
क्या कहें, कैसे कहें: शिक्षकों की भाषा और बच्चों का आत्म-सम्मान
यह वह समय होता है जब बच्चों को एक कक्षा से दूसरी कक्षा में भेजा जाता है। एलिमेंट्री कक्षाओं में एक खास तरह की चुनौती सामने आती है—कुछ बच्चे छठी, सातवीं, आठवीं में होने के बावजूद ठीक से पढ़ना-लिखना नहीं जानते। शिक्षकों का अनुमान होता है कि यदि उन्हें अगली कक्षा में भेज दिया जाए तो चुनौती और बढ़ जाती है। "नो डिटेंशन पॉलिसी" समाप्त की जा चुकी है, और ऐसे में पाँचवीं और आठवीं कक्षा में ऐसे बच्चों को रोक लेने की स्वतंत्रता स्कूल के पास होती है।
राष्ट्रीय स्तर पर यह एक गंभीर समस्या है। कई रिपोर्टें बताती हैं कि बच्चे अपनी कक्षा के अनुरूप पाठ्यपुस्तक को पढ़ और लिख नहीं पाते। कम से कम पिछले पाँच-सात वर्षों से इस समस्या को दूर करने के लिए गंभीर प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन फिर भी यह समस्या बनी हुई है।
मुझे लगता है कि इस समस्या को ठीक से समझने में जल्दबाजी दिखाई गई है। जब वे बच्चे, जो छठी, सातवीं या आठवीं कक्षा में पहुँच चुके हैं, 12-13 साल की उम्र के होते हैं, तब उनके भीतर एक आत्म-परिचय (Self-Identity) विकसित हो चुका होता है। इस पहचान के साथ जब उन्हें चारों ओर से यह सुनने को मिलता है कि "इतना बड़ा हो गया, फिर भी पढ़ना नहीं आता", तो यह उनके आत्म-सम्मान को ठेस पहुँचाता है। अपनी आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए उनमें से अधिकतर बच्चे धीरे-धीरे स्कूल आना बंद कर देते हैं। यह बात इस तथ्य से भी साबित होती है कि अमूमन शिक्षक यह दावा करते हैं—"हम इन बच्चों के साथ क्या करें, ये स्कूल ही नहीं आते।" और अंततः, ये बच्चे स्कूल से बाहर हो जाते हैं।
जब मैं शिक्षकों से बातचीत कर इस समस्या को समझने की कोशिश करता हूँ, तो पता चलता है कि वे कुछ बच्चों को चिह्नित (Identify) करते हैं, जिनके बारे में उन्हें लगता है कि वे ठीक से पढ़ना नहीं जानते। एक बार कक्षा में मैंने सहज रूप से कुछ बच्चों से पूछा, "तुममें से कितने बच्चे ठीक से पढ़ना जानते हो?" फिर मेरा अगला सवाल था, "क्या कभी ऐसा समय था जब तुम्हें ठीक से पढ़ना नहीं आता था?" सभी बच्चों ने सहमति जताई और बताया कि पहले उन्हें ठीक से पढ़ना नहीं आता था।
इसका मतलब यह हुआ कि "ठीक से पढ़ना नहीं आना" ही "ठीक से पढ़ना सीखने" की पहली कड़ी है। यदि शिक्षक इस अवस्था में उम्मीद बनाए रखें और बच्चों को लगातार प्रोत्साहित करें कि—
"तुम बिल्कुल सही रास्ते पर हो। हम सबने भी इसी तरह से सीखा है। एक समय था जब हमें भी ठीक से पढ़ना नहीं आता था, लेकिन लगातार अभ्यास से हमने इसे सीखा।"
तो ऐसी उम्मीद की जा सकती है कि ज्यादातर बच्चे प्रयास जारी रखेंगे और उनका आत्म-सम्मान भी सुरक्षित रहेगा।
लेकिन जैसे ही हम यह घोषणा कर देते हैं कि—
"इतने बड़े हो गए, फिर भी पढ़ना नहीं आता!"
तो बच्चे उसी समय पढ़ना सीखने की कोशिश छोड़ देते हैं।
हालाँकि शिक्षक यह सोचकर ऐसा नहीं कहते कि बच्चे पढ़ना छोड़ दें, बल्कि उन्हें लगता है कि ऐसा कहने से शायद वे सीखने की ओर प्रेरित हो जाएँगे। लेकिन दुर्भाग्यवश, ऐसा होता नहीं है। सभी शिक्षक जानते हैं कि अधिकांश बच्चे, जिन्हें किसी कक्षा में रोक लिया जाता है ताकि वे एक साल और पढ़ाई करके बेहतर हो सकें, अगली बार फिर से असफल हो जाते हैं। यहाँ भी मामला आत्म-सम्मान का ही होता है।
हमें यह स्वीकार करना होगा कि "ठीक से पढ़ना नहीं आना" और "रुक-रुककर पढ़ना"—ये दोनों ही "ठीक से पढ़ना सीखने" की आवश्यक कड़ियाँ हैं। यह कहना कि "बच्चा इतना बड़ा हो गया और पढ़ना नहीं आता"—एक बेहद सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक मामला है, जिसे हम कई बार नज़रअंदाज कर देते हैं। यह केवल बच्चे का व्यक्तिगत मामला नहीं है।
यदि हम अपने तरीके में थोड़ा सा बदलाव लाएँ और हर बच्चे के साथ इस तरह पेश आएँ कि—
"तुम अभी पढ़ना सीखने की प्रक्रिया में हो, और यह बिल्कुल सामान्य है। हम सबने भी इसी तरह से सीखा है।"
तो बहुत जल्द, निरंतर अभ्यास से वे भी सीख जाएँगे।
अगर हम बच्चों के आत्म-सम्मान की रक्षा कर पाए, तो वे जल्दी ही लिखना-पढ़ना सीख जाएँगे। लेकिन यदि हम उनके आत्म-सम्मान को ठेस पहुँचाएँगे, तो हम उन्हें पढ़ना-लिखना तो नहीं सिखा पाएँगे, बल्कि उन्हें स्कूल छोड़ने की राह पर धकेल देंगे।
- Log in to post comments