बच्चों मे फोन की आदत: अभिभावकों और शिक्षकों की चिंताएँ
कल दिल्ली के सरकारी स्कूलों में मेगा पीटीएम का आयोजन किया गया! स्कूलों में यह बहुत खास मौका होता है और लगभग उत्सव जैसा माहौल रहता है। स्कूल ड्रेस पहनकर ही स्कूल आना है, शिक्षक के इस हिदायत के बावजूद बच्चे रंग-बिरंगे कपड़ों में अपने अभिभावक को लेकर स्कूल आते हैं। जिन बच्चों को अपने शिक्षक से तारीफ सुनने की अपेक्षा रहती है, वे अपने अभिभावक को सभी अध्यापकों के पास लेकर जाते हैं, और जिन्हें इस बात का डर रहता है कि शिक्षक मां-बाप को शिकायत करेंगे, वे किसी तरह अपने अभिभावक को क्लास टीचर से मिलवाकर, छुपते-छुपाते उन्हें लेकर बाहर निकल जाते हैं।
अभिभावकों के स्वागत के लिए जगह-जगह सजावट की हुई होती है, कक्षाओं को सजाया जाता है, चाय-बिस्कुट की व्यवस्था होती है, और वालंटियर बच्चे लगातार अभिभावकों को गाइड करते रहते हैं कि उन्हें कौन से शिक्षक किस कमरे में मिलेंगे। क्योंकि अभिभावकों के पास फोन होता है, तो कुछ बच्चे मौके का फायदा उठाकर स्कूल में अपनी कुछ तस्वीरें उतार लेते हैं।
मेरे पास भी अभिभावकों से बात करने और शिक्षकों के साथ उनकी बातचीत सुनने का मौका था। एक शिकायत जो लगभग सभी अभिभावक शिक्षकों से कर रहे थे, वह थी कि बच्चे फोन बहुत देखते हैं, और जब-जब वे उन्हें ऐसा करने से रोकते हैं, तो उनका बहाना होता है कि स्कूल से काम आया है।
शिक्षक इस सवाल का कई तरह से जवाब देते थे और इस बात से इनकार करते थे कि स्कूल की तरफ से बच्चों को फोन पर कोई काम भेजा गया है। लेकिन यह सवाल सिर्फ सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के मां-बाप का नहीं है। शिक्षकों का भी यह अनुभव है कि उनके बच्चे भी बहुत फोन देखते हैं।
यह समस्या सिर्फ बच्चों तक सीमित नहीं है। इस क्षेत्र में जो शोध हुए हैं, वे बताते हैं कि फोन बनाने वाली कंपनियां इस बात का बहुत ध्यान रखती हैं कि कैसे ज्यादा से ज्यादा समय लोग फोन देखने में लगाएं। औसतन हर व्यक्ति करीब 6 घंटे फोन देखता है। फोन और उसके ऐप को ऐसे डिजाइन किया गया है कि वह आपके ध्यान को अपनी ओर खींचे। उदाहरण के लिए, जब आप किसी सोशल मीडिया साइट पर होते हैं, तो आपको दिखाया जाता है कि आपका कोई दोस्त टाइप कर रहा है, और आप तब तक वहां से नहीं हटते हैं जब तक टाइप किया हुआ शब्द आपके सामने न आ जाए।
फोन एप के जरिए हम तक विभिन्न तरह की सुविधा पहुंचाने वाली कंपनियां इस बात पर बहुत पैसे खर्च करती हैं कि कैसे यूजर्स का अधिक से अधिक समय वे ले सकें। इसके पीछे मकसद यह होता है कि उपयोगकर्ता के बारे में वे ज्यादा से ज्यादा जानकारी जुटा सकें ताकि वह उपयोगकर्ता के बारे में सटीक प्रेडिक्शन कर सकें। और प्रेडिक्शन करने की इस क्षमता के लिए बाजार में उन्हें बहुत पैसे मिलते हैं। नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध डॉक्यूमेंट्री 'सोशल डिलेमा' में इसे समझाया गया है। इस क्षेत्र की एक मशहूर शोधकर्ता सूजाना ज़ूबॉफ इसे 'माइनिंग ऑफ ह्यूमन इमोशन्स' कहती हैं।
यह सवाल कि बच्चा बहुत अधिक फोन देखता है, इसका उत्तर शायद यह नहीं हो सकता कि हम उपाय बताएं कि वह फोन कैसे कम देखे। फोन एक हेजेमोनिक टेक्नोलॉजी है, यानी कि एक ऐसी टेक्नोलॉजी जो आपके पास विकल्प नहीं छोड़ती। उदाहरण के लिए, गर्मी के महीने में गर्म प्रदेशों में आपको गर्मी नहीं लगे यह संभव नहीं है, हां गर्मी कम करने के आप तमाम उपाय जरूर कर सकते हैं। और उन तमाम उपायों में सबसे बेहतर होता है गर्मी के साथ जीना सीखना।
फोन हमारे जीवन का हिस्सा बन चुका है, लगभग हमारे किसी अंग की तरह, और आने वाले समय में शायद यह बना रहेगा। बच्चों के विकसित होते मस्तिष्क पर फोन के अधिक इस्तेमाल का क्या असर होता है, इस संबंध में कई शोध हो रहे हैं, और ज्यादातर शोध में इसे नुकसान पहुंचाने वाला माना गया है। शोध के इस निष्कर्ष से फोन के इस्तेमाल की हमारी आदत कम होने की संभावना बहुत कम है। एकमात्र उपाय जो मुझे नजर आता है, वह है मनुष्यों में अनुकूलन की अद्भुत क्षमता। शायद हम सब और हमारे बच्चे भी इस नई टेक्नोलॉजी के साथ बेहतर तरीके से जीना सीख जाएंगे।
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