मुकम्मल तस्वीर: रटने से समझने तक का सफर
बच्चों के वार्षिक एग्जाम में लगभग एक महीने का समय बचा है, और इस समय सबसे अधिक जोर महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर याद करने पर दिया जाता है। शिक्षक कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों को चिन्हित करते हैं और बच्चों से उन्हें याद करने और लिखने के लिए कहते हैं।
शिक्षा में सुधार से जुड़े महत्वपूर्ण दस्तावेजों में पिछले पांच दशकों से इस विषय पर गंभीर चर्चा हो रही है। कई सुझाव दिए गए हैं कि हमें रटकर उत्तर याद करने की प्रक्रिया से बाहर निकलना होगा। लेकिन परीक्षा से ठीक एक महीने पहले यदि हम किसी भी स्कूल में जाएं, तो वही पद्धति, जो कई दशकों से चल रही है, आज भी दोहराई जा रही है।
जब हम में से अधिकांश लोग अपने स्कूल और कॉलेज के दिनों को याद करते हैं, तो पाते हैं कि हम भी इन्हीं प्रक्रियाओं से गुजरे हैं। याद करने का सीधा मतलब होता है कि जो बात हमें समझ में नहीं आती, उसे रटकर याद किया जाता है। और अगर कोई चीज समझ में आ जाए, तो उसे याद करने जैसा कुछ बचता ही नहीं। बिना समझे चीजों को याद करना दिमाग पर एक संज्ञानात्मक दबाव (कॉग्निटिव लोड) डालता है, जो इस प्रक्रिया को उबाऊ और थकाऊ बना देता है। कुछ सवाल याद करते-करते ही थकान होने लगती है, नींद आने लगती है। कुछ घंटे या दिन बाद हम पाते हैं कि जो याद किया था, वह भूल चुके हैं।
ऐसे में, हम जैसे तथाकथित विशेषज्ञ बच्चों को कई तरह की सलाह देते हैं। जैसे—सुबह जल्दी उठकर याद करें, क्योंकि इससे चीजें अधिक समय तक याद रहती हैं; अच्छी नींद के बाद याद करना आसान होता है; याद करने के बाद उसे लिख लें; दोस्तों के साथ विषय पर चर्चा करें। इन सुझावों में से कुछ कारगर होते हैं, तो कुछ नहीं।
जब मैं इस समय बच्चों के बीच जाता हूं, तो लगभग सभी बच्चे एक ही सवाल पूछते हैं—"सर, कुछ उपाय बताइए कि लंबे उत्तर कैसे याद करें?" यह सुनकर मन असमंजस में पड़ जाता है।
सवाल यह है कि आखिर बच्चों को चीजें याद क्यों करनी पड़ती हैं? या, याद करने की इस संस्कृति से उन्हें कैसे छुटकारा मिले? यह मेरे चिंतन का एक मुख्य केंद्र रहा है। मैं इस पर सोचता हूं, पढ़ता हूं, और लिखता भी हूं। इस लेख में भी इसी विषय पर विचार कर रहा हूं।
एक उदाहरण के माध्यम से इस जटिल प्रश्न को समझने की कोशिश करते हैं। मान लीजिए, एक शिक्षक के रूप में मैंने बच्चों को ब्लैकबोर्ड पर आंख की एक तस्वीर बनाकर दिखाई और उनसे कहा कि इस तस्वीर को याद कर लो। अब जरा इस याद करने की प्रक्रिया को देखें। यह कुछ ऐसा होता है—एक रेखा ऊपर खींचते हैं, फिर एक रेखा नीचे; रेखा थोड़ा घुमावदार होती है। बीच में दो अर्धवृत्ताकार रेखाएं बनाते हैं और बीच में एक बिंदु। जो ऊपर की रेखा है, उसके ऊपर कई छोटी-छोटी वर्टिकल लाइनों की लकीरें खींचते हैं। इसी तरह, आंख की तस्वीर से जुड़ी अन्य बारीकियां।
