
विचारों की कक्षा: शिक्षक, समाज और एक विमर्श
मैं शिक्षकों के एक प्रगतिशील समूह का हिस्सा हूं। समय-समय पर इस समूह के सदस्य महत्वपूर्ण मुद्दों पर अपने विचार साझा करते हैं और कई बार गंभीर विषयों पर सार्थक तर्क-वितर्क भी होता है। बौद्धिक उत्तेजना (intellectual stimulation) के लिए यह एक बहुत ही समृद्ध मंच है।
इसी क्रम में कल, एक महत्वपूर्ण मुद्दे पर बातचीत की शुरुआत करते हुए सुधीर जी ने लिखा—
"इस बार जून 2025 के यूजीसी नेट एजुकेशन के पेपर-2 में एक पैराग्राफ आया था, इसका सारांश में आप सभी के समक्ष रखना चाहूंगा—पूंजीवाद में पूंजीपतियों के पास सारा धन संचित होता जाता है। वे बहुत कम संख्या में होते हैं, जबकि बहुत बड़ी संख्या में लोग उनकी शर्तों पर काम करने को मजबूर होते हैं। पूंजीपति अपने लाभ के लिए उनका शोषण करते हैं और हमेशा शर्तें अपने अनुसार तय करते हैं। भौतिक संपदा का संकेंद्रण पूंजीपतियों के हाथों में होता है। गरीब, जिनके पास मेहनत करने के बावजूद भी संसाधनों की कमी रहती है, जब अपनी आवश्यकताएं पूरी नहीं कर पाते, तो वे धर्मावलंबियों के पास जाते हैं और अपनी समस्याओं का समाधान मांगते हैं।"
इस पर प्रतिक्रिया देते हुए हमारे वरिष्ठ साथी श्री जन्मेजय जी ने लिखा:
"इसका अर्थ है कि जो पूर्व जन्म में विश्वास नहीं करता या नास्तिक है उसे पूंजीवादी व्यवस्था से कोई खतरा नहीं होगा। जो धर्म को मानेगा, वो भी विशेष धर्म को वो दुखी व शोषित रहेगा। पूंजीवाद के लाभ भी सभी को चाहिए और पूंजीवाद व पूंजीपतियों को गाली भी सभी को देनी है। गजब वितण्डना है। आज के संदर्भ में कौन सा पूंजीपति धर्म का सहारा लेकर संसाधनों पर कब्जा कर रहा है, कोई एक उदाहरण हो तो बताओ। गरीब बेचारा वाला भ्रम भी जानबूझ कर बनाये रखा जाता है ताकि एक विशेष वर्ग जिसे तथाकथित बुद्धिजीवी भी कहते हैं अपनी जुगाली करते रहें। ये ना तो किसी गरीब की तरह कहीं पसीना बहाते ना ही किसी उद्योग या धंधे में अपना श्रम या पूँजी लगाते है बल्कि समाज को बदलने की हुंकार भरते हुए ललकारते रहते हैं। NET के स्तर पर इस प्रकार के लेख के आधार पर प्रश्न पूछना NET के स्तर को ही कम कर रहा है।
उन्होंने आगे लिखा…
“NET के स्तर से अधिक इस लेख से विरोध है। इसी लेख में लिखा है कि व्यवस्था अन्याय थोपती है और धर्म उसे उचित ठहराता है। जिसने यह लिखा उसे कदाचित इतना भी ज्ञान नहीं है कि व्यवस्था अन्याय को रोकने और न्याय करने के लिए ही बनाई जाती है। यदि व्यवस्था है तो अन्याय हो ही नहीं सकता। धर्म किसी भी कार्य को उचित या अनुचित नहीं ठहराता।यदि वास्तव में धर्म के साथ कार्य है तो वो अनुचित कैसे होगा। बशर्ते हमनें धर्म माना किसे है यह स्पष्ट हो। अव्यवस्था का ना होना ही व्यवस्था है और अधर्म ना होना ही धर्म है।”
इसी बातचीत के सिलसिले में प्रदीप जी ने दो छोटी टिप्पणी की
“Most people want for themselves or for their children American or European citizenship while America and Europe are capitalist societies , Why ?”
“Any consumer goods available in the same quality and price most of us choose to prefer a branded one ( capital based company) over a (social enterprise or cooperative स्थानीय सामाजिक समूह) अधिकतर लोग पूंजीपतियों के ब्रांडेड समान प्रयोग करना चाहते हैं लेकिन दूसरों के लिए उपदेश देते हैं पूंजीपतियों का विरोध करो खुद स्थानीय सामाजिक समूह द्वारा उत्पादित वस्तुएं खरीदना नहीं चाहते।”
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स्पष्ट है कि इस चर्चा को पढ़ते हुए हम में से कई साथियों के मन में अनेक विचार उत्पन्न हुए होंगे। शिक्षकों के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि उनका दृष्टिकोण व्यापक हो—वे उन प्रश्नों पर विचार करें जैसे: समाज कैसा हो? लोग कैसे हों? आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था कैसी हो?
