The journey continues; back to the university

The journey continues; back to the university

Posted on: Fri, 10/30/2020 - 17:45 By: admin

Back to the University!

बैक टू द यूनिवर्सिटी अपने आप में ही कितना रोमांचित कर देने वाली यह कल्पना है। फिलहाल मेरे लिए यह कल्पना नहीं एक हकीकत है। पिछला सप्ताह स्कूल में गुजारने के बाद एक बार फिर से आज हम यूनिवर्सिटी में वापस आ गए। लेकिन अगले 3 दिन हम फिर से स्कूल जा रहे हैं। ठीक से पता नहीं लेकिन मुझे यह बहुत ही रोमांचित करने करने वाली अवधारणा लगती है। शिक्षक का विद्यार्थी हो जाना और फिर विद्यार्थी से शिक्षक हो जाना और इसका सतत चलते रहना, मेरे ख्याल से यह प्रक्रिया किसी को भी एक बेहतरीन शिक्षक बना सकता है और साथ ही एक बेहतरीन विद्यार्थी भी बना सकता है। और शिक्षक अगर विद्यार्थी बना रहे तो शायद हम अपने शिक्षा व्यवस्था से जुड़ी हुई कई समस्याओं को का हल ढूंढ सकते हैं। मुझे पता नहीं कि संस्थागत स्तर पर इस तरह के कल्पनाओं को कितने हद तक हकीकत में बदला जा सकता है। बहुत हद तक दिल्ली सरकार अपने मेंटर टीचर प्रोग्राम के जरिए अपने शिक्षकों को कई बार विद्यार्थी होने का मौका दे रही है।

वैसे तो अमेरिका में आज प्रेसिडेंट डे के मौके पर छुट्टी है लेकिन हम लोगों के लिए क्लास की व्यवस्था की गई थी।

हमारा पहला क्लास Dr. Anya Evmenova के साथ था और इस क्लास में हम स्पेशल एजुकेशन से जुड़े हुए मुद्दों की जानकारी ले रहे थे। Dr Evmenova रशियन मूल की अमेरिकी नागरिक हैं और पिछले करीब एक दशक से स्पेशल एजुकेशन के क्षेत्र में रिसर्च कर रही हैं और पढ़ा रही हैं। एक्सपीरियंसियल लर्निंग पर यहाँ बहुत जोर है । हम तो वयस्क हैं फिर भी हमें एक्सपीरियंसियल लर्निंग का एक्सपोजर दिया जा रहा है, और आप भरोसा नहीं करेंगे हम बच्चों की तरह क्लास में उछलते हैं, खुशी से झूमते हैं, कंपीट करते हैं। मुझे तो यह कल्पना भी अब रोमांचित कर रही है कि हमारे बच्चे जिनको असली में जरूरत है,क्लास में उछालने की, खुशी से झूमने की उनके लिए कितना जरूरी है एक्सपीरियंसियल लर्निंग। टेक्नोलॉजी ने इस अवधारणा को बहुत हद तक आसान बना दिया है। क्लास में हमें कई सारे ऐसे एक्टिविटी दिखाए गए जिससे हम पहली बार यह एहसास कर पाए कि सीखने में कठिनाई का सामना करने वाले छात्रों के लिए वास्तव में सीखना कितना मुश्किल काम होता है। अमेरिका के स्कूलों में, लर्निंग डिसएबल बच्चों का यह अधिकार है कि वह अपनी 21 साल की उम्र तक हाई स्कूल में बने रह सकते हैं। एडमिशन देने से स्कूल इनकार नहीं कर सकता है। मैं किसी अन्य लेख में यह चर्चा कर चुका हूं कि एक बच्चे पर एक शिक्षक की व्यवस्था है।

Image removed.

कोई समाज अपने स्पेशल नीड वाले बच्चों का ख्याल किस प्रकार रखता है इस बात से उस समाज के विकास की ऊंचाइयों का हम अंदाजा लगा सकते हैं। इस मामले में अमेरिकी समाज हम से कहीं आगे हैं, बहुत आगे है। स्पेशल नीड वाले लोग यहां एक गरिमापूर्ण जीवन जी सकते हैं जिसका हमारे समाज में काफी कमी है। अलग-अलग कानून यहां के स्पेशल नींड के लोगों के लिए बनाई गई है जो उनके अधिकारों की रक्षा करती है। 2002 में अमेरिकी संसद में एक कानून पास किया गया जिसका नाम रखा गया (नो चाइल्ड लेफ्ट बिहाइंड), इस कानून में यह व्यवस्था की गई थी कि स्पेशल नीड वाले बच्चों के परफॉर्मेंस के आधार पर ही शिक्षकों के वेतन में इजाफा की जा सकती है यह कानून 2015 तक रहा। शिक्षकों के समूह के जबरदस्त विरोध के दबाव में आकर बाद में इस कानून को वापस ले लिया गया। मेरे इस सवाल पर कि क्या इन 13 सालों में ऐसी कोई स्टडी हुई जिसमें यह बताया गया हो कि बच्चों के परफॉर्मेंस में वाकई कोई इजाफा हुआ है, Dr Evmenova का जवाब था कि वह ऐसी कोई स्टडी से परिचित नहीं है लेकिन हां इन 13 वर्षों में ऐसी कई सारी स्टडी हुई जो शिक्षकों के नजरिए को सामने रखती है कि शिक्षक किस तरह की परेशानी में पड़ गए थे। इस कानून के वापस लिए जाने के बावजूद स्पेशल नीड्स के लोगों के लिए अमेरिकी समाज में एक जबरदस्त कमिटमेंट है जो आपको हर जगह देखने को मिल सकता है।

दूसरी क्लास टेक्नोलॉजी की क्लास थी प्रोफेसर Norton के साथ, उनकी उम्र शायद करीब 60 के आसपास होगी लेकिन उनका जज्बा और उनकी ऊर्जा देखते ही बनती है। वह इस बात को लेकर के बहुत स्पष्ट है कि हम जो भी सीखते हैं उसके लिए हमारे सामने ऑथेंटिक प्रॉब्लम होने चाहिए। उनकी यह धारणा मुझे बहुत प्रेरित करती है । गांधी ने भी अपनी बेसिक एजुकेशन में कहीं न कहीं ऑथेंटिक प्रॉब्लम की ही तो बात की थी। Dr Norton ने हमें पॉडकास्ट बनाना सिखाया है इसलिए नहीं क्योंकि यह क्लास में करने वाला एक काम था बल्कि इसलिए क्योंकि उस पॉडकास्ट की जरूरत किसी ट्रेवल एजेंसी को थी। यहां के कॉलेज और स्कूलों में इस बात पर बहुत जोर है की ऑथेंटिक प्रॉब्लम के आस-पास ही सीखने की प्रक्रिया को बढ़ावा दिया जाए, हमारे यहां तो सीखना बहुत मेकेनिकल हो चुका है। ऐसा नहीं है कि अपने यहां इस तरह के प्रयोग नहीं हुए है, प्रोफेसर अनिल सदगोपाल ने इस अवधारणा को भारत में लाने के लिए जबरदस्त प्रयास किया था। आज अगर भारत में आप कुछ शिक्षाविदों को जानते हैं तो उनमें से ज्यादातर उस प्रयोग से प्रभावित रहे हैं या उसका हिस्सा रहे हैं।