
युद्ध का सच: हथियार, आतंकवाद और विश्व व्यवस्था
व्हाट इज योर टेक ऑन वॉर, सर?
8 तारीख की सुबह, जब मैं कक्षा में गया, तो करिकुलम पेडागोजी की कक्षा में विद्यार्थियों का यह पहला सवाल मुझसे था। पिछली रात खबर आ चुकी थी कि भारत ने चुन-चुनकर पाकिस्तान के आतंकी ठिकानों को निशाना बनाया था। पहलगाम हमले से आहत सभी भारतवासी एक तरह की राहत महसूस कर रहे थे।
युद्ध के साये में, युद्ध पर बात किए बिना करिकुलम पर चर्चा असंभव थी, और ऊपर से विद्यार्थियों का यह सवाल। किसी भी समूह की तरह, इस कक्षा में भी कुछ विद्यार्थी युद्ध को लेकर उत्साहित थे, तो कुछ शांति के पक्ष में थे। मैंने विद्यार्थियों से उनकी प्रतिक्रियाएँ लीं और फिर अपनी बात रखी। मैंने युद्ध को तीन अलग-अलग परिप्रेक्ष्यों से देखने की कोशिश की है: मीडिया, हथियार बेचने वाले देश, और सरकारें। लेकिन यहाँ फिलहाल मैं केवल एक परिप्रेक्ष्य पर बात करूँगा।
किसी भी युद्ध का सबसे प्रमुख लाभार्थी हथियार बेचने वाले देश होते हैं। हथियार बेचने के लिए यह अपरिहार्य है कि युद्ध या युद्ध जैसा माहौल दुनिया में लगातार बना रहे। इस माहौल को बनाने में मीडिया निर्णायक भूमिका निभाता है।
अब इसे भारत-पाकिस्तान के संदर्भ में देखते हैं। आतंकवादियों को आश्रय देना पाकिस्तान की स्टेट पॉलिसी का हिस्सा रहा है। भारत के इन आरोपों को पाकिस्तान खारिज कर सकता है, लेकिन ओसामा बिन लादेन का पाकिस्तान में पकड़ा जाना और अमेरिकी पत्रकार डैनियल पर्ल की पाकिस्तान में गला रेतकर हत्या कर दिया जाना, पाकिस्तान को आतंकवादी समूहों को संरक्षण देने वाले देश के रूप में स्थापित करता है।
लेकिन यहाँ एक गहरा सवाल उठता है: जब इस तरह के ठोस सबूत उपलब्ध हैं कि आतंकवादी समूह पाकिस्तानी धरती से संचालित होते हैं, तो पश्चिमी ताकतें—जिन्होंने सिर्फ़ ओसामा बिन लादेन के अफगानिस्तान में होने की आशंका पर पूरे अफगानिस्तान को बमबारी से तबाह कर दिया, और सिर्फ़ वीपन्स ऑफ मास डिस्ट्रक्शन की आशंका पर इराक को नष्ट कर वहाँ के शासक की हत्या कर दी—पाकिस्तान के खिलाफ, बिन लादेन के पकड़े जाने के बावजूद, कोई कार्रवाई क्यों नहीं करतीं? और हद तो तब हो जाती है, जब भारत-पाकिस्तान युद्ध के बीच, पश्चिमी देशों का वह समूह, जो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) को नियंत्रित करता है, पाकिस्तान को एक बिलियन डॉलर का ऋण उपलब्ध करवाता है।
यह बातें आतंकवाद जैसे विषय को और पेचीदा बनाती हैं। यह वैसा नहीं है जैसा हम सोचते हैं कि कुछ मुट्ठीभर लोग, जो धार्मिक या अन्य कारणों से कट्टर हो चुके हैं, दुनिया में आतंक फैलाते हैं। वास्तव में, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, अमेरिका के नेतृत्व में जो विश्व व्यवस्था कायम हुई, उसे बनाए रखने के लिए आतंकवाद को एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इसके कई प्रमाण हैं। 1980 के दशक में, अफगानिस्तान में तत्कालीन सोवियत संघ को रोकने के लिए अमेरिका ने तालिबान को खड़ा किया था, उन्हें पैसे और हथियार दिए थे। ऐसा नहीं कि पश्चिमी देश आतंकवाद का शिकार नहीं हुए, लेकिन फिर भी उनके रणनीतिक हित आतंकवाद के अस्तित्व से मज़बूत होते हैं। नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध डॉक्यूमेंट्री वेब सीरीज़ Turning Point: 9/11 and the War on Terror में इन बिंदुओं को विस्तार से दिखाया गया है।
दक्षिण एशिया, खासकर भारत-पाकिस्तान के संदर्भ में, आतंकवाद हमेशा युद्ध या युद्ध जैसा माहौल बनाए रखता है। इसके परिणामस्वरूप, दोनों देश अपनी अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा पश्चिमी देशों से हथियार और युद्ध सामग्री खरीदने में खर्च करते हैं। दोनों देश अपने कुल बजट का 12 से 14% रक्षा पर खर्च करते हैं, जिसमें से एक बड़ा हिस्सा विदेशों से हथियार और युद्ध सामग्री खरीदने में जाता है। वहीं, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में ये बहुत कम खर्च कर पाते हैं।
