साहित्य के बिना अधूरा इतिहास

साहित्य के बिना अधूरा इतिहास

Posted on: Sun, 01/19/2025 - 11:15 By: admin
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साहित्य के बिना अधूरा इतिहास

 

इतिहास की कक्षा में जाते ही बच्चों के चेहरों पर छाई उदासी देखकर मन भारी हो जाता है। महीने भर से भी कम समय में उन्हें वार्षिक परीक्षा देनी है। वे प्रश्नों के लंबे उत्तर याद करने का बहुत प्रयत्न करते हैं, लेकिन फिर भी उन्हें याद रखने में असफल रहते हैं। पिछले लेख में मैंने इस बात का जिक्र किया था कि याद न रख पाने की यह जद्दोजहद, विषय को ठीक से न समझ पाने का परिणाम है। किसी विषय को समझने के लिए उसकी एक मुकम्मल तस्वीर बनानी पड़ती है। खासतौर पर इतिहास के संदर्भ में, इस मुकम्मल तस्वीर को बनाने में साहित्य की बड़ी भूमिका होती है।

वैसे, मैं स्वयं इतिहास का विद्यार्थी रहा हूँ, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में साहित्य के प्रति मेरी गहरी रुचि बढ़ी है। मैं अक्सर सोचता हूँ कि जिस प्रकार गणित के बिना भौतिकी को पढ़ना असंभव है, उसी प्रकार साहित्य के बिना इतिहास की गहरी समझ विकसित करना भी कठिन और अधूरा है। इतिहास विषय में आने वाली कठिनाई और बोरियत को साहित्य के खूबसूरत उपयोग से काफी हद तक कम किया जा सकता है। यूं कहें तो, यह विषय और अधिक रोचक बन सकता है। लेकिन यह सोचकर हैरानी होती है कि हम साहित्य और इतिहास को एक साथ, एक "ट्विन सब्जेक्ट" के रूप में बच्चों को क्यों नहीं पढ़ाते।

मैंने अमेरिका के स्कूलों में अंग्रेजी और इतिहास के शिक्षकों को साथ मिलकर पढ़ाते हुए देखा है। वहां यह अवधारणा है कि इतिहास की सामग्री को इतिहास के शिक्षक पढ़ाएंगे, और उसके व्याकरण और भाषा संबंधी पहलुओं को अंग्रेजी के शिक्षक सिखाएंगे। लेकिन जब मैं साहित्य और इतिहास को जोड़कर पढ़ाने की बात करता हूँ, तो मेरा उद्देश्य इससे थोड़ा अलग है।

मैं अपने व्याख्यानों में अक्सर बताता हूँ कि इतिहास हमें मानव जीवन के विकास की एक "सैटलाइट व्यू" देता है, जबकि साहित्य "स्ट्रीट व्यू।" स्ट्रीट व्यू रस पैदा करता है, उसमें सुगंध और जीवंतता होती है। शुरुआत वहीं से होनी चाहिए। इसके बाद, बड़ी तस्वीर देखने की इच्छा जागती है, जिसे इतिहास के माध्यम से दिखाया जा सकता है।

उदाहरण के लिए, विभाजन के इतिहास को यशपाल की किताब झूठा सच, राही मासूम रज़ा की आधा गांव और कुर्रतुल-ऐन हैदर की आग का दरिया के बिना कैसे समझा जा सकता है? भारत-पाकिस्तान का विभाजन महज एक राजनीतिक घटना नहीं थी। इसने लोगों की जिंदगियों और आने वाली कई पीढ़ियों को गहराई से प्रभावित किया। साहित्य के बिना इतिहास इस अनुभव को मुकम्मल रूप में अंकित नहीं कर सकता।

इसी प्रकार, जब दिल्ली में शासन की बागडोर अंतिम मुगलों से खिसककर अंग्रेजों के हाथों में जा रही थी, उस समय के दिल्लीवासियों के मानस और जनजीवन को जितनी खूबसूरती से शम्सुर रहमान फारुकी की किताब कई चांद थे सरे-आसमान ने दर्ज किया है, क्या इतिहास की किताबें उस दौर पर इतनी संजीदगी से प्रकाश डाल सकती हैं? प्रेमचंद को पढ़े बिना स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल भारतीय जनमानस की कथा और उनके आपसी ताने-बाने को कैसे समझा जा सकता है? रवींद्रनाथ टैगोर के उपन्यास के मुख्य पात्र गोरा ने जिस भारत माता की खोज की, क्या उसे जाने बिना हमारी भारत माता की समझ अधूरी नहीं है?

प्राचीन भारत के इतिहास के प्रति मेरी रुचि उतनी गहरी कभी नहीं थी, जितनी आचार्य चतुरसेन की वैशाली की नगरवधू और राहुल सांकृत्यायन की वोल्गा से गंगा तक पढ़ने के बाद हुई। जैसे-जैसे मैं साहित्य के मार्ग पर आगे बढ़ता जा रहा हूँ, मेरी यह समझ और पक्की होती जा रही है कि इतिहास को समझने का शायद सबसे बेहतर रास्ता साहित्य से होकर ही गुजरता है।

अब इस संदर्भ में एक सवाल खड़ा हो सकता है कि बच्चों के ऊपर पहले ही पाठ्य सामग्री का इतना दबाव है। ऐसे में अगर हम साहित्य को इतिहास पढ़ने का हिस्सा बनाएंगे, तो क्या यह मौजूदा स्कूल प्रणाली में संभव हो पाएगा? यह सवाल वाजिब है। इतिहास के शिक्षकों का साझा अनुभव है कि बच्चे पढ़ने में दिलचस्पी नहीं लेते हैं। अगर हम उन्हें और साहित्य पढ़ने को कहें, तो क्या यह संभव होगा? क्या इस समस्या को ऐसे देखा जा सकता है कि शायद हम बच्चों को पढ़ने लायक सामग्री ही नहीं दे पा रहे हैं? और हो सकता है कि साहित्यिक सामग्री इस समस्या का समाधान हो!

साहित्य और इतिहास को मिलाकर हम नई पाठ्य सामग्री तैयार कर सकते हैं, जिसमें साहित्य का मुख्य उद्देश्य यह हो कि वह बच्चों में इतिहास के प्रति रुचि पैदा करे। यदि बच्चों में रुचि जागृत हो गई, तो वे इतिहास को अधिक गहराई से पढ़ेंगे। एक दृष्टि से देखें, तो स्कूल में पढ़ाए जाने वाले सभी विषय मिठाई की दुकान पर चखाई जाने वाली सैंपल मिठाई की तरह हैं, ताकि बच्चों को जो पसंद आए, वे उसे और पढ़ें। इस संदर्भ में, स्कूलों के पाठ्यक्रम को इतना रोचक और आकर्षक बनाया जाना चाहिए कि वह बच्चों में जिज्ञासा और रुचि पैदा करे, न कि शिक्षकों और बच्चों पर उसे पूरा करने का दबाव डाले। साहित्य और इतिहास के मेल से तैयार किया गया पाठ्यक्रम शायद बच्चों में इतिहास के प्रति रुचि और गहरी समझ विकसित कर सके।