण प्राप्त शिक्षक बड़ी संख्या में निजी स्कूलों में पढ़ाते हैं। खासकर कम बजट पर चलने वाले निजी स्कूल, शिक्षकों के योग्यता के लिए निर्धारित जरूरी मापदंडों की धज्जियां उड़ा देते हैं।

यह प्रक्रिया आसपास के समाज में यह स्थापित करता है कि कोई भी पढ़ा लिखा व्यक्ति भले ही उसने पर्याप्त प्रशिक्षण प्राप्त की हो या नहीं स्कूल में नौकरी कर सकता है।

पर्याप्त प्रशिक्षण कौशल नहीं होने की वजह से स्कूल प्रशासन उन शिक्षकों का शोषण करने में सफल रहता है। ऐसे शिक्षकों को बहुत कम तनख्वाह दी जाती है । विरोध का कोई सवाल नहीं रह जाता है। बात-बात पर यह धमकी दी जाती है की बीएड या अन्य जरूरी शैक्षणिक योग्यता नहीं होने की वजह से उनको निकाल दिया जाएगा। यह बहुत क्लासिक उदाहरण है यह समझने के लिए कि कैसे डिप्रोफेशनलाइज स्टेट में जब कोई व्यक्ति काम करता है तो उसका नेगोशिएशन पावर बिल्कुल खत्म हो जाता है।

स्कूली शिक्षा में निजीकरण अपरिहार्य रूप से इस वातावरण को बढ़ावा देता है। और अब एक नए माहौल में जहां पॉलिसी कहती है कि इनपुट लेस रेगुलेटेड होगा। यानी आप कहां से शिक्षक को लाते हैं, कितना उनको पे करते हैं उनकी शैक्षणिक योग्यता क्या है इस पर रेगुलेशन कम रहेगा।

क्या आप भी कुछ ऐसे शिक्षकों को जानते हैं जो शिक्षक बनने के लिए निर्धारित योग्यता के बिना स्कूलों में पढ़ा रहे हैं?

क्या आपको नहीं लगता है कि इससे शिक्षकों के पेशेवर पहचान पर सवाल उठता है और यह धारणा और मजबूत होती है कि शिक्षक तो कोई भी बन जाता है ?

साथ में दस्तावेज के इस प्रावधान को पढ़ लीजिए। अभी तक निजी स्कूल एक स्वतंत्र इकाई के रूप में कार्य करते थे। फिलैंथरोपिक शब्द का इस्तेमाल कर अब इसे सरकारी स्कूल व्यवस्था में भी घुसाने का पर्याप्त बंदोबस्त कर दिया गया है।

सुंदर शब्द कहे गए हैं-public-philanthropic partnerships.

“3.6. To make it easier for both governments as well as non-governmental philanthropic organizations to build schools, to encourage local variations on account of culture, geography, and demographics, and to allow alternative models of education, the requirements for schools will be made less restrictive. The focus will be to have less emphasis on input and greater emphasis on output potential concerning desired learning outcomes. Regulations on inputs will be limited to certain areas as enumerated in Chapter 8. Other models for schools will also be piloted, such as public-philanthropic partnerships.”

Missing reference to research 

दस्तावेज़ को पढ़ते हुए मेरी आंखें इस बात को ढूंढ रही थी कि स्कूली शिक्षा में शामिल शिक्षकों को रिसर्च का मौका मिलेगा या नहीं । कई संस्थाएं जैसे SCERT और NCERT इस को बढ़ावा देने की कोशिश करती आई है। लेकिन #NEP में इसका जिक्र नहीं होना बेहद दुखद है।

एक उदाहरण के जरिए इसे समझने की कोशिश करते हैं।

जब तक महिलाओं नें खुद अपने बारे में लिखना नहीं शुरू किया था पुरुषों के द्वारा रचे हुए साहित्य में महिलाओं को लेकर कल्पना होती थी कि -उन्हें घर में रहना पसंद है, सजना- सँवरना पसंद है, बच्चों को पालना पसंद है, इत्यादि। 

