कर्तव्य बनाम अधिकार

कर्तव्य बनाम अधिकार

Posted on: Sun, 08/18/2024 - 06:45 By: admin

 

                                                

                                                कर्तव्य बनाम अधिकार

Written by Ashok Kumar and Murari Jha

अशोक जी पिछले कुछ महीनो से “स्कूल की बातें” शीर्षक  के तहत कुछ बहुत शानदार अनुभव अपनी फेसबुक पेज पर लिख रहे हैं, आज उनका लेख कर्तव्य औरअधिकार के संदर्भ में था| उनसे मिलता जुलता मत कई बार शिक्षक साथियों के साथ और कई बार बच्चों के साथ भी मैंने साझा किया लेकिन आज उनका लेख पढ़ते हुए या ख्याल आया कि इसे यहाँ भी साझा किया जाये| अशोक जी की अनुमति से पहले उनके लेख को मैं यहां रखता हूं और उसके बाद मैं अपनी टिप्पणी लिखूंगा| 

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स्कूल की बातें:

 

कुछ दिन पहले चाइल्ड राइट्स पर एक वर्कशॉप का हिस्सा होने का मौका मिला जहां फेसिलिटेटर सब पार्टिसिपेंट्स से चाइल्ड राइट्स की अवधारणा और जरूरत के बारे में प्रश्नों के जरिए एक चर्चा का माहौल बनाने की कोशिश में थी। 

 

वर्कशॉप में लगभग सभी प्रतिभागी शिक्षक ही थे।

 

नेसेसिटी ऑफ चाइल्ड राइट्स की बात सुनते ही वहां चर्चा में शामिल एक शिक्षिका ने प्रचलित मुहावरे "अधिकारों के साथ–साथ कर्तव्य भी बताने चाहिएं" को कोट करते हुए फैसिलिटेटर की टांग खींचने की कोशिश की।

 

फिलहाल मैं चर्चा में फैसिलिटेटर के उन सवालों के साथ उस शिक्षिका के कर्तव्य वाले स्टेटमेंट को कंपेयर करने की कोशिश में खोया हुआ था। मुझे भी यही लग रहा था कि इतनी देर से हम केवल बाल अधिकारों की ही बात किए जा रहे हैं, कर्तव्यों की बिल्कुल भी नहीं।

 

इसी कोशिश में मैं जिन बच्चों के साथ काम करता हूं उनके दैनिक जीवन के दृश्यों को देखने की कोशिश कर रहा था, जिनमें उन बच्चों से रोज पूछे जाने वाले कुछ सवाल क्रमशः इस तरह जेहन में आ जा रहे थे–

 

• सीधी लाइन में खड़े क्यों नहीं हो रहे तुम?

• टाई कहां है तुम्हारी?

• वर्दी क्यों नहीं पहन के आए?

• जूते कहां हैं तुम्हारे?

• कल एब्सेंट क्यों था?

• होमवर्क क्यों नहीं किया?

• झगड़ा क्यों करते हो?

• बाल बड़े क्यों हैं तुम्हारे?

• चुपचाप क्यों नहीं बैठते तुम?

• हर वक्त पानी–पेशाब ही क्यों जाना है तुम्हें?

 

इत्यादि–इत्यादि।

 

मैं जितने भी सवाल सोच पा रहा था वो सारे के सारे बच्चों को इनडायरेक्टली उन्हें डायरेक्ट करने वाले ही थे (कर्तव्य याद दिलाने वाले)। ऐसा एक भी सवाल या स्टेटमेंट मैं याद नहीं कर पा रहा था जिससे हम बच्चे को उसके अधिकारों के प्रति जागरूक करते हों।

 

धीरे–धीरे मैं यह समझ पा रहा था कि बच्चों को कर्तव्य बताने वाले लोग तो कदम–कदम पर खड़े हैं इसलिए इन्हें इनके अधिकार बताए जाने ही सबसे ज्यादा जरूरी हैं।

 

