तलाशनी होगी 'फेल करने' से आगे की मंजिल!
करीब 100 वर्ष पहले 1931 में दिवा स्वप्न में गिजुभाई लिखते है।
…परीक्षा का दिन आया। अधिकारी महोदय ने सब कक्षाओं की परीक्षा ले ली। आज मेरी कक्षा की बारी थी। हमारी शर्त के अनुसार स्वयं उन्हीं को परीक्षा लेनी थी। उन्होंने हंसकर कहा, "लक्ष्मीशंकरजी, मैं तुम्हारी कक्षा की परीक्षा न लूंगा। तुम्हारी कक्षा के सब छात्रों को मैं ऊपर की कक्षा में चढाता हूं।"
मैंने कहा, "जी नहीं, यह नहीं हो सकेगा। ऐसा करने से मेरे कुछ विद्यार्थियों के साथ न्याय ना होगा।" डायरेक्टर साहब ने पूछा, "यानी उनके साथ अन्याय होगा।" मैंने कहा, "जी हां; जो चढ़ाने लायक नहीं हैं, उन्हें मैं ऊपर नहीं चढ़ा सकता।"
डायरेक्टर बोले, "लेकिन मुझे दिख रहा है कि तुमने सब को भलीभांति पढ़ाया है और तुम्हारी यह पढ़ाई मुझे मंजूर है।" मैंने कहा, जी आप ठीक कहते हैं; लेकिन मेरी पद्धति का असर सब पर एक सा तो नहीं होता। किसी किसी छात्र का तो वह स्पर्श तक नहीं कर पाई है। वह कोरे और अछूते ही रह गए हैं।"
डायरेक्टर साहब ने पूछा, "तो उनके लिए तुमने क्या सोचा है?" मैंने कहा, "जी उनमें से किसी किसी को तो पाठशाला ही छोड़ देनी चाहिए। राघव नाई का लड़का इतिहास, भूगोल या गणित का जीव नहीं है। वह इस पाठशाला के वातावरण में उद्विग्न रहता है। पर वह इतना चलता-पुर्जा है कि सौ नाइयों का सेठ बनकर हजामत की एक बड़ी सी दुकान खोल सकता है। उसे हजामत में कुशलता प्राप्त करने 'सलूनों' की व्यवस्था सीखने के लिए बंबई भेजना चाहिए।" डायरेक्टर साहब ने कहा, "अच्छा और कौन-कौन है जो पाठशाला के लिए अयोग्य हैं?" मैंने कहा, "जी वे पाठशाला के लिए अयोग्य नहीं हैं बल्कि पाठशाला उनके लिए अयोग्य है। जिस काम के वे लाइक हैं, शाला उन्हें वह काम सिखाती नहीं।"
करीब 100 वर्ष बाद और आजादी प्राप्त हुए 75 वर्षों के बाद भी गिजुभाई की कक्षा में उठाए गए इस सवाल का कोई ठोस उत्तर अभी तक प्राप्त नहीं हो पाया है। इस बीच भारत में तीन बार शिक्षा नीति, 1968, 986 और 2020 में लायी जा चुकी है । "यह बच्चा पढ़ने लायक नहीं है" आज भी शिक्षकों के विमर्श में प्रमुखता से छाया रहता है। जिन बच्चों के लिए यह बात कही जाती है समाज के पारंपरिक सत्ता आधारित ढांचे के अंतर्गत वह आखरी पायदान पर खड़ा होता है उसके लिए सुनवाई की कोई खास गुंजाइश नहीं होती है। अपने लिए कहे जाने वाले इस वाक्य को आत्मसात कर लेने के अलावा उसके पास कोई ज्यादा विकल्प उपलब्ध नहीं होता है।
लेकिन जैसे ही हम शब्दों के वाक्य संरचना में थोड़ा सा परिवर्तन करते हैं और बच्चों को अयोग्य ठहराने की जगह शिक्षा संस्थानों को अयोग्य ठहराने लगते हैं तो सवाल व्यवस्था पर उठ जाते हैं, सवाल शिक्षा की नीतियों पर खड़े हो जाते हैं …..और यह सवाल उठाना आसान नहीं होता है।
लेकिन इस समस्या का समाधान इन सवालों के रास्ते ही निकल सकता है। औपचारिक शिक्षा व्यवस्था के अंतर्गत फेल कर देना या फेल हो जाना जैसे शब्दों का प्रचलन अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। इन शब्दावली में व्यापक परिवर्तन की आवश्यकता है। औपचारिक शिक्षा व्यवस्था की कुछ अपनी सीमाएँ हैं। इसमें लचीलेपन की कोई खास जगह होती नहीं है।
