समाजिक सुरक्षा में पुरानी पेंशन व्यवस्था की महत्वपूर्ण भूमिका
आज दिल्ली की रामलीला मैदान में बड़ी संख्या में देशभर से लोग इकट्ठा हुए हैं और पुरानी पेंशन व्यवस्था को फिर से बहाल करने की मांग कर रहे हैं। इन सरकारी कर्मचारियों में एक बड़ी संख्या शिक्षकों की है, और इस आंदोलन से उनका सीधा-सीधा वास्ता है। वैसे गौर किया जाए तो शिक्षकों के हित के मामले संपूर्ण समाज के हित का मामला है।
पुरानी पेंशन व्यवस्था को हटाने के पीछे यह तर्क गढ़ा गया कि इसकी वजह से सरकार के ऊपर वित्तीय दबाव बढ़ता है और 2004 में एक झटके में देश के करोड़ों सरकारी कर्मचारियों को उनके हक से बेदखल कर दिया गया। "वित्तीय दबाव" एक निरपेक्ष शब्द है जिसकी व्याख्या अपनी सहूलियत से सरकारें करती आई है। गौर से देखने पर यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है कि सरकारी खजाने पर वित्तीय दबाव के रूप में पुरानी पेंशन व्यवस्था को प्रायोजित करने के पीछे एक गहरा कॉरपोरेट और मीडिया संगठनों का षड्यंत्र रहा है।
यही संस्थान कॉरपोरेट टैक्स के नाम पर जब चाहे सरकारों को अपनी बातें मनवाने पर मजबूर कर देती है। यह पूरा मामला वस्तुतः नॉरेटिव से जुड़ा हुआ है। नव उदारवादी शक्तियां पिछले 2 दशकों में लाखों करोड़ रुपए बैंकों से उधार लेकर उसे चुकाने से इनकार कर चुकी हैं। कॉरपोरेट टैक्स के नाम पर इन्हें भारी छूट मिलती है, और उनके द्वारा पोषित मीडिया संस्थान जब कर्मचारी पुरानी पेंशन बहाली को लेकर आंदोलन करती है तो उसके दुष्प्रचार में लग जाती है कि इससे सरकारी खजाने पर बोझ बढ़ेगा।
10 लाख से अधिक आमदनी वाले कर्मचारी 30% के दर से आयकर भरते हैं वहीँ करोड़ो की कमाई करने वाले कॉर्पोरेट संस्थान सिर्फ 25% की दर से आयकर भरते हैं इसमें भी उनके लिए कई तरह के छूट की प्रावधान है, जैसे कि कहीं आना-जाना, खाने का खर्चा, किराए का खर्चा, इंटरनेट का खर्चा, इत्यादि वे अपने खर्चे के रूप में दिखा सकते हैं और इस तरह ज्यादातर कंपनी न के बराबर आयकर सरकार को देते हैं। अगर 10 लाख की आमदनी वाले कर्मचारी 30% के दर से आयकर भर सकते हैं तो क्यों ना कॉरपोरेट टैक्स को 40% कर दिया जाए जो अभी फिलहाल 25% है। और इस तरह पुरानी पेंशन पर आने वाले खर्च का हल भी निकल जाएगा। रिजर्व बैंक के अनुसार पिछले 5 वर्षों में करीब साढ़े दस लाख करोड़ रुपये के लोन बट्टे खाते में डाल दिया गया है। लेकिन मीडिया संस्थान ये बातें नहीं बताएंगी क्योंकि हर मीडिया संस्थान एक कंपनी है और उनके मुनाफों पर उन्हें भी सिर्फ 25% टैक्स ही भरना पड़ता है और वह चाहेंगे कि इसे और कम किया जाए और वह क्यों भला सरकारी कर्मचारी की पुरानी पेंशन की वकालत करें।
पेंशन एक अनिवार्य सामाजिक सुरक्षा का हिस्सा है और न सिर्फ सरकारी कर्मचारी, बल्कि देश के प्रत्येक नागरिक के लिए इसकी मांग की जानी चाहिए। सरकारी कर्मचारियों के लिए इसकी अहमियत इसलिए और ज्यादा है कि सरकार के तमाम कार्यों को संपादित करने में उनकी बड़ी भूमिका होती है और सभी चाहेंगे कि बेहतर व्यक्ति सरकारी नौकरी में आयें, पुरानी पेंशन उनके लिए एक बेहतर आकर्षण सिद्ध हो सकता है। बेहतर लोगों को शिक्षक के पेशे की तरफ आकर्षित करने को लेकर नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति कहती है कि हमें इस पेशे में मेधावी लोगों को आकर्षित करने की जरुरत है। पुरानी पेंशन की व्यवस्था इस दिशा में एक बेहतर कदम साबित हो सकती है।
कुछ राज्यों ने इस मामले में बेहतरीन पहल की हैं और यह जरूरी है कि देश के अन्य राज्य भी पुरानी पेंशन व्यवस्था को लागू करें और साथ मिलकर केंद्र सरकार पर भी दबाव बनाएं कि सभी सरकारी कर्मचारियों के लिए अनिवार्यत: पुरानी पेंशन व्यवस्था लागू की जाए। वित्तीय दबाव पूर्णतः प्रायोजित बहस है जिसे सिरे से खारिज कर देना चाहिए। कर्मचारियों का भविष्य जब सुरक्षित होगा तो वह बेहतर कार्य क्षमता के साथ काम कर सकेंगे। हाल ही में देश कोरोना जैसे भीषण महामारी से बाहर निकला है, अग्रिम पंक्ति में खड़े होकर देश को इस संकट से जूझने में मदद करने वाले कोई और नहीं सरकारी कर्मचारी थे, हजारों लोगों ने अपनी जान गवाई है, क्या उनके बलिदान और आने वाले पीढ़ी के एक बेहतर भविष्य को सुरक्षित करने के लिए हमें पुरानी पेंशन की मांग को लेकर संकल्प लेने की आवश्यकता नहीं है! याद रखिए वित्तीय दबाव एक प्रायोजित तर्क है और इसे चुनौती दिए जाने की जरुरत है।
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