जब महिलाओं ने खुद लिखना शुरू किया तो अपने बारे में रचित इन सभी धारणाओं को उन्होंने तोड़ दिया। उनके लेखों से पहली बार यह स्थापित हुआ कि पुरुषों की तरह उन्हें भी आजादी पसंद है,पढ़ना- लिखना पसंद है, खेलना-कूदना पसंद है, इत्यादि।

स्कूली शिक्षा के बारे में हमारे पास बेहतर ज्ञान(Authentic Knowledge) तब तक उपलब्ध नहीं होगा जब तक स्कूली शिक्षा में सीधे रूप से शामिल लोगों को हम रिसर्च के लिए उत्साहित नहीं करेंगे। शिक्षकों के द्वारा किया हुआ रिसर्च पार्टिसिपेंट रिसर्च होता है जिसमें रिसर्च का मकसद उस व्यवस्था में बदलाव लाना रहता है जिसका वह खुद भी एक हिस्सा है।

जब शिक्षकों के हाथ ऊपर से थोपी व्यवस्था आती है। उनकी प्रतिक्रिया होती है – ऐसा कैसे कोई सोच सकता है, ऐसे किताब कैसे बनाए जा सकते हैं, ऐसा कैसे किया जा सकता हैं। और रिसर्चर को लगता है- टीचर इतना भी नहीं कर सकते, यह भी नहीं समझ सकते है।

मैं जो देख पा रहा हूं कि रिसर्चर, शिक्षक नहीं है और शिक्षक रिसर्चर नहीं है। जब तक इस खाई को पाटने की व्यवस्था हम नहीं करेंगे यह खाई बनी रहेगी। शिक्षक इसके भुक्तभोगी तो होते ही हैं लेकिन असली नुकसान हमारे स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों को उठाना पड़ता है।

स्कूली दुनिया से जुड़ा हुआ अधिकतर रिसर्च ऐसा होता है जहाँ रिसर्चर स्टेकहोल्डर नहीं होते हैं। 

यहां दो-तीन सवाल महत्वपूर्ण है।

1) क्या स्कूल शिक्षकों को हम इस काबिल नहीं मानते हैं?

2) क्या पढ़ाना और रिसर्च करना दोनों एक साथ नहीं हो सकता है?

स्कूली शिक्षा में शिक्षकों के द्वारा रिसर्च को लेकर जिक्र नहीं होने के कारण क्या आपको नहीं लगता कि ज्ञान के क्षेत्र में उस बंटवारे को हम 21वीं सदी में भी जायज ठहरा रहे हैं जहां यह माना जाता है कि स्कूल में शिक्षक काम करेंगे लेकिन उनके बारे में रिसर्च यूनिवर्सिटी में होगा। छात्र और शिक्षक महज डाटा बनकर रह जाते हैं। ठीक वैसे ही जैसे माना जाता है कि एम्पेरिकल रिसर्च पूर्व के देशों में होता है और थ्योरी तो हमेशा पश्चिम के विद्वान ही रचा करते हैं।

क्या आप इसे डीप्रोफेशनलाइजेशन की एक प्रक्रिया के रूप में नहीं देखते हैं?

क्या टेक्नोलॉजी भी डिप्रोफेशनलाइज कर सकती है ?

