फ्रीबी: फंडामेंटलस ऑफ बैलेंस्ड इकनोमिकस
देश में "फ्रीबी" को लेकर महत्वपूर्ण चर्चाएं हो रही है। किसी भी लोकतंत्र में महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा लोकतंत्र को मजबूत बनाती है। इन चर्चाओं का स्वागत होना चाहिए। राजनीतिक और आर्थिक मामलों के जानकार "फ्रीबी" पर अपनी बातों को रखते हैं। लेकिन इसका शैक्षणिक पहलू भी है जिसका जिक्र इस लेख में मैं करने जा रहा हूं।
मैं बहुत गहराई से इस बात में यकीन करता हूं कि 12वीं के बाद जब बच्चों को अगले 3 या 4 साल कॉलेज जाकर पढ़ने का मौका मिलता है तो उनके जीवन में महत्वपूर्ण परिवर्तन आता हैं और आर्थिक उपार्जन की उनकी क्षमता कई गुना बढ़ जाती है। कई महत्वपूर्ण शोधों के द्वारा भी इसे साबित किया गया है। यहां तक कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी यह लक्ष्य निर्धारित किया गया है कि 2035 तक हम अपने देश में कॉलेज जाने वाले बच्चों की संख्या 50% करना चाहते हैं जो इस वक्त करीब 27% के आसपास है।
यहां कॉलेज जाने वाले या कॉलेज में पढ़ने वाले बच्चों से मतलब उन सभी विद्यार्थियों से हैं जो सामान्य तौर पर रेगुलर कॉलेज में जाकर पढ़ाई करते हैं या ओपन से पढ़ाई करते हैं। मुझे यह जानने में दिलचस्पी होगी की इन 27% में कितने ऐसे बच्चे हैं जो रेगुलर कॉलेज जा कर पढ़ाई करते हैं और कितने ऐसे बच्चे हैं जिन्होंने ओपन से अपने कॉलेज की पढ़ाई को जारी रखा है। यह अलग बात है कि देश के कई राज्यों में रेगुलर और ओपन में कोई बहुत फर्क नहीं रह गया है। जिन कॉलेजों में शिक्षक नहीं हैं और बच्चों का एडमिशन भले ही रेगुलर मोड में हुआ है, हम इसे ओपन मान कर चल सकते हैं। मेरा अनुमान है कि इन 27% में शायद 10% या उससे कम ही ऐसे विद्यार्थी होंगे जो रेगुलर कॉलेज जा कर पढ़ाई करते हैं और जहां उन्हें शिक्षक भी मिले हुए हैं।
निजी बातचीत को आधार बनाकर मैंने यह पाया है कि सरकारी स्कूल से 12वीं क्लास पास करने के बाद 2-3% प्रतिशत लड़कियां ही कॉलेज की पढ़ाई रेगुलर मोड में कर पाती है। चुकी रेगुलर कॉलेज का विद्यार्थियों के व्यक्तित्व पर और आर्थिक उपार्जन के उनकी क्षमताओं पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है, मेरी छटपटाहट यह सुनिश्चित करने में होती है कि कैसे अधिक से अधिक संख्या में लड़कियां रेगुलर कॉलेज जाकर पढ़ाई कर सकें। लड़कियों के मामले में यह मामला सिर्फ आर्थिक उपार्जन का नहीं है यह उन्हें अपने जीवन पर बेहतर नियंत्रण स्थापित करने में मदद करता है।
इस संबंध में 12वीं क्लास के बच्चों के साथ मैं घंटों बात करता हूं। कई कारण है जो उन्हें 12वीं के बाद कॉलेज जाकर रेगुलर मोड में पढ़ाई करने से रोकता है, जिसमें महत्वपूर्ण कारण है; आने जाने का खर्चा, कॉलेज की फ़ी! अमूमन एक सरकारी कॉलेज में मानविकी से संबंधित विषय में ग्रेजुएशन करने के लिए 1 साल की फ़ी 12 से ₹15000 रुपये के आस-पास होती है। यह एक बड़ी रकम है, इसको इस संदर्भ में समझने की जरूरत है कि 12वीं की परीक्षा के वक्त सीबीएसई ₹3000 रुपये के आसपास की फ़ी बच्चों से लेती है और कई बार हमारे शिक्षक साथी आपस में पैसे इकट्ठा कर कई बच्चों के लिए फ़ी भरते हैं। हमारे बच्चे सीबीएसई का 3000 का फ़ी जो एक साल में एक बार देना होता है, नहीं दे पाते हैं!
स्कूल की पढ़ाई "नेबरहुड स्कूलिंग' की वजह से आसान हो जाता है। बच्चे घर से पैदल चलकर स्कूल आ जाते हैं लेकिन अक्सर कॉलेज जाने के लिए उन्हें बस या मेट्रो का सहारा लेना पड़ता है जो काफी महंगा है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए बच्चे ओपन से कॉलेज की पढ़ाई करने को ही बेहतर विकल्प मानते हैं।
इन समस्याओं को सुनते हुए मैं चुप हो जाता हूं, लेकिन तभी मेरी आंखों में चमक आ जाती है, मैं कहता हूं " तुम दिल्ली में हो भई, तुम बस में तो फ्री में यात्रा कर सकती हो, आने-जाने का खर्च तो हो गया, रही बात कॉलेज फ़ी की, एक-बार आना-जाना शुरू करो, कुछ उपाय निकल आएगा, कहीं पार्ट टाइम काम कर लेना, लेकिन किसी भी हाल में रेगुलर मोड से पढ़ाई करने के बारे में सोचो।"
दरअसल शिक्षा, स्वास्थ्य और परिवहन के क्षेत्र में जिसे हम "फ्रीबी" समझते हैं उसे "फंडामेंटलस ऑफ बैलेंस्ड इकनोमिकस" समझा जा सकता है। हमारे देश के युवाओं में, यह इन्वेस्टमेंट, कई गुना बनकर हमें रिटर्न देता है; एक बेहतर समाज के रूप में, गुणवत्तापूर्ण कार्यक्षमताओं से भरे युवाओं के एक बड़े समूह समूह के रूप में। दुनिया में सबसे अधिक युवाओं वाला देश भारत पहले ही बन चुका है, यह सही वक्त है, हम इन युवाओं में इन्वेस्ट करें और भारत को युवाओं के इस ऊर्जा के माध्यम से दुनिया का नंबर एक देश बनाएं!
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