पर्यावरण संरक्षण के मुहीम को ज़रूरत है नई भाषा की
आज विश्व पर्यावरण दिवस है। इस मौके पर दुनिया भर में पर्यावरण के संरक्षण को लेकर जागररुकता अभियान चलाया जाता है। वैज्ञानिक शोधों से यह बात अब स्पष्ट हो चुकी है कि लगातार पृथ्वी पर पर्यावरण से जुड़े हुए संकट गहराते जा रहे हैं। यदि अति शीघ्र इस संबंध में वैश्विक स्तर पर ठोस कदम नहीं उठाए गए तो जल्दी ही यह खूबसूरत ग्रह मनुष्यों के रहने लायक नहीं बच पाएगा।
कई सारे शोध पत्रों, किताबों एवं डॉक्यूमेंट्री मूवीज़ के ज़रिए इस बात को बताया गया है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुछ ठोस प्रयास भी हुए हैं। लेकिन जब तक पर्यावरण को बचाने की मुहीम को जन आंदोलन का रूप नहीं दिया जाएगा, जब तक प्रत्येक व्यक्ति पर्यावरण को बचाने में अपनी भूमिका को नहीं रेखांकित करेगा, तब तक सरकारी प्रयास बहुत कुछ हासिल नहीं कर सकेंगी।
एक तरफ़ विकास और आर्थिक समृद्धि की दौर के पीछे लोग भागे चले जा रहे हैं, दूसरी तरफ़ पर्यावरण को बचाने की बात भी की जा रही है। आर्थिक समृद्धि से जुड़े विकास की अवधारणा को जब तक चुनौती नहीं दी जाएगी पर्यावरण को बचाने की संभावनाएँ बहुत कम है। आज की वैश्विक अर्थव्यवस्था लोगों के उपभोग की क्षमता पर आश्रित है। इस अर्थ तंत्र में विकास तभी संभव है जब लोग अपनी उपभोग की क्षमता को बढ़ाते हैं। तमाम निजी और सरकारी तंत्र एक तरफ़ उपभोग की क्षमता को बढ़ाने पर बल देती है वहीं दूसरी तरफ़ पर्यावरण संरक्षण की बात भी होती है। जिस प्रकार प्रकाश और अंधकार को एक साथ नहीं रखा जा सकता है ऐसे ही हम अपने उपभोग की क्षमता को बढ़ाकर कभी भी पर्यावरण संरक्षण को सुनिश्चित नहीं कर सकते है।
यह बात ठीक है कि हम प्लास्टिक का इस्तेमाल कम कर सकते हैं, ग्रीन टेक्नोलॉजी से हमें मदद मिल सकती है, ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों पर हम अपनी निर्भरता बढ़ा सकते हैं, लेकिन पर्यावरण संरक्षण के जिस दौर में हम पहुँच चुके हैं, उसे बचाने के लिए यह वैकल्पिक उपाय बहुत महत्वपूर्ण साबित नहीं हो सकेंगे। अब ज़रूरत है विकास की अवधारणा के समझ में आमूलचूल परिवर्तन लाने की! उपभोग की क्षमता पर आधारित अर्थ-तंत्र को आर्थिक विकास की नई परिभाषाओं को ढूँढना होगा।
अधिक पैसे कमाने की होड़ में शामिल पूरी मानवता...ताकि वह गाड़ी और फिर बड़ी गाड़ी खरीद सके, घर और फिर बड़ा घर खरीद सके! विकास की यह समझ हमारी सोचने की क्षमता को अवरुद्ध कर चुकी है। हम इस से बाहर निकल कर वैकल्पिक जीवन पद्धति को देख ही नहीं पाते हैं। उपभोग के सिद्धांत पर आधारित विकास की हमारी समझ ने हमें खोखला करके रख दिया है। बड़े अस्पतालों में इलाज उपलब्ध है लेकिन वहाँ स्वास्थ्य नहीं मिलता है। आधुनिक विकास की हमारी समझ कुछ ऐसे ही छलावे पर आधारित है।
कोई व्यवस्था उस समय प्रचलित भाषा के माध्यम से लोगों के दिलों-दिमाग में अपनी जगह बनाती है। हमें भाषा में शामिल उन शब्दों और उन तत्वों का पहचान करना पड़ेगा जो विकास की समझ को बदलने में मदद कर सके। क्या कई बार बच्चों को पढ़ाते हुए हम यह नहीं कहते हैं... ठीक से पढ़ो, बड़े होकर ज्यादा पैसा कमाओगे, देखो फलाने ने पढ़ाई नहीं की और वह कम पैसा कमाता है। क्या हम आपस में बैठकर कभी यह नहीं कहते हैं...देखो फलाने ने कितनी तरक्की की है, क्या शानदार गाड़ी खरीदी है । दैनिक बोलचाल में प्रचलित हमारे ये शब्द, हमारे ये अल्फ़ाज़, विकास की भ्रमित समझ को हमारे मस्तिष्क तक पहुँचा देती है।
हमारी दैनिक बात-चीत में कितनी बार किसी पेड़ लगाने वाले व्यक्ति का उदाहरण आता है? जल बचाने वाले व्यक्ति का उदाहरण आता है? कम खर्चे में अपना जीवन-यापन करने वाले व्यक्ति का उदाहरण आता है? उल्टा ऐसे लोग समाज में मज़ाक के पात्र बन जाते हैं, उन्हें कंजूस कहा जाता है, पिछड़ा माना जाता है, अनपढ़ माना जाता है। अपने खेतों में काम करने के बाद, पेड़ की शीतल छाया में गमछी बिछा कर लेटे हुए किसान, उनकी मीठी सी नींद- दिनभर एसी में काम करने के बाद रात को गोलियाँ खाकर सोने वाले लोगों से किस प्रकार बेहतर नहीं है। कैसे हम किसान को पिछड़ा और गोली खा कर नींद लेने वाले शहर के निवासी को विकसित कहते हैं। यह भाषा का खेल है। पर्यावरण के संरक्षण की चुनौती को भाषा के स्तर पर चुनौती देना होगा। हमें अपने उदाहरण बदलने होंगे! हमें अपने शब्द बदलने होंगे!
प्रख्यात इतिहासकार युवाल नोआ हरारी इस संबंध में बहुत बेहतरीन व्याख्या करते हैं। वे कहते हैं कि उस वक्त जब लोग जंगलों में अपना जीवन बिताते थे। उनके पास आराम करने के लिए ज़्यादा समय था। हमसे ज़्यादा पौष्टिक भोजन वह कर पाते थे। उनके खाने में वैरायटी ज़्यादा थी। आज दुनियाभर में करोड़ों लोग (वे चीन, भारत और कई देशों का उदाहरण देते हैं) जो साल भर चावल दाल और रोटी खा कर अपना जीवन बिता देते हैं। खैर, उस युग की अपनी समस्याएँ भी थी।
लेकिन विकास का वैकल्पिक नज़रिया बनाने के लिए इतिहास से सीखा तो जा ही सकता है। कम से कम कुछ नहीं तो हम अपने शब्दों में,हम अपने उदाहरणों में परिवर्तन ला कर पर्यावरण संरक्षण की मुहिम को बहुत आगे बढ़ा सकते हैं। इस संबंध में कही गई यह बात बहुत प्रचलित है और बहुत महत्वपूर्ण भी है-"हम सबको याद रखना है कि हम मनुष्यों के रहने के लिए केवल एक ही ग्रह है" हमारे पूर्वजों ने इसे हमारे लिए सहेज कर रखा है। यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम अपने आने वाली नस्लों के लिए इसे सहेज कर रखें।
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