भारत-पाकिस्तान टकराव को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें, तो कई बातें स्पष्ट होती हैं।
18वीं सदी के मध्य में ब्रिटेन में वाष्प इंजन (स्टीम इंजन) का आविष्कार हुआ, और यही वह समय था जब भारत के अनगिनत राजा-महाराजा आपस में लड़ रहे थे, और मुगल साम्राज्य का पतन हो रहा था। अगले 100 वर्षों में यह तय हो गया कि जिन देशों का विज्ञान के आविष्कारों पर नियंत्रण होगा, वही दुनिया को नियंत्रित करेंगे। धर्म के आधार पर लोगों को एकजुट कर विश्व व्यवस्था को नियंत्रित करने की पिछले हज़ार साल की व्यवस्था समाप्त हो चुकी थी। यूरोप, जहाँ एक ओर विज्ञान की नई उपलब्धियाँ हासिल कर रहा था, वहीं दूसरी ओर उसने अपने उपनिवेशों में धार्मिक उन्माद को बढ़ावा दिया। आज भी विश्व के कई देश धर्म को आधार बनाकर अपने देश की जनता को एकजुट करते हैं लेकिन यह शासन करने का एक आसान तरीका मात्र है, विश्व व्यवस्था में इन देशों की कोई अहमियत नही है।
द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में, विश्व व्यवस्था अटलांटिक पार कर अमेरिका पहुँच गई, और अमेरिका युद्ध के बाद की दुनिया की सबसे प्रमुख शक्ति के रूप में उभरा। यहाँ यह रेखांकित करना ज़रूरी है कि यह धार्मिक आधार पर लोगों को एकजुट करके संभव नहीं हुआ, बल्कि विज्ञान के क्षेत्र में यूरोप से आगे निकलकर अमेरिका ने यह स्थान हासिल किया। अब इसी विज्ञान को आधार बनाकर चीन अमेरिका के एकाधिकार को चुनौती दे रहा है।
रॉयटर्स में छपी एक खबर पढ़कर मैं हैरान था कि भारत-पाकिस्तान के संक्षिप्त युद्ध में पश्चिम की नज़र इस बात पर थी कि पश्चिमी देशों द्वारा बनाई गई युद्ध सामग्री, जिसका उपयोग भारत कर रहा था, और चीन द्वारा बनाई गई युद्ध सामग्री, जिसका उपयोग पाकिस्तान कर रहा था, कैसा प्रदर्शन कर रहा है। इन दोनों शक्तियों के लिए यह एक टेस्टिंग ग्राउंड जैसा था। इस बात की आशंका है कि ताइवान के मुद्दे पर साउथ चाइना सी में अमेरिका और चीन के बीच भविष्य में एक निर्णायक टकराव हो सकता है, जो एक नई विश्व व्यवस्था की नींव रखेगा।
मानव सभ्यता के इतिहास में लंबे समय तक भारत विश्व गुरु रहा है, और वह एक बार फिर विश्व गुरु बनने की चाह रखता है। लेकिन हमें यह समझना होगा कि 18वीं सदी के मध्य में वाष्प इंजन के आविष्कार के साथ ही धर्म को आधार बनाकर विश्व गुरु बनने की सभी संभावनाएँ समाप्त हो चुकी हैं। यदि हम विश्व व्यवस्था में निर्णायक भूमिका निभाना चाहते हैं, तो हमें विज्ञान को आधार बनाना होगा। भारत को दक्षिण एशिया का नेतृत्वकर्ता देश बनकर उभरना होगा। हमें टेस्टिंग ग्राउंड बनने से इंकार करना होगा। अन्यथा, जैसा कि सुज़ाना जैबॉफ कहती हैं, औद्योगीकरण के पहले दौर में जिन्होंने जमीन के ऊपर और भीतर छिपे खनिजों के दोहन के तरीके निकाले, उन्होंने दुनिया भर के देशों पर कब्ज़ा कर उन संसाधनों का दोहन किया। वे देश अमीर बने, और कई देश उपनिवेश बन गए। औद्योगीकरण के इस नए दौर में, डेटा—हमारे पास मौजूद सारी जानकारी—उसके दोहन की क्षमता जिन देशों के पास होगी, वे विश्व व्यवस्था पर नियंत्रण करेंगे। एक बार फिर, नए रूप में उपनिवेशीकरण का ख़तरा दुनिया के अन्य देशों पर मंडरा रहा है। डॉक्यूमेंट्री फिल्म 'द ग्रेट हैक' में इस विषय को गहराई से समझाया गया है।
हम शुरुआती सवाल पर लौटते हैं: भारत-पाकिस्तान को आपस में उलझाए रखना आधुनिक विश्व व्यवस्था के रणनीतिक हित में है। वे चाहते हैं कि युद्ध या युद्ध जैसा माहौल बना रहे, ताकि युद्ध सामग्री की बिक्री जारी रहे, और ये देश पिछड़ी अर्थव्यवस्थाओं के रूप में बने रहें। मीडिया द्वारा बनाए गए प्रचार (प्रोपेगेंडा) के बादल से बाहर निकलकर हमें इन वास्तविकताओं को देखने की क्षमता विकसित करनी होगी।
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