यह बहुत पेचीदा सवाल है। अभी तक का हमारा अनुभव टेक्नोलॉजी हमारे प्रोफेशनलाइजेशन में मदद करती है, इस तरह का रहा है।

यहां कुछ बातों को समझना महत्वपूर्ण है। टेक्नॉलॉजी जब तक शिक्षकों के हाथ में एक टूल के रूप में है तब तक वह शिक्षकों को प्रोफेशनलाइज करती है लेकिन जैसे ही शिक्षक टेक्नोलॉजी के हाथ में पड़ जाएंगे तो डिप्रोफेशनलाइज ही नहीं वह कॉलोनाइज कर सकती है।

यह संघर्ष जारी है । एक तरफ जहां ज्यादा से ज्यादा शिक्षकों के हाथ में टेक्नोलॉजी को पहुंचाने की जद्दोजहद हो रही है वहीं दूसरी तरफ टेक्नॉलॉजी भी ज्यादा से ज्यादा शिक्षकों को अपने हाथ में लेने की तैयारी कर रही है।

पहले काम में (यानी शिक्षकों के हाथ में टेक्नोलॉजी हो) बड़े पैमाने पर संसाधन की आवश्यकता होती है।प्रशिक्षण देना होता है, और इन सब में वक्त लगता है। लेकिन दूसरा काम( टेक्नोलॉजी के हाथ में शिक्षक) बहुत तेजी से होता है, आसान होता है और किसी तरह के प्रशिक्षण की जरूरत नहीं होती है। संसाधन बचाता है।

जैसे ही बड़े पैमाने पर शिक्षकों को डीप्रोफेशनलाइज कर दिया जाएगा जिसका मतलब होगा कि आप ऐसा काम कर रहे हैं जहां सोचने की बहुत जरूरत नहीं है(थिंकिंग इन्वॉल्व नहीं है ) ऐसे हर काम को करने के लिए टेक्नोलॉजी तैयार बैठी है। और अब तो आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का दौर है, सोचने का काम भी टेक्नोलॉजी करती है।

NEP टेक्नोलॉजी को शिक्षकों तक पहुंचाने की बात कर रही है लेकिन साथ ही शिक्षकों को टेक्नोलॉजी के हाथ में सौपने की भी व्यवस्था की गई है। पूर्व प्राथमिक शिक्षा से जुड़ा संपूर्ण प्रशिक्षण कार्यक्रम टेक्नोलॉजी के हाथ में होगा। सेवाकालीन प्रशिक्षण(In-service) के दौरान हर अध्यापक के लिए यह अनिवार्य होगा कि वह वर्ष में 50 घण्टे का टेक्नोलॉजी द्वारा संचालित कार्यक्रम में हिस्सा ले।

अभी तक यह स्थापित रहा है कि सीखना-सिखाना मानवीय संवाद (ह्यूमन इंटरेक्शन) का नतीजा है। हमारे इस एपिस्टमिक समझ में जैसे ही बदलाव लाया जाएगा कि सीखना- सिखाना ह्यूमन और मशीन के इंटरेक्शन से भी संभव है। उसी वक्त शिक्षकों की जरूरत हमेशा हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी।

इस संबंध में अभी कोई निर्णायक समझ नहीं बनी है। लेकिन इसके बारे में सजग रहना,जानते रहना हम सबके लिए जरूरी है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि टेक्नॉलॉजी हमेशा हमारे लिए सहायक(aid) की भूमिका में हो ना कि हम टेक्नोलॉजी के लिए सहायक की भूमिका में आ जाएं।

क्या जेंडर आधारित भूमिका डिप्रोफेशनलाइजेशन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाती है?

“5.2. To ensure that outstanding students enter the teaching profession – especially from rural areas – a large number of merit-based scholarships shall be instituted across the country for studying quality 4-year integrated B.Ed. programmes. In rural areas, special merit-based scholarships will be established that also include preferential employment in their local areas upon successful completion of their B.Ed. programmes. Such scholarships will provide local job opportunities to local students, especially female students..”

