शिक्षा साहित्य: एक अध्ययन और चिंतन

  शिक्षा साहित्य: एक अध्ययन और चिंतन

Posted on: Sun, 04/21/2024 - 10:28 By: admin
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                             शिक्षा साहित्य: एक अध्ययन और चिंतन

 

मार्च के आखिरी सप्ताह में अदिति महाविद्यालय एवं कथा मंच द्वारा आयोजित दो दिवसीय कार्यशाला “धुन पढ़ने की” में शामिल होने का मौका मिला! चंदन झा जी के साथ मिलकर वहां उपस्थित कॉलेज के छात्र एवं शिक्षकों से हमने अपने मुहिम “रीड विद अ टीचर” के बारे में बातचीत की। शिक्षा के क्षेत्र काम करने वाले लोगों के साथ जब बातचीत करता हूं तो यह सवाल पूछता हूं कि क्या वे वाकिफ हैं कि भारत में कितने बच्चे स्कूल में हैं और उन्हें कितने शिक्षक पढ़ा रहे हैं? लोग कुछ अंदाजा लगा पाते हैं। बहरहाल भारत में करीब करीब 28 करोड़ बच्चे स्कूल में पढ़ते हैं और उनको पढाने वाले शिक्षकों की संख्या करीब 1 करोड़ है। 

 

सवाल है कि इतनी बड़ी संख्या में जिस कार्य से लोग जुड़े हुए हैं उनके लिए साहित्य का निर्माण कौन कर रहा है? क्या हम भारत में ऐसे 10 व्यक्ति को जानते हैं जो लगातार शिक्षा साहित्य में अपना योगदान दे रहे हैं या लिख रहे हैं? शिक्षा साहित्य से मेरा मतलब है जो स्कूल, विद्यार्थी, शिक्षक, परीक्षा व्यवस्था, पाठ्यक्रम इत्यादि के बारे में बात करता हो। 10 व्यक्तियों का नाम गिनना मेरे लिए भी कठिन है। अगर लोकप्रिय साहित्य की बात करें शिक्षा के क्षेत्र में तो कृष्ण कुमार से आगे हम कुछ सोच ही नहीं पाते हैं। हां शिक्षा से संबंधित शोध के विषय में विश्वविद्यालय के स्तर पर कुछ दर्जन भर लोग काम कर रहे हैं और अपने शोध को वे प्रकाशित करते हैं लेकिन शिक्षकों से, बच्चों से कौन संवाद कर रहा है? वे साहित्य कहां है? और उसके रचने वाले कहां हैं। 

यह सवाल पूछा जा सकता है कि जरूरत क्या है साहित्य की, सब ठीक ही तो चल रहा है? 

 

वास्तविकता यह है कि सब ठीक नहीं चल रहा है। बच्चे क्या और शिक्षक क्या, एक घुटन है, एक 8 साल की बच्ची जो तीसरी क्लास में पढ़ती है, उसका  पिता यह देखकर हैरान हैं कि कैसे बच्ची के स्कूल के साप्ताहिक कैलेंडर में खेल के लिए सिर्फ एक पीरियड दिया गया है, सप्ताह में एक बार। 10-11 वर्ष के उम्र के बच्चे जो पांचवी क्लास में हैं, उन्हें अपनी पढ़ाई के लिए खुद जिम्मेदार माना गया है और अगर वह दिए हुए पैमाने पर खड़ा नहीं उतरता है तो उसे फेल कर दिया जाता है और उसे एक ही कक्षा में दोबारा एक वर्ष गुजारने के लिए मजबूर किया जा रहा है, शिक्षकों को भांति-भांति के गैर अकादमिक कार्य के लिए विवश किया जाता है। देश के बड़े हिस्सों में राज्यों द्वारा तय न्यूनतम मजदूरी से कम वेतन पर लाखों शिक्षक काम करने को मजबूर हैं।

 

साहित्य एक सामूहिक पहचान देती है। बच्चों और शिक्षकों को अगर मिला दें तो करीब करीब 30 करोड़ की आबादी वाले इस समूह के पास किसी तरह की आवाज नहीं है। जो मर्जी नियम-कानून इनके ऊपर थोपा जा सकता है। और इसके पीछे वजह है कि इनका कोई साहित्य नहीं है। दलित साहित्य दुनियाभर के दलितों को एक सामूहिक पहचान देता है, उनकी आवाज को धार देता है। स्त्री साहित्य ने दुनिया भर में स्त्रियों के सामूहिक पहचान, उनकी ज़रूरतें और अधिकारों को प्रमुखता से रेखांकित किया है। इन 30 करोड़ लोगों के लिए कौन साहित्य लिख रहा है?

 

यहां एक सहज सा सवाल आता है, कि जो साहित्य उपलब्ध है, उसे पढ़ कौन रहा है? स्कूली शिक्षा में काम करने वाले लोगों से आप पूछ कर देखिए, ऐसे लोग आपको लाखों में एक मिलेंगे, जिन्होंने शायद शिक्षा साहित्य की एक दर्जन किताबें पढ़ी हों। अधिकतर मामलों में अपने पूरे करियर में लोग एक भी किताब शिक्षा साहित्य की पढ़े बिना अपना कार्यकाल गुजार देते हैं।

 

इसी पृष्ठभूमि में, हमने ‘रीड विद अ टीचर” की कल्पना की जो मुख्य तौर पर शिक्षा साहित्य के किताबों को पढ़ने का कार्यक्रम है। पिछले तीन वर्षों में हमने करीब 50 शिक्षा साहित्य से जुड़ी हुई किताबें अपने शिक्षक साथियों के साथ मिलकर पढ़ी हैं। हम मान कर चलते हैं, की शिक्षा साहित्य पढ़ने वालों का एक समूह अगर तैयार हो जाता है, तो साहित्य निर्माण करने वाले लोग भी सामने आएँगे। और इस तरह के काम के लिए एक धुन तो चाहिए।

 

कार्यशाला में हमें कुछ और ऐसे लोगों से मिलने का मौका मिला, जो पढ़ने-लिखने के धुन में रमे हुए हैं। चेनाब हिल्स में किताब घर चलाने वाली अर्पणा चंदेल की कहानी पढ़ने-लिखने वाले सभी लोगों के लिए एक मिसाल है। लोकतांत्रिक स्कूल के सपने को जमीन पर सच करते हुए मुकेश जी के उमंग की कहानी किसी भी शिक्षक के रगों में जोश भर सकता है। कथा मंच के संस्थापक श्री विजय जी का मैं धन्यवाद करता हूँ कि उन्होंने इतने शानदार कार्यक्रम का आयोजन किया और उससे भी बड़ी बात की इतना शानदार शीर्षक चुना।