शिक्षा के मुद्दों को जनता तक पहुंचाया
इस सप्ताह रवीश कुमार द्वारा एनडीटीवी से इस्तीफा देने की बात खबरों में बनी रही। अपने-अपने राजनीतिक चश्मे से लोग उनकी पत्रकारिता और उनकी शख्सियत को आंकते हैं। और इसी आकलन को आधार बनाकर वे इस इस्तीफे पर या तो खुश हैं या गमगीन है। आम जीवन से जुड़े मुद्दों से अपने आप को जोड़कर देखने वाले लोगों के लिए वे राजनीतिक सीमाओं से बाहर मुख्यधारा के हिंदी मीडिया के एकमात्र ऐसे पत्रकार थे जिसने लोगों के दैनिक जीवन की व्यथाओं को टीवी के मायावी दुनिया में एक जगह दी।
इस लेख में उनके द्वारा शिक्षा के मुद्दे पर की गई पत्रकारिता के बारे में कुछ बातें साझा करूंगा। शिक्षा जैसे मुद्दे मुख्यधारा की मीडिया से या तो गायब रहते हैं या बहुत ही उलूल-जुलूल जरूर तरीके से उसे दिखाया जाता है। जैसा कि अक्सर आप खबरों में पढ़ते होंगे "फलाने स्कूल के टीचर को स्पेलिंग नहीं आती है" "शराब पीकर टीचर स्कूल पहुंचा" "स्कूल का छत गिर गया" और ऐसे ही अनगिनत वाहियात खबर! इस तरह की पत्रकारिता का मुद्दों से कोई लेना देना नहीं होता है। यह सिर्फ एक सनसनीखेज खबर होता है जो पाठकों का या तो मनोरंजन करता है या थोड़ी देर के लिए उनकी भावनाओं को जागृत करता हैं। इन खबरों का मकसद पाठकों को मुद्दे के साथ जोड़ने का नहीं होता है। मीडिया की ऐसी पृष्ठभूमि में रवीश कुमार एकमात्र ऐसे पत्रकार थे जो शिक्षा के मुद्दों के आसपास रची गई छिछली पत्रकारिता की परत को तोड़कर एक गंभीर बहस का मुद्दा बनाया।
शिक्षा के जगत से जुड़े लोग इसकी समस्याओं से वाकिफ है लेकिन उनकी समस्या यह है की आम लोगों से संवाद स्थापित करने के लिए ना तो उनके पास भाषा है और ना ही माध्यम। अक्सर बंद कमरों में आयोजित सभागारों में कुछ सौ पचास लोगों के बीच वे अपनी बात रखते हैं और उनकी बातें अमूमन वहीँ सिमट कर रह जाती है। उनके लेख प्रतिष्ठित जर्नल में छापे जाते हैं। दुनियाभर से सौ-पचास लोग उसे पढ़ते हैं और उसे पढ़कर एक नए लेख का संदर्भ बना लेते हैं और इस तरह शिक्षा जगत से जुड़ी हुई समस्याएं एक बहुत ही खास लोगों के मध्य सीमित होकर रह जाती है!
शिक्षा से जुड़े मुद्दों पर समझ बनाने और उसे जनता के साथ संवाद स्थापित करने में बड़ी भूमिका पत्रकारों की होती है। सेंसेशनल खबर की शिकार हो चुकी पत्रकारिता अब अपनी इस जिम्मेदारी को भूल चुकी है। रवीश कुमार एकमात्र ऐसे पत्रकार रहे हैं जिन्होंने शिक्षा जैसे बोरिंग समझे जाने वाले मुद्दों को भी कई दिनों तक अपने प्राइम टाइम का हिस्सा बनाया! पहली बार लोग यह समझ सके कि उनके कस्बे में जो कॉलेज है उसमें पिछले 20-30 साल से अध्यापकों की नियुक्ति ही नहीं की गई है। पढ़ाई -लिखाई नहीं होने की वजह शिक्षक नहीं बल्कि सरकारी व्यवस्था का सुस्तीपन है। पटना विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग पर किया गया उनका रिपोर्ट कितना मार्मिक था, बताया गया कि एक शिक्षक 800 बच्चों को पढ़ा रहे हैं।
तमाम महत्वपूर्ण मुद्दों पर जिसमें शिक्षा के मुद्दे भी शामिल है जनता से संवाद स्थापित करने की भूमिका राजनीतिक व्यक्तियों की भी होती है लेकिन दुर्भाग्यवश हमारे देश की राजनीतिक परंपरा ऐसा रूप धारण कर चुकी है जहाँ शिक्षा जैसे मुद्दे अमूमन राजनीतिक विमर्श से बाहर ही रखा जाता है। हाल के वर्षों में इसको लेकर कुछ ठोस प्रयास शुरू हुए हैं लेकिन अभी भी राष्ट्रीय स्तर पर यह राजनीतिक विमर्श का मुख्य विषय बन चुका है, ऐसा नहीं माना जा सकता है।
इस पृष्ठभूमि में रवीश कुमार के द्वारा शिक्षा के मुद्दे पर किए गए कार्यक्रम को शिक्षा से जुड़े एक व्यक्ति के रूप में मैं बहुत ही मिस करूंगा। मैं मानता हूं कि अलग-अलग माध्यमों से वह जनता से जुड़ेंगे लेकिन आज भी एक बड़ी आबादी टीवी न्यूज़ चैनल को देखती है वहां आम लोगों के मुद्दों पर पत्रकारिता करने वाले शायद रवीश आखरी पत्रकार थे।
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