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पिछले कुछ वर्षों में अचानक ही गाहे-बगाहे यह सुनने को मिल जाता है कि अधिकारों की बात तो बहुत हो गई हमें कर्तव्यों के बारे में बातचीत करनी होगी और बच्चों को यह  सीखाना होगा कि सिर्फ अधिकार ही नहीं बल्कि कर्तव्य भी हैं| यह बात सुनने में बहुत आकर्षक लगता है और कई बार ठीक-ठाक  पढ़े-लिखे लोग भी इस “फलासी ऑफ़  कॉमन सेंस” का शिकार हो जाते हैं, और सहमति में हाँ में हाँ  मिलाने लगते हैं। समाजशास्त्रीय अध्ययन में माना गया है कि कॉमन सेंस इज नॉट सो कॉमन। और यह अक्सर समाज के प्रभुत्व संपन्न वर्ग के विचारधारा को कॉमन सेंस के रूप में प्रस्तुत करता है। हमें सिर्फ अधिकार ही नहीं अपने कर्तव्यों के बारे में भी सोचना चाहिए, ऐसा ही एक कॉमन सेंस है।

 

संविधान में अधिकार की अवधारणा इस संदर्भ में लाया गया है कि यह राज्य के शक्तियों पर एक अंकुश लगाएगा। पुलिस, सेना, प्रशासन, कानून बनाने की शक्ति इन तमाम बातों से राज्य के पास असीमित शक्ति आती है, जनता को मिला अधिकार असीमित शक्तियों पर कुछ नियंत्रण ला सकता है।

 

कर्तव्य और अधिकार के बीच के संघर्ष पर बारीक नजर रखने वाले लोग जानते हैं कि राज्य हमेशा अपने शक्तियों में विस्तार चाहता है और इसका नतीजा है कि वह संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों को लगातार कम और खत्म करना चाहता है। इसके उलट एक स्वस्थ लोकतांत्रिक समाज में अधिकारों को लगातार संरक्षण तथा उसे विस्तार दिया जाता है। “जीवन का अधिकार” को जिस तरीके से अलग-अलग समय पर न्यायालय ने व्याख्या किया है और शिक्षा के अधिकार को उसका हिस्सा बनाया, यह साबित करता है कि भारत में एक जीवंत लोकतांत्रिक प्रणाली है जो राज्य के किसी ऐसे कोशिश जिसके जरिए वह अधिकारों को सीमित करना चाहता है, को चुनौती देता है।

 

राज्य के शक्तियों के सामने जनता असहाय है, यह संविधान प्रदत अधिकार ही है जो उसे राज्य की शक्तियों के सामने टिके रहने का भरोसा देता है। रही बात कर्तव्यों की, परिवार, समाज और संस्कृति पहले से ही अनगिनत कर्तव्यों के बोझ से लोगों को बांधे रखता है। स्कूलों के संदर्भ में किस प्रकार हर वक्त बच्चों को उनके कर्तव्यों के बारे में याद दिलाया जाता है इसका जिक्र अशोक जी ने अपने लेख में बखूबी किया है। 

भारत जैसा देश जहां एक बड़ी आबादी गरीब और कमजोर है, जो दयनीय जीवन जीने के लिए मजबूर है, उन्हें राज्य द्वारा कर्तव्यों का याद दिलाया जाना अनुचित है। पारिवारिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कर्तव्यों से वे पहले ही जकड़े हुए हैं। गैर बराबरी के सिद्धांत पर संगठित हमारा सामाजिक व्यवस्था पहले से ही पद सोपान में अपने से नीचे वाले व्यक्तियों को लगातार कर्तव्यों के बोझ से बांधे रखता है, ऐसे में राज्य अगर आम लोगों के लिए कुछ करना चाहता है तो वह सिर्फ उन्हें उनके अधिकारों के बारे में बताए! 

 

वैसे तो राज्य की शक्तियों के सामने प्रत्येक व्यक्ति की शक्ति बहुत ही सीमित है, और ऐसे में उन्हें संविधान प्रदत अधिकार ही उनकी रक्षा करता है, लेकिन अगर कर्तव्य की याद दिलाना ही है तो यह उन बच्चों को या समाज के उन वर्गों तक सीमित होना चाहिए जिनके अंदर “सेंस ऑफ एनटाइटलमेंट” डेवलप हो गया है।