थोड़े से प्रयास से भी कोई यह समझ सकता है कि इस वक्त भारत में स्कूली शिक्षा के प्रोफेशन में मुख्य तौर पर दो वर्गों से लोग आते हैं- ग्रामीण युवा और शहरी क्षेत्र से पढ़ी लिखी लड़कियाँ। किसी भी प्रोफेशन को मजबूत बनाने का यह एक तरीका होता है कि उसमें अलग-2 पृष्ठभूमि के लोग आएं। यह दस्तावेज एक बार फिर से उसी बात की वकालत करती है कि और ज्यादा ग्रामीण युवा और शहरी पढ़ी-लिखी महिलाएं इस प्रोफेशन में आएं। 

‘especially female students’ का जिक्र हमारे उस पारंपरिक समझ को और मजबूत बनाता है कि लड़कियां शिक्षक की भूमिका में बेहतर फिट बैठती है।

यह धारणा लड़कियों के लिए अन्य पेशे में जाने के रास्ते में रुकावट बनती है। अधिकतर लड़कियों का यह अनुभव रहता है, उनके घर में कभी न कभी या तो उनके मां-बाप या रिश्तेदार कहते हैं – B.Ed का कोर्स कर लो, टीचिंग का जॉब पकड़ लो अच्छा रहेगा तुम्हारे लिए। 21वीं सदी का भारत अपने महिलाओं की क्षमताओं पर रोक लगाता रहेगा।

यह अपेक्षा समाज में महिलाओं से दोहरी अपेक्षा से भी जुड़ी हुई है जो उनके जीवन को बुरी तरह प्रभावित कर रही है। यह दोहरी अपेक्षा है – घर भी संभालो और नौकरी भी करो।

पॉलिसी के एक अन्य प्रावधान को भी देखते हैं

“6.7. It must be noted that women cut across all underrepresented groups, making up about half of all SEDGs. Unfortunately, the exclusion and inequity that SEDGs face is only amplified for the women in these SEDGs. The policy additionally recognizes the special and critical role that women play in society and in shaping social mores; therefore, providing a quality education to girls is the best way to increase the education levels for these SEDGs, not just in the present but also in future generations. The policy thus recommends that the policies and schemes designed to include students from SEDGs should be especially targeted towards girls in these SEDGs.”

सामान्य तौर पर बहुत ही सुंदर शब्द लिखे गए हैं। लेकिन मुझे लगता है कि यही सुंदर शब्द ‘special and critical role that women play in society and in shaping social mores’ पुरुषों को समाज और परिवार में निभाई जाने वाली कई अन्य भूमिकाओं से मुक्त कर देता है।

मैं इस प्रयास को भी शिक्षकों के डिप्रोफेशनलाइजेशन की प्रक्रिया से ही जोड़ कर देखता हूं। एक तरफ यह समाज में लिंग आधारित भूमिका की अवधारणा को और मजबूत करता है दूसरी तरफ शिक्षक के पेशे को जेंडर के साथ जोड़कर उस पेशे की ताकत को कमजोर करता है। शायद वैसे ही जैसे हम गणित को पुरुषों के साथ जोड़ देते हैं और संगीत को महिलाओं के साथ। कई सारे निजी स्कूल शिक्षक भर्ती के इश्तेहारों में बेखौफ होकर लिखते हैं – महिला शिक्षक ही चाहिए। 

वैज्ञानिक दृष्टिकोण और जेंडर के बारे में हमारी आधुनिक समझ के नजरिए से अगर आप इन प्रावधानों को पढेंगें तो फिर आप इसके पीछे की सोच और राजनीति को समझ सकेंगे।

आपका क्या ख्याल है?

शिक्षकों के वेतन संबंधी प्रावधान क्या इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाती है?

