रीड विथ ए टीचर: 53 किताबें और 3 वर्षों का सफ़र…
वयस्क हो जाने के बाद पढ़ते रहना भारत में एक अनूठी बात मानी जाती है। भारतीय परीक्षा व्यवस्था ने जो एक सबसे गहरा नुकसान हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था को पहुंचाया है, उनमें से एक यह है कि उसने पढ़ने की आवश्यकता को परीक्षा पास होने तक सीमित करके रख दिया है। हमें जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों में एक से एक सफल व्यक्ति मिलते हैं, जो अपने विद्यार्थी जीवन में बहुत मेधावी रहे, लेकिन सफलता की मंजिल पर पहुंचने के बाद उनके पढ़ने-लिखने का सफर वहीँ खत्म हो जाता है। शिक्षक भी इसके अपवाद नहीं हैं।
अपनी किताब पढ़ना जरा सोचना में कृष्ण कुमार जी ने इस विषय पर गहरी छानबीन की है। यह अमूमन देखा जाता है कि पढ़ाने वाले शिक्षक पढ़ते नहीं हैं, जब तक कि फिर से उन्हें कोई परीक्षा ना देनी हो। शिक्षकों को पढ़ने के लिए कैसे प्रेरित किया जाए, इसको लेकर शिक्षकों के साथ मिलकर काम करने वाले तमाम व्यक्ति सोचते रहते हैं। मेंटर टीचर की भूमिका में हमारे ऊपर भी यह जिम्मेदारी थी कि शिक्षकों को पढ़ने के लिए कैसे प्रेरित किया जाए। एक आसान सा उपाय नजर आया कि हम खुद पढ़ें और फिर कुछ शिक्षक साथियों के साथ बैठकर पढ़ने के आनंद को साझा करें। और इसी पृष्ठभूमि में “रीड विथ ए टीचर” का जन्म होता है।
चंदन जी के साथ मिलकर हमने पहली किताब, एक स्कूल मैनेजर की डायरी पढ़नी शुरू की। संयोग से किताब की लेखिका फराह फारूकी, चंदन और मेरी दोनों की ही शिक्षिका रही हैं।
जुलाई 2021 से किताबों को पढ़ने और पढ़ने के आनंद को साझा करने की यह मुहिम अनवरत जारी है। पिछले 3 वर्षों में, हमने करीब 53 किताब पढ़ने के कार्यक्रम का आयोजन किया है। शिक्षा जगत से जुड़े तमाम व्यक्तियों का इस कार्यक्रम को भरपूर प्यार और सहयोग मिला है। हमारे विद्यार्थी, शिक्षक साथी, स्कूल के प्रधानाध्यापक, शिक्षा निदेशक, प्रोफेसर, रिसर्चर, स्कॉलर, लेखक, फॉरेन स्कॉलर - अलग-अलग समय पर इस कार्यक्रम से जुड़कर उन्होंने इस मंच के जरिए पढ़ने के आनंद को साझा किया है।
53 किताबों में से, हमने अधिकतर (करीब 45) शिक्षा साहित्य से जुड़ी किताबें ही पढ़ी हैं। साहित्य की अन्य विधाओं में पढ़ने और लिखने वाले लोगों की संख्या ठीक-ठाक है, लेकिन शिक्षा साहित्य में बहुत कुछ नहीं लिखा जा रहा है और ना ही इसका एक व्यापक पाठकों का समूह है। हमारे देश में करीब 28 करोड़ बच्चे स्कूल में पढ़ते हैं और करीब एक करोड़ शिक्षक उन्हें पढ़ाने का काम करते हैं। इनके जीवन के आसपास शिक्षा साहित्य का निर्माण होना चाहिए, बड़े पैमाने पर होना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं है। क्योंकि पाठकों का कोई समूह नहीं है, शायद इस वजह से शिक्षा साहित्य लिखने वाले लोग भी कम हैं। इतने बड़े देश में हम 10 नाम नहीं गिन पाते हैं जो शिक्षा साहित्य का निर्माण अनवरत रूप से करते रहे हों।
'रीड विथ ए टीचर' के मंच से यह कोशिश रही है कि शिक्षा साहित्य के पाठकों का एक समूह तैयार किया जाए ताकि इस विधा में लिखने वाले लोग भी सामने आएं। साहित्य किसी समूह की सामूहिक आवाज होती है, और इसकी कमी उस समूह को दीन-हीन और कमजोर बनाती है। यह भी एक वजह है कि करीब 30 करोड़ आबादी वाले इस समूह के पास अपनी कोई आवाज नहीं है, क्योंकि इनका कोई साहित्य नहीं है। उस तरह जैसे दलित साहित्य, स्त्री साहित्य, राष्ट्रवादी साहित्य, साम्यवादी साहित्य है। साहित्य की ताकत यह है कि वह समय और भूगोल की सीमा से परे लोगों को एकजुट करता है। शिक्षा साहित्य अभी इससे कोसों दूर है।
'रीड विथ ए टीचर' के जरिए हम कोई क्रांति नहीं कर रहे हैं, बल्कि यह सिर्फ एक कोशिश है कि शिक्षा साहित्य को पढ़ने और उसके निर्माण के आसपास एक माहौल का निर्माण हो। यह कोशिश वैसे ही है जैसे बुद्धिस्ट परंपरा की एक कहानी में कहा जाता है कि जंगल की आग को बुझाने के लिए एक पक्षी अपनी चोंच में पानी भरकर लाता है और आग बुझाने की कोशिश करता है। उसके इस प्रयास से जंगल की आग बुझ तो नहीं जाती है, लेकिन वह प्रयास नहीं छोड़ता है। वह पक्षी, जो वह कर सकता है, करता है। 'रीड विथ ए टीचर' के 3 वर्ष पूरे होने के अवसर पर हमें यही एहसास होता है कि हम एक छोटी सी कोशिश कर रहे हैं।
रीड विथ ए टीचर' के अब तक के सफर को सिलसिलेवार तरीके से इस ब्लॉग पोस्ट में संकलित किया गया है।👇
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