मौलिक लेखन की चुनौती और नकल की संस्कृति
बच्चे मौलिक रूप से कैसे लिखें, यह सवाल शिक्षा के विमर्श का केंद्र हमेशा रहा है। हाल के वर्षों में, जब से कृत्रिम बुद्धिमत्ता (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) हमसे बेहतर लिखने में सक्षम हो गई है, यह सवाल और भी गहरा हो गया है कि क्या हम अब लिखने की क्षमता को वास्तव में विकसित कर पाएंगे? अपने पीएचडी शोध के दौरान मैंने पाया कि स्कूलों में, और मेरे विचार से अधिकतर कॉलेजों में भी, लिखने की प्रक्रिया में हमने वस्तुतः नकल करने की संस्कृति को बढ़ावा दिया है। इसमें इस बात पर जोर दिया जाता है कि बच्चे किसी अन्य स्रोत—चाहे वह कोई किताब हो, गाइड बुक हो, या शिक्षक द्वारा ब्लैकबोर्ड पर लिखा गया पाठ हो—से देखकर अपना कार्य पूरा करें। इस तरह के तमाम तरीकों से कॉपी करने का काम तो पूरा हो जाता है, लेकिन मौलिक लेखन को लगभग दरकिनार कर दिया जाता है। इसका सीखने-सिखाने की प्रक्रिया पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
मैं इस विषय पर लगातार लिखता और बोलता रहा हूँ। हाल ही में, भाषा शिक्षण के कुछ सरोकार नामक पुस्तक में इससे संबंधित मेरा एक अध्याय प्रकाशित हुआ है। इस पर्चे को मैंने अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी और जामिया मिल्लिया इस्लामिया द्वारा आयोजित एक सेमिनार में प्रस्तुत किया था। इससे पहले भी, मैं इस मुद्दे पर अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी द्वारा प्रकाशित पत्रिका पाठशाला: भीतर और बाहर में लिख चुका हूँ। संडे डायरी के इस अंक में, मैं आज उस अध्याय को आप सब के साथ साझा कर रहा हूँ ।
यह पुस्तक भाषा शिक्षण के कुछ सरोकार वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित की गई है और इसके संपादक हैं हृदय कान्त दीवान, रजनी द्विवेदी, राजेश उत्साही, एवं अवधेश त्रिपाठी। यहाँ इसके कुछ हिस्सों को केवल पाठकों के साथ साझा करने के उद्देश्य से पुनः उपयोग किया जा रहा है।
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