स्कूली शिक्षा में शिक्षकों की तनख्वाह का विषय स्कूल चलाने वालों के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। एक आकलन के अनुसार करीब 85% स्कूल का खर्चा शिक्षकों के तनख्वाह पर होता है। और ना जाने कब से इस बात की कोशिश की जा रही है कि कैसे हम स्कूल तो चलाएं लेकिन शिक्षकों की तनख्वाह पर होने वाले खर्च को कम कर सकें। डिप्रोफेशनलाइजेशन इसका सबसे बड़ा जरिया है। इस प्रक्रिया के तहत जब किसी पेशे को डाल दिया जाता है तो उस पेशे में शामिल व्यक्ति का अपनी तनखाह को लेकर नेगोशिएशन करने की क्षमता खत्म हो जाती है।

कई सारी संस्थाओं ने यहां तक कि विश्व बैंक ने सरकार को और गैर सरकारी संस्थाओं को भी सुझाव दिए कि किस प्रकार शिक्षकों के तनख्वाह को कम किया जा सकता है। इसमें महत्वपूर्ण था शिक्षकों को ठेके पर रखना जो करीब-2 पूरे देश में प्रचलित हैं। और भी उपाय निकाले गए जैसे मल्टीग्रेड मल्टीपल लर्निंग(MGML) की अवधारणा। बताया गया कि अलग-अलग उम्र के बच्चे एक ही साथ बैठकर बेहतर सीख सकते हैं और इसलिए एक ही टीचर पहली से पांचवी क्लास तक के बच्चों को पढ़ा सकता है। इसके बाद पूरे देश में लाखों ऐसे स्कूल स्थापित किए गए जहां पर एक ही शिक्षक होते हैं जिन्हें एकल विद्यालय कहा जाता है जो पहली से पांचवी तक की कक्षाओं के बच्चों को पढ़ाते हैं।

शिक्षकों की तनख्वाह को कम करने के क्षेत्र में लगातार अभिनव प्रयोग होते रहते हैं। इसका जिक्र मैंने किया है कि कैसे अर्बन क्लैप मोमेंट के जरिए एक तरीके से शिक्षकों के तनखाह संबंधी समस्या पर पुख्ता रूप से निजात मिल सकेगा।

लेकिन पॉलिसी कहती है कि फिक्स इंक्रीमेंट के सिस्टम को हम बंद करेंगे और परफॉर्मेंस अप्रेजल होगा जिसमें पीयर रिव्यू एक महत्वपूर्ण कड़ी होगा। यह आदर्श स्थिति है लेकिन पक्षियों के पंख को काट देने के बाद उनको उड़ने के लिए कहने जैसा ही है। पीयर रिव्यू एक हाय प्रोफेशनल एनवायरनमेंट में असेसमेंट का तरीका है।

क्या डीप्रोफेशनलआइज़ अवस्था में शिक्षकों के पास अपनी तनख्वाह के लिए नेगोशिएट कर पाने की हैसियत बचती है? 

क्या नियमित और पर्याप्त आय किसी भी पेशे की सबसे बड़ी विशेषता नहीं होती है? 

क्या आप इसे डिप्रोफेशनलाइजेशन की प्रक्रिया से जोड़कर नहीं देखते हैं?

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आखिर क्या उपाय किए जा सकते थे?

 

 

पॉलिसी में उपायों के बारे में बात की गई है। सही पहचान की गई है। इसे दो स्तरों पर देखना होगा। पहला, बेहतरीन व्यक्ति जिसे पॉलिसी में ‘बेस्ट माइंड’ कहा गया है शिक्षक बनने के लिए आएं। दूसरा, जो व्यक्ति अभी शिक्षक हैं उनके लिए उम्दा प्रशिक्षण कार्यक्रमों की व्यवस्था हो।

 

बेस्ट माइंड शिक्षक के पेशे को चुने ऐसी कल्पना पॉलिसी में की गई लेकिन वे क्यों चुने इस बात पर कोई खास तवज्जो नहीं दी गई है। हां यह कहा गया है कि हम स्कॉलरशिप देंगे।? 

पहले हमें यह सोचना होगा कि बेस्ट माइंड कहां जा रहा है? हमारे ज्यादातर युवा आईआईटी की तैयारी करते हैं मेडिकल की तैयारी करते हैं। 

क्या वे स्कॉलरशिप पाने के लिए वहां जाते हैं?