लेकिन नीतिगत स्तर पर हमें औपचारिक और अनौपचारिक शिक्षा व्यवस्था के बीच की खाई को मिटाना होगा। जिसे वैकल्पिक शिक्षा माना जाता है उसे मुख्यधारा की शिक्षा के एक हिस्से के रूप में देखे जाने की जरूरत है। बच्चा चाहे तो औपचारिक शिक्षा व्यवस्था के माध्यम से शिक्षा की सीढ़ीनुमा तंत्र में आगे बढ़ता रहे और साथ ही अगर वह चाहे तो वैकल्पिक शिक्षा के माध्यम से भी उन डिग्रियों को हासिल करने की पात्रता रखें जिसे औपचारिक शिक्षा के माध्यम से हासिल किया जाता है।
हमारे देश में ऐसे प्रयोग होते भी रहे हैं। 1970 के दशक में मध्य प्रदेश के जिला होशंगाबाद में विज्ञान शिक्षण के संबंध में ऐसे प्रयोग किए गए हैं। उस समय मध्य प्रदेश शिक्षा बोर्ड ने होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम के अंतर्गत पढ़ने वाले बच्चों के लिए अलग से मूल्यांकन करने की व्यवस्था की थी।
अब बात करते हैं एक ऐसे सफल मॉडल की जिसने औपचारिक शिक्षा व्यवस्था द्वारा असफल करार दे दिए गए बच्चों के हुनर को तराश कर उन्हें एक बेहतर जीवन जीने का नया रास्ता दिखाया है।
आईआईएम अहमदाबाद से पढ़ने के बाद,1996 में रवि गुलाटी, 'मंजिल' से सफर की शुरुआत करते हैं। यह एक ऐसे स्पेस के रूप में उभरता है जहाँ बच्चे एक दूसरे को सीखने में मदद करते हैं। करीब 25 वर्ष बाद, हजारों युवा मंजिल के माध्यम से अपने हुनर को तलाश कर आज एक बेहतर जीवन जी पा रहे हैं और इस मिशन को आगे बढ़ा रहे हैं।
आज 'मंजिल' से दर्जनों संगठन उसकी शाखा के रूप में बाहर निकले हैं जो युवाओं को अलग-अलग क्षेत्र में अपने हुनर को तराशने और एक बेहतर कैरियर बनाने का मौका दे रहा है। हम में से अधिकतर लोग 'मंजिल मिस्टिक्स' के बारे में जानते हैं। संगीत की दुनिया में अलग-अलग प्रयोगों के लिए 'मंजिल मिस्टिक्स' जाना जाता है। कल मुझे कुछ और संगठनों को देखने और जानने का मौका मिला। इनमें से कुछ प्रमुख हैं
- Dance Kabila
- Film art
- WEbhor
- Mantash band
- Artbucket
- Craft kari
- Dramebaaz
इन अलग-अलग संस्थाओं का निर्माण 'मंजिल' में रहते हुए वहाँ के छात्रों ने किया है। अपने हुनर को केंद्र में रखकर उन्होंने इन संस्थाओं को बनाया है। उनकी अभिव्यक्ति में और उनके चेहरे से हुनर को सीखने का और उससे कुछ हासिल करने का आत्मविश्वास झलकता है। कौशल को केंद्र में रखकर शिक्षा अर्जित करने का जो गांधी का विचार था कहीं ना कहीं मंजिल के माध्यम से ये युवा उस सपने को साकार कर रहे हैं।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी वैकल्पिक शिक्षा को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। मुझे लगता है इसे मुख्यधारा की शिक्षा के साथ जोड़कर देखे जाने की जरूरत है। बच्चे चाहे तो सरकारी या गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा बनाए गए शिक्षा संस्थानों में जाकर पढ़ें या ऐसे संस्थानों में भी जहाँ उन्हें अपने हुनर को केंद्र में रखकर सीखने का मौका मिले। हालांकि इस तरीके के नीतिगत फैसले के दुरुपयोग की संभावना हमेशा बनी रहती है, लेकिन आधुनिक टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से और बेहतर नीति निर्धारण से शिक्षा के व्यापक प्रसार में गैर सरकारी संस्थाओं की भागीदारी निर्णायक साबित होगी। और इस भागीदारी के फलस्वरूप 'फेल होने या फेल करने' जैसे शब्दों से हम सदा के लिए मुक्ति पा सकते हैं।
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