यह तस्वीर मुझे बहुत ही फ़ेसिनेट कर रहा है, यह एक क्लास रूम का दृश्य है जहाँ बच्चे नज़र नहीं आ रहे हैं। इस दृश्य में यह बिल्कुल साफ़ है कि सीखने और सिखाने की प्रक्रिया से संबंधित कुछ हो रहा है। तस्वीर में मैं नहीं हूँ लेकिन इस प्रक्रिया का मैं हिस्सा बना था। इस तस्वीर में सीखने और सिखाने की प्रक्रिया में भाग लेने वाले सभी दिल्ली सरकार के स्कूल में पढ़ाने वाले शिक्षक हैं। यह सभी शिक्षक आजकल ‘मेंटर टीचर’ की भूमिका में हैं।
सवाल यह है कि इसमें फ़ेसिनेट करने जैसी कौन सी बात है ?
यूँ तो तस्वीर देखकर आश्चर्यचकित नहीं हुआ जा सकता है। लेकिन हमारे देश में सीखने और सिखाने की जो परंपरा रही है अगर हम उसको समझें तो तस्वीर आश्चर्य पैदा करने का काम करती है।
ज्ञान के संबंध में हमारे देश में एक परंपरा रही है कि हम इसको अथॉरिटी से जोड़कर देखते आए हैं। कोई व्यक्ति अगर पद में आप से ऊपर है तो इसका मतलब ज्ञान पर उसका एकाधिकार है। हो सकता है कहीं ना कहीं इस परंपरा की शुरुआत अंग्रेज़ी शासन काल में हुआ हो। गोरे व्यक्तियों को हमेशा भारतीयों की तुलना में ऊँचे पदों पर रखा जाता था। और पद को ही ज्ञान से जोड़कर देखा जाने लगा था। भारतीयों के संचित ज्ञान, संस्कृति और परंपरा को एक तरह से रिजेक्ट कर दिया गया था। यह बड़ी गहराई से आज भी हमारे समाज में सीखने और सिखाने की परंपरा के रूप में अपनी जड़ जमाए हुए है।
आपको यकीन नहीं होता है तो शिक्षक प्रशिक्षण से जुड़ी हुई संस्थाओं में जा कर देखिए, खास करके एससीईआरटी में बकायदा नियम बने हुए है। प्राइमरी शिक्षक को अगर प्रशिक्षित करने की ज़रूरत है तो उसके लिए टीजीटी चाहिए,अगर TGT को प्रशिक्षित करना है तो पीजीटी चाहिए और अगर PGT को प्रशिक्षित करना है तो कम से कम वाइस प्रिंसिपल या उनसे बड़े रैंक में काम करने वाले लोग चाहिए। शिक्षक साथियों के बीच बातचीत के दौरान अगर आप यह सुन लें कि फलाना तो शिक्षक ही है , यह क्या सिखाएगा, तो यह कोई बड़ी आश्चर्य की बात नहीं है। ऊँचे पद पर बैठे लोग ज्ञान पर अपना एकाधिकार जमाए हुए बैठे हैं और इस तरह पदों के साथ -साथ वे ज्ञान की भी हायरार्की पैदा करते हैं ।
इस संदर्भ में अगर आप देखें कि शिक्षक, शिक्षक को सिखा रहे हैं तो यह तस्वीर वाकई आश्चर्य पैदा करती है।
और सिर्फ़ बात सिखाने की नहीं है, सीखने की तत्परता और अपने साथियों से ही सीखने की प्रक्रिया को लेकर के स्वीकारोक्ति, यह भी बड़ी बातें हैं। वयस्क शिक्षा में काम करने वाले लोग जानते हैं कि वयस्कों को सिखाना कोई बच्चों का काम नहीं है। दशकों तक बच्चों को सिखाने की प्रक्रिया में शामिल रहने वाले शिक्षक आज वयस्क शिक्षा के क्षेत्र में बहुत ही सहजता और आत्मविश्वास के साथ लगे हुए हैं। मैं समझता हूँ कि मेंटर टीचर प्रोग्राम की यह एक बड़ी कामयाबी है। साथ ही इस बात की भी तैयारी है कि मौका मिलते ही वह फिर से बच्चों को पढ़ाने के काम में जुट जाएँगे।
अक्सर हम यह मानते हैं कि वयस्क हो जाने के बाद सीखने और सिखाने से संबंधित कामों को लेकर हमारे अंदर लचीलेपन की कमी आ जाती है। लेकिन यहाँ प्रत्येक मेंटर टीचर कभी अपने ही साथियों से बैठकर सीख रहे हैं, और कभी उन्हीं को सिखा रहे हैं और मौका पड़ने पर बच्चों के बीच जाकर उन्हें सिखाते हैं, और साथ ही तैयारी इस बात की भी है कि वह बच्चों से भी सीखेंगे। मेंटर टीचर की उम्र 25-26 से लेकर 55 -57 के बीच की है। उम्र, पद और जेंडर से संबंधित हायरार्की को सीखने और सिखाने की प्रक्रिया में उन्होंने बाधा नहीं बनने दिया है।
एक यह भी मान्यता रही है और इसमें बहुत हद तक सच्चाई भी है कि शिक्षक पढ़ना- लिखना बंद कर देते हैं। एक आध शिक्षक अपने व्यक्तिगत प्रयास से सीखने की प्रक्रिया में लगे हुए रहते हैं। मेंटर टीचर प्रोग्राम ने शिक्षकों के सीखने की प्रक्रिया को एक संस्थागत रूप दिया है। हमारे जो शिक्षक साथी पिछले 2 सालों से इस प्रक्रिया का हिस्सा रहे हैं, उनमें आज सीखने को लेकर एक नया उत्साह है।
सीखने की तत्परता, एक-दूसरे से सीखना और सिखाना, शिक्षा के द्वारा समाज में परिवर्तन लाने को लेकर एक गहरा विश्वास, इन सभी बातों को मैं कोई साधारण बात नहीं मानता हूँ। खास करके उस पृष्ठभूमि को देखते हुए जिसका हमारी शिक्षा व्यवस्था हिस्सा रही है। इन परिवर्तनों को अगर आप शिक्षा क्रांति नही कहेंगे तो और क्या कहेंगे?
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