निश्चित ही नहीं। तो फिर क्या स्कॉलरशिप का प्रावधान कर हम बेस्ट माइंड को शिक्षा में आकर्षित कर सकते हैं?

ऐसा नहीं है कि शिक्षक के पेशे में कोई कमी है। मैं ऐसे कई व्यक्तियों को जानता हूं जो आईआईटी और मेडिकल से पास होने के बाद बड़े शहरों के तंग गलियों में बने अंधेरे कमरों में बच्चों को पढ़ाते हैं। हाँ उन कमरों में ए.सी लगी होती है। वे शिक्षक हैं।

साफ-सुथरी हवा-पानी, नियमित रोजगार और कंपरेबल क्वालिटी का तनखा( तंग गलियों में बने अंधेरे कमरों में पढ़ाने के लिए अगर उन्हें डेढ़ लाख रुपए मिलता है तो हम अगर उन्हें एक- सवा लाख भी देंगे तो वे जरूर हमारे साथ जुड़ेंगे) अगर हम अपने सभी शिक्षकों को देना सुनिश्चित करते हैं तो बड़ी संख्या में बेस्ट माइंड को हम आकर्षित कर पाएंगे। आप यकीन मानिए अगर आपने 4 साल आईआईटी के कोर्स के बाद 1 साल का B.Ed कार्यक्रम वहां शुरू किया तो शायद 50% से अधिक युवा आईआईटी करने के बाद 1 साल का बी एड कोर्स भी करेंगे और स्कूल में नौकरी करेंगे।

बेस्ट माइंड स्कॉलरशिप से नहीं आएगा। शिक्षक के पेशे को डिजायरेबल बनाना होगा। कौन रोक रहा है हमें इस पेशे को मिलिट्री सर्विस, सिविल सर्विस, जुडिशल सर्विस का दर्जा देने से?शिक्षा नीति के ड्राफ्ट में एजुकेशनल सर्विसेज की बात कही गई थी लेकिन उसके अंतिम प्रारूप में इसके लिए कोई जगह नहीं है।

दूसरा, जिस पर नीतिगत दस्तावेज में बहुत ज्यादा जोर नहीं दिया गया है कि जो शिक्षक अभी हमारे व्यवस्था में काम कर रहे हैं उनको पेशेवर बनाने के लिए हम क्या कर सकते हैं?

हमारे देश में ऐसे कई प्रयोग हुए हैं जहां से सीखा जा सकता है।

जिसमें पहला तो यह हो सकता है कि हम बड़े पैमाने पर यूनिवर्सिटी और स्कूल को एक साथ लाने का प्रयत्न करें।

राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर की कार्यशाला का आयोजन।

बड़े पैमाने पर देश के अलग-अलग राज्यों के बीच तथा दूसरे देशों के साथ ‘टीचर एक्सचेंज’ प्रोग्राम की शुरुआत हो।

शिक्षकों के द्वारा उच्च शिक्षा प्राप्त करने के उनके प्रयासों को ‘पे मेट्रिक्स’ के साथ जोड़ना।

ऐसे अनगिनत मंच की व्यवस्था करना जहां शिक्षक अपने काम को लोगों के सामने रख सके और उसके बारे में बातचीत कर सकें।

अगर इरादा मजबूत हो तो बहुत मुश्किल नहीं है एक बेहतरीन शिक्षा व्यवस्था की नींव रखना। केरल और दिल्ली जैसे राज्यों ने ऐसा कर दिखाया है। 

कई बार यह सवाल पूछा जाता है कि हम संसाधन कहां से लाएंगे? मेरे ख्याल से संसाधन से अधिक महत्व प्राथमिकता की है। क्या शिक्षा हमारी प्राथमिकता है? जिस दिन यह हमारी प्राथमिकता बन जाएगी संसाधन की व्यवस्था हो जाएगी।