विकास का एक वैकल्पिक नज़रिया सिखाता है अरुणाचल!
"अरुणाचल, कहीं ये हिमाचल के ऊपर तो नहीं है!"
"एक बार दिल्ली के किसी इलाके में हम कुछ लोग आपस में हिंदी में बातचीत कर रहे थे, हमारे तरफ कुछ लोग आए और उन्होंने कहा... आप की भाषा हम से मिलती जुलती लग रही है"
"चाइनीज, नेपाली,थापा, इत्यादि नामों से हमें बुलाया जाता है। अरुणाचली कह कर शायद ही कोई बुलाता है हमे"
एक सप्ताह के अरुणाचल के दौरे पर इस तरीके के कई वाकियात सुनने को मिले। भारत की विशालता और विविधता पर गर्व करने वाला भारतीय जब उत्तर पूर्व के राज्यों के प्रति इस प्रकार का रवैया अपनाता है तो यह दोहरापन शर्मसार करने वाला होता है।
प्राकृतिक सम्पदाओं जैसे कि सदाबहार वन, अनगिनत नदियाँ, हिमालय की खूबसूरत शृंखलाएँ,आकर्षित तो करती है लेकिन बड़े शहरों में रहकर विकास के कृत्रिम नजरिए को अपना चुके लोगों के लिए अरुणाचल के शहरों की कम चमकदार दिखने वाली दुकानें,टूटी-फूटी सड़कें(मुख्य सड़के बेहतरीन हैं), पुरानी और जर्जर हो चुकी स्कूल की इमारतें, फूस और टीन की छतें पिछड़ेपन की गाथा सुनाने लगती है।
एक-आध दिन गुजारने के बाद यह कंडीशनिंग थोड़ी बदलने लगती है। यहाँ के लोगों से बातचीत करते हुए हम यह नहीं पाते हैं कि वे अपनी गरीबी का गाथा हमें सुना रहे हैं। बल्कि उनके दैनिक जीवन में एक उत्सव है, संतुष्टि है, खुशहाली है फूस के छत के नीचे खुशहाल परिवार है, टीन के छत के नीचे बैठकर पढ़ रहे बच्चे सवालों से भरे हैं। आधुनिक संसाधनों की कमी से जूझ रहे शिक्षक अपने मेहमानों का स्वागत,किसी बड़े शहर के शिक्षकों से ज्यादा खुश मिजाजी से करते हैं। हिंदी गाना गाते हैं, होली का त्यौहार मनाते हैं।
उनकी जीवन शैली को देखकर विकास की अवधारणा पर गहरा सवाल उठ खड़ा होता है। साफ़-सुथरी चौड़ी सड़क, बड़ी कार, घर और दफ्तर में एसी, ग्रेनाइट से चमकती हुई फर्श और बदले में जहरीली हवा, गंदा पानी, या इसका उल्टा ठीक-ठाक सा घर, पब्लिक परिवहन, साफ़ हवा और स्वच्छत पानी, हम किसे विकास कहेंगे?
वजह जो भी रही हो अरुणाचल के लोग विकास की भ्रामक अवधारणा से अपने आप को अभी तक बचाए हुए हैं। अन्य संसाधनों की कमी के बावजूद भविष्य के सबसे महत्वपूर्ण संसाधन पर अपना कब्जा बनाए हुए हैं। यह संसाधन है- साफ़ हवा और स्वच्छ पानी।
जनजातीय जीवन आधुनिक लोकतांत्रिक जीवन से थोड़ा अलग है। समुदायों में जनजातीय कानून आज भी राज्य के कानून से ज्यादा महत्वपूर्ण माना जाता है। आज भी छोटे-मोटे अपराधों के मामले पुलिस के द्वारा नहीं बल्कि समुदाय के द्वारा ही निपटाए जाते हैं। छोटे-मोटे अपराधों में अपराधियों से दंड स्वरूप मिथुन( एक विशेष प्रकार का जानवर) लेने की परंपरा है। बेटियों को पैतृक संपत्ति में किसी प्रकार का अधिकार प्राप्त नहीं है। यहाँ के जनजातीय समुदायों में ऐसी मान्यता है कि अन्यथा परंपरागत रूप से चली आ रही जनजातीय समाज की विशिष्टता भंग हो जाएगी। बातचीत के दौरान रोइंग डाइट के प्रिंसिपल, श्री बीएन दत्ता जी से मैंने एक सवाल पूछा... क्या इस मामले में यहाँ संसद के द्वारा बनाए हुए कानून या सुप्रीम कोर्ट के द्वारा दिए गए निर्णय का पालन नहीं होता है? उनका कहना था कि जनजातीय क्षेत्रों में अभी भी लोकल कस्टम्स को ज्यादा अहमियत दी गई है।
जहाँ तक बात स्कूल और शिक्षा के अन्य संस्थानों का है तो निश्चित रूप से संसाधनों की कमी साफ़-साफ़ नजर आती है। मेरा ख्याल है कि ऐसे राज्यों के लिए केंद्र की तरफ से विशेष प्रावधान होने चाहिए। अगर राज्य सरकारें अपने मदों से पर्याप्त संसाधन नहीं जुटा पाती है तो शिक्षा संस्थानों को बनाने और उसे चलाने के लिए ऐसे राज्यों के लिए केंद्र सरकार को आगे आना चाहिए और यहाँ बड़े पैमाने पर स्कूल, कॉलेज एवं शिक्षा के अन्य संस्थानों में निवेश करना चाहिए। इस संदर्भ में अरुणाचल खास महत्व का राज्य है। इसकी एक बड़ी सीमा चीन के साथ लगती है।
धारा 371 का जिक्र भी कई बार हमारी बातचीत में आता था। कई शिक्षक उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, असम और देश के अन्य हिस्सों से अरुणाचल में आकर पढ़ा रहे हैं। अन्य कामगार जो देश के अन्य हिस्सों से आकर यहाँ काम करते हैं वे न तो यहाँ जमीन खरीद सकते हैं, ना घर बना सकते हैं। 20 साल, 30 साल, 40 साल की नौकरी के बाद उन्हें पुनः अपने प्रदेश वापस लौट जाना पड़ता है। बातचीत के दौरान बीएन दत्ता जी से मैंने पूछा... क्या यह यहाँ काम करने वाले लोगों के लिए एक तरह का अन्याय नहीं है? क्या वे कभी सेंस ऑफ बिलॉन्गिंगनेस विकसित कर पाएंगे?
मैं मानता हूं कि जनजातीय संस्कृति को सुरक्षित रखने के लिए ऐसे कानून की जरूरत है लेकिन इसमें कुछ ढील दिए जाने की भी जरूरत है। हम यह कर सकते हैं कि बाहर से आकर कोई यहाँ जमीन नहीं खरीदे या घर ना बनाएं। लेकिन जो यहाँ कम से कम 10 सालों से काम करते हैं उन्हें इजाज़त दिया जाना चाहिए कि वे सीमित मात्रा में जमीन भी खरीद सकें और अपने लिए एक आशियाना भी बना सके। मुझे लगता है कि धारा 371 में भी संशोधन की जरूरत है।
एक सवाल अमूमन निकल कर आता है कि हम क्या सीख कर आते हैं? इस बारे में एक विस्तृत लेख पिछले हफ्ते के संडे डायरी में मैंने लिखा है। बहरहाल अरुणाचल प्रदेश के लोग अगर हिंदी सीख सकते हैं तो क्यों ना दिल्ली के लोग देश की अन्य भाषाओं जैसे कि दक्षिण भारत की कोई भाषा,पश्चिम भारत की कोई भाषा,पूर्वी भारत की कोई भाषा सीख सकते हैं? मेरे ख्याल से इसे लेकर सचेत प्रयास होने चाहिए। अरुणाचल में 26 प्रमुख जनजातीय समूह रहती है। यहाँ की कक्षाओं में अलग-अलग भाषाओं को जगह देने की भरपूर कोशिश वहाँ की एससीआरटी कर रही है। ऐसा नहीं है कि दिल्ली की कक्षाओं में बहुभाषिता की जरूरत नहीं है। हमें अपनी कक्षाओं को बहुभाषिता के सिद्धांतों के अनुकूल ढालने की कोशिश करनी चाहिए ताकि देश के अलग-अलग प्रांतों से आकर हमारी कक्षाओं में पढ़ने वाले बच्चे यह महसूस कर सकें कि दिल्ली के स्कूल की कक्षाएं उनका भी है न कि मुट्ठी भर उन बच्चों का जो शिक्षकों की भाषा के साथ अपना तालमेल बिठा पाते हैं।
और