क्योंकि शिक्षा-प्रणाली व्यापक सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था में ही अंतर्निहित होती है। ऐसे शिक्षक, जो इस व्यापक व्यवस्था को समझते हैं, वे यह भी समझते हैं कि कक्षा में पढ़ाया जा रहा हर पाठ एक बड़े सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संदर्भ से जुड़ा होता है। कोई भी पाठ वास्तव में तभी रोचक बनता है जब वह उस संदर्भ के साथ जोड़ा जाए। इसलिए यह ज़रूरी है कि शिक्षक निरंतर अध्ययनरत रहें। केवल अपने विषय को जान लेना पर्याप्त नहीं होता। उदाहरण के लिए, यहां उठाया गया विषय—पूंजीवाद—इतिहास, अर्थशास्त्र, संस्कृति और धर्म के गहन अध्ययन की मांग करता है।
उल्लेखनीय बात यह है कि इस चर्चात्मक संवाद की शुरुआत एक गणित शिक्षक ने की, और इसके उत्तर में जिन शिक्षकों ने भाग लिया, वे विज्ञान और इतिहास के शिक्षक हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति जिस बहु-विद्यात्मक (multidisciplinary) अध्ययन की बात करती है, शायद यह चर्चा उसका एक सुंदर उदाहरण है।
फिलहाल, इस चर्चा में उठाए गए मुद्दे पर मैं भी एक टिप्पणी करना चाहता हूं:
जब से 19वीं शताब्दी के मध्य में कार्ल मार्क्स ने लिखना शुरू किया, तब से पूंजीवाद पर विमर्श अकादमिक जगत में केंद्र में रहा है। आज हम सभी एक पूंजीवादी समाज का हिस्सा हैं। व्यक्तिगत स्वतंत्रता और लोकतंत्र, पिछले 200 वर्षों से पूंजीवाद के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलते रहे हैं।
हालांकि पूंजीवाद की आलोचना भी जबरदस्त हुई है—और मैं समझता हूं कि इस आलोचना ने इस व्यवस्था को अधिक न्यायोचित बनाने में मदद की है। मार्क्स ने जो विकल्प सुझाए, वे व्यावहारिक रूप से कई देशों में आज़माए गए और विफल भी हुए, लेकिन फिर भी, उनकी सोच ने पूंजीवाद के भीतर सामाजिक न्याय की संभावनाएं खोल दीं। आम लोगों के हक में उनकी आलोचनाएं और चेतावनियां आज भी प्रासंगिक हैं।
जब मैंने यह जानने की कोशिश की कि धर्म पूंजीवाद को कैसे पोषित करता है, तो मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि इस क्षेत्र में काफी अकादमिक कार्य हो चुका है। कल ही मुझे एक शोध-पत्र मिला, जिसका शीर्षक है “All That Is Holy: The Role of Religion in Postcapitalist Communities”—लेखक हैं Jon Wittrock। इसी संदर्भ में Kate Bowler की प्रसिद्ध पुस्तक “Blessed: A History of the American Prosperity Gospel” भी मिली, जो इस विषय पर शानदार काम मानी जाती है।
पूंजीवाद आज के समाज की वह सच्चाई है जिसमें हम जीते हैं और सांस लेते हैं। इसने जीवन को कई मायनों में सहज बनाया है। लेकिन बीते दो सौ वर्षों की उसकी आलोचना ने दुनिया को एक से बढ़कर एक चिंतक दिए हैं| इन चिंतकों ने पूंजीवाद की आलोचना के ज़रिए हमारे समाज को अधिक न्यायपूर्ण और विवेकपूर्ण बनाने में योगदान दिया है।
कई बार ऐसा लगता है कि कक्षा के बाहर होने वाली चर्चाएँ, असल में हमारे शिक्षकीय जीवन की सबसे ज़रूरी तैयारी होती हैं। विचारों से टकराना, असहमति को सुनना, अपने पूर्वग्रहों को पहचानना—यह सब उस प्रक्रिया का हिस्सा है जिससे हम बेहतर शिक्षक बनते हैं। जब हम पूंजीवाद, धर्म या व्यवस्था जैसे बड़े शब्दों को अपने रोज़मर्रा के अनुभवों से जोड़कर समझने लगते हैं, तो शिक्षा भी ज़्यादा जीवंत और सजीव हो उठती है। शायद शिक्षण का असली सौंदर्य यही है—कि यह हमें लगातार सीखने, सोचने और बदलने का अवसर देता है, और साथ ही अपने विद्यार्थियों को भी यह रास्ता दिखाने का हौसला।
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