लेकिन अगर हम आंख को किसी चेहरे के हिस्से के रूप में दिखाएं, तो शायद बच्चा उस आंख को याद रख पाए कि वह किसकी आंख है। और अगर उस चेहरे को शरीर के हिस्से के रूप में दिखाया जाए और उस शरीर को किसी संदर्भ में प्रस्तुत किया जाए—जैसे वह व्यक्ति बैठा है या खड़ा है, और उसके आसपास क्या चीजें हैं—तो यह पूरी तस्वीर बच्चे के लिए अधिक समझने योग्य बन जाती है। इस तरह, एक मुकम्मल तस्वीर दिखाने के बाद, जब हम किसी बच्चे से उस तस्वीर में से केवल आंख को हटाकर दिखाएं और पूछें, तो बच्चा तुरंत बता सकता है कि यह किसकी आंख है।
अमूमन, किसी भी पाठ को याद करते समय बच्चों के सामने यही समस्या आती है कि वे एक मुकम्मल तस्वीर न देख पाते हैं और न समझ पाते हैं। उदाहरण के लिए, जब दसवीं कक्षा का बच्चा रोलेट सत्याग्रह को याद करता है, तो उसके लिए यह ठीक वैसा ही है जैसे सिर्फ आंख की तस्वीर याद करना, जब तक कि वह रोलेट सत्याग्रह के संदर्भ को न समझे। यह संदर्भ भारत का राष्ट्रीय आंदोलन है। लेकिन राष्ट्रीय आंदोलन केवल भारत तक सीमित नहीं है। राष्ट्रीयता का विकास यूरोप में कैसे हुआ? उपनिवेशों में राष्ट्रीयता का विकास यूरोप की राष्ट्रीयता से किस प्रकार अलग है? इस बड़े संदर्भ में रोलेट एक्ट एक घटना है, जो साम्राज्यवादी शासकों द्वारा उपनिवेश के लोगों पर मनमाने कानून थोपने के तरीके को दर्शाती है। इसके विरोध में, उपनिवेशों के लोग एक सामूहिक पहचान, यानी राष्ट्र की पहचान, विकसित कर रहे थे।
तो, रोलेट एक्ट से जुड़े 100 शब्दों का कोई उत्तर अपने आप में एक स्वतंत्र उत्तर नहीं है, जिसे बच्चा केवल याद कर ले और समझ ले। इसके चारों ओर एक बड़ी तस्वीर खींचनी होती है, जिसमें अलग-अलग बिंदुओं को जोड़ना पड़ता है। शिक्षकों का काम यहां एक कलाकार का होता है। वे इन तस्वीरों को कितनी गहराई से खींचते हैं, उसमें कितना रंग भरते हैं, यह उनकी जानकारी और पढ़ाई पर निर्भर करता है। जिस शिक्षक ने जितनी अधिक पढ़ाई की है और जिनके पास जितनी अधिक जानकारी है, वे उतनी ही खूबसूरत और स्पष्ट तस्वीर खींच पाते हैं।
यह कहना कि बच्चे याद नहीं करते, पढ़ने, लिखने और सीखने के सवाल को बहुत हल्का कर देना है। पढ़ाने का काम कितना कठिन है और इसके लिए शिक्षकों की तैयारी, और उन्हें खुद कितना पढ़ने की जरूरत है, इस पहलू को हम अक्सर नज़रअंदाज़ कर देते हैं।
समस्या केवल शिक्षकों के साथ नहीं है। स्कूल की शिक्षा व्यवस्था को इस तरह व्यवस्थित किया गया है, जहां शिक्षकों से यह उम्मीद की जाती है कि वे सिर्फ पढ़ाएं। जब तक वे कक्षा में हैं, तब तक उन्हें काम करते हुए माना जाता है, और अगर वे कक्षा में नहीं हैं, तो इसे 'फ्री पीरियड' कहा जाता है। धीरे-धीरे मुझे यह एहसास हो रहा है कि जो शिक्षक स्वयं अधिक नहीं पढ़ते, वे पढ़ाने का काम भी सही तरीके से नहीं कर सकते। बिना अधिक पढ़े, कोई भी मुकम्मल तस्वीर कैसे बना सकता है? और बिना मुकम्मल तस्वीर बनाए, कोई समझा ही कैसे सकता है? जब तक बच्चे समझेंगे नहीं, तब तक याद करने की यह समस्या खत्म नहीं होगी।
शिक्षकों के लिए पढ़ना, लिखना, और शिक्षा से जुड़े विमर्श में शामिल होना उनके काम का हिस्सा बनाना बेहद जरूरी है। जब तक हम इसे स्थापित नहीं करते, तब तक सुधार के नाम पर हमारी संवेदनाएं केवल दस्तावेजों तक ही सीमित रहेंगी।
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