"सीखने-सिखाने का वातावरण बनाता है-हैप्पीनेस उत्सव"
सुबह उठते ही सौम्या रोने लगी…"आज मुझे स्कूल नहीं जाना है"
पापा उसे याद दिलाते हैं
"आज आपके क्लास में मैम प्ले करवाने वाली है। प्ले में हिस्सा लेने वाले बच्चों के समूह में मैंम ने आप का भी नाम लिखा है।"
आंखों से आंसू टपकने रुके भी नहीं थे सौम्या ने अपने हाथों में ब्रश थाम लिया। जल्दी ही वह स्कूल ड्रेस पहनकर स्कूल जाने के लिए तैयार हो गई।
उत्सव छोटा हो या बड़ा,बच्चों के खास आकर्षण का विषय होता है। यूं तो बड़े लोग भी अपने रोजमर्रा की गतिविधियों के बीच उत्सव का इंतजार करते रहते हैं लेकिन बच्चों के लिए इसका खास महत्व है। उत्सव की जगह अगर स्कूल बन जाए तो इससे बेहतर और हो भी क्या सकता है!
शिक्षण शास्त्रीय दृष्टिकोण से स्कूलों में उत्सवों के आयोजन का खास महत्व है। यह ना केवल बच्चों को स्कूलों में आने के लिए प्रेरित करता है बल्कि स्कूल के अन्य गतिविधियों में दिलचस्पी भी जगाता है। यह एक ऐसा मौका होता है जब बच्चे दूसरे बच्चों के साथ मिलकर, कई बार अन्य कक्षाओं के बच्चों के साथ मिलकर काम करना सीखते हैं। उत्सव के आयोजन में शामिल शिक्षक जब बच्चों के साथ मिलकर काम करते हैं तो उनके बीच की दूरी कम होती है। बच्चों से बेहतर संवाद स्थापित करने की प्रक्रिया में इसकी खास भूमिका है। किसी भी विषय का बेहतर शिक्षण-अधिगम एक बेहतर संवाद और बच्चों के साथ एक बेहतर रिश्ते का ही नतीजा होता है। उत्सव इसके लिए एक अनुकूल वातावरण तैयार करता है।
दिल्ली के सरकारी स्कूलों में आजकल हैप्पीनेस उत्सव पखवाड़ा मनाया जा रहा है। पिछले करीब 4 सालों से दिल्ली के सरकारी स्कूलों में के.जी से लेकर आठवीं क्लास तक के बच्चों को हर रोज एक पीरियड हैप्पीनेस के बारे में पढ़ाया जाता है। जिसके अंतर्गत बच्चों को अलग-अलग दिन अलग-अलग प्रक्रियाओं में शामिल होने का मौका मिलता है। उदाहरण के लिए सोमवार को पूरे पीरियड में माइंडफूलनेस और इससे संबंधित चर्चा पर बल दिया जाता है। मंगलवार और बुधवार को कहानी और उस से संबंधित चर्चा की जाती है। बृहस्पतिवार और शुक्रवार को गतिविधि और उससे संबंधित चर्चा एवं शनिवार को अभिव्यक्ति दिवस के रूप में मनाया जाता है।
हैप्पीनेस के प्रत्येक क्लास में माइंडफूलनेस को अहम माना गया है अर्थात क्लास की शुरुआत माइंडफूलनेस से होती है। बहुचर्चित इतिहासकार एवं लेखक युवाल नोआह हरारी अपने कई लेखों में और भाषणों में यह बताते हैं कि आने वाले समय का धर्म "Data Religion" होगा। अर्थात आंकड़ों से संबंधित ज्ञान और कौशल मनुष्य के जीवन का केंद्र बन जाएगा। जिस प्रकार गणना पर आधारित आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का दखल हमारे दैनिक जीवन में बढ़ता जा रहा है, हरारी के इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि आने वाले समय का धर्म डाटा रिलीजन ही होगा। इस बात का जिक्र मैंने इसलिए किया कि अगर धर्म "डाटा रिलीजन" होगा तो उस धर्म का रिचुअल "माइंडफूलनेस" होना चाहिए।
हालांकि माइंडफूलनेस की उपयोगिता हमेशा से रही है लेकिन डिस्ट्रैक्शन से भरी आधुनिक जीवन में मनुष्य के बेहतर जीवन के लिए माइंडफूलनेस से बेहतर कोई और कौशल हो नहीं सकता है। इसका अगर महत्व बहुत अधिक है तो इसको हासिल करना भी उतना ही कठिन है। अपनी सांसों पर, विचारों पर और भावनाओं पर ध्यान देना अत्यंत कठिन काम है। जो इस क्षेत्र में प्रयोग करते हैं वे जानते हैं कि कई साल लगते हैं इस कौशल को विकसित करने में। दिल्ली के स्कूलों से बच्चे जब 12 से 14 साल की पढ़ाई करके बाहर निकलेंगे तो हम यह मानकर चल सकते हैं कि "डेटा रिलीजन" के युग में जीने वाले नागरिक को हम माइंडफूलनेस जैसा कौशल दे कर उन्हें एक सशक्त नागरिक के रूप में समाज में स्थापित करेंगे।
सामाजिक-भावनात्मक पहलू से जुड़े हैप्पीनेस करिकुलम में हमारे पढ़ने-पढ़ाने के तरीके में आमूलचूल परिवर्तन लाने की संभावना है। दुनिया के बड़े यूनिवर्सिटीज में इससे संबंधित प्रयोग हो रहे हैं। न्यूरोसाइंस के क्षेत्र में इससे संबंधित प्रयोग हो रहे हैं। यह पाया गया है कि माइंडफूलनेस शरीर के अंदर सबसे ज्यादा डोपामिन रिलीज करता है और डोपामिन ही वह रसायन है जो हमें खुशियों से भर देता है।
माइंडफूलनेस और इससे जुड़ी हुई तमाम पहलुओं को जानने और समझने की भारत में एक लम्बी परंपरा रही है। लेकिन पहली बार इसे बच्चों के बीच ले जाने का एक शानदार प्रयास हो रहा है। दुनिया भर में करीब करीब सभी शिक्षा नीति का यह उद्देश्य रहता है कि शिक्षा लोगों को एक बेहतर इंसान बनने में मदद कर सके। हैप्पीनेस करिकुलम इसी "यूनिवर्सल ऑब्जेक्टिव" को हासिल करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। तो आखिर क्यों न हो इसका जश्न? आखिर क्यों न हो इसका उत्सव?
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