सामाजिक पहचान और राजनीति: विभाजन से समरसता की ओर
राजनीति की दुनिया में होने वाली उथल-पुथल का सामाजिक विज्ञान के कक्षाओं से सीधा रिश्ता होता है। हालांकि इन विषयों पर टिप्पणी करना बहुत कठिन होता है, और अमूमन शिक्षक इन विषयों से बचकर निकल जाने की कोशिश करते हैं। इसकी मुख्य वजह उनके ऊपर लेबल लगाए जाने का होता है, उन्हें किसी खास पहचान, समूह या वर्ग के साथ जोड़कर उनकी बातों को कमजोर कर दिया जाता है। फिलहाल फिर भी मैं एक कोशिश करता हूँ। इस संदर्भ में पिछले सप्ताह हुई घटना का जिक्र करना महत्वपूर्ण है।
बिहार में जातिगत जनगणना संपन्न हुई है, और इस संबंध में वहां की सरकार ने आंकड़े जारी किए हैं। साथ ही इस बात को लेकर केंद्र सरकार पर जबरदस्त दबाव बनाई जा रही है कि पूरे देश में जातिगत जनगणना की जाए, और उसके आंकड़े सार्वजनिक किए जाएं। सरकारें समय-समय पर अलग-अलग तरह की गणना करवाती रहती हैं। नीतियों के निर्धारण में इन गणनाओं से प्राप्त जानकारी से सहयोग मिलता है और लक्षित समूह तक सरकारी सुविधाओं को पहुंचाने में मदद मिलती है। इस संदर्भ में जातिगत जनगणना महत्वपूर्ण हो सकता है।
समस्या इसके व्याख्या को लेकर है। कई विपक्षी नेता और खासकर मुख्य विपक्षी नेता आजकल एक बहुत ही प्रचलित जुमले का इस्तेमाल करते हैं, "जिसकी जितनी आबादी उसका उतना हक"! क्या सत्ता पक्ष से अलग हटकर वे कुछ कह पा रहे हैं? यही बात तो सत्ता पक्ष शुरू से कह रहा है, यही जुमला वे धर्म को आधार बनाकर कह रहे हैं और विपक्ष, ने जाति को आधार बनाया है। दसवीं कक्षा की राजनीति विज्ञान की किताब में हम लोग "सामाजिक विभाजन की राजनीति" बच्चों को पढ़ाते हैं और वहां विस्तार से इन बातों के बारे में बताया जाता है कि किस प्रकार जाति और धर्म को आधार बनाकर एक समुदाय को दूसरे समुदाय से बांटने की कोशिश हमारे देश में होती आ रही है। मसलन किताब इस संदर्भ में बच्चों को सचेत करती है, साथ ही सामाजिक विभाजन की राजनीति से निपटने का उपाय बताती है। तमाम उपायों में, "एक से अधिक पहचान (Multiple Identity)" के प्रति जागरूकता सबसे अधिक कारगर माना जाता है।
हम सब की एक से अधिक पहचान है। कक्षा में इस संदर्भ में बच्चों के साथ गतिविधि करवाते हुए हम पाते हैं, कि बच्चे 5 मिनट की गतिविधि में 20 से 30 पहचान को लिख पाते हैं। इस गतिविधि में बच्चों के लिए अगला निर्देश होता है कि वे तीन मुख्य पहचान को चिन्हित करें, फिर वह अपने बगल में बैठे हुए साथियों के साथ अपने नोटबुक को बदल लें और पाते हैं कि जिन तीन मुख्य पहचान को उन्होंने चिन्हित किया है, कई बार उनके साथियों ने उनसे अलग हटकर किसी और पहचान को मुख्य पहचान माना है। कुल मिलाकर इस गतिविधि का मकसद यह होता है कि हम सब की "एक से अधिक पहचान है"। हम सब की नजरों में हमारे पहचान की अहमियत जगह और समय के हिसाब से बदलता रहता है, और इसलिए किसी एक पहचान को आधार बनाकर दूसरी पहचान के लोगों के साथ नफरत करना, सामाजिक विभाजन की राजनीति को बढ़ावा देता है।
स्वतंत्रता के समय उन हजारों लोगों ने जिन्होंने इस देश के लिए कुर्बानियां दी, जिनके आंखों में इस देश को एक राष्ट्र के रूप में उभरते देखने का सपना था, पहचानों पर आधारित राजनीति क्या हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के उन सपनों का गला नहीं घोंटता है? क्या राष्ट्र के रूप में उभरने और एक मजबूत राष्ट्र के रूप में दुनिया के पटल पर पहचान बनाने के हमारे सपने पूरे हो चुके हैं? अंतरराष्ट्रीय खेल, व्यापार, विज्ञान, और शोध के क्षेत्र में बिना मजबूत राष्ट्रीय पहचान के क्या हम कुछ हासिल कर पाएंगे? सामाजिक विभाजन की राजनीति, हमारे राष्ट्रीय पहचान के सामने एक बड़ी चुनौती है। इसका प्रदर्शन चाहे सत्ता पक्ष करे या विपक्ष हमें अपनी नज़रें खुली रखनी होगी । हमें उन तमाम उपायों के बारे में फिर से सोचना होगा जो राष्ट्र के रूप में हमारे सामूहिक पहचान को मजबूत बनाता है। निश्चित रूप से सब की भागीदारी एक मजबूत राष्ट्र की नींव बनती है, इसे सुनिश्चित करने के लिए हमें और बेहतर तरीके सोचने होंगे। वे तमाम उपाय जो जातिगत, धार्मिक और क्षेत्रीय पहचान को मजबूत बनाता है, सामूहिक राष्ट्रीय पहचान में बाधक सिद्ध हो सकता है। "जिसकी जितनी आबादी उसका उतना हक" के जुमले के लिए अगर एक पक्ष पर विभाजनकारी राजनीति करने का आरोप लगाया जा सकता है, तो यही जुमला दूसरे पक्ष के लिए सामाजिक समरसता की राजनीति कैसे हो सकता है? दरअसल, इसे "लॉजिकल फालेसी" अर्थात तार्किक भ्रम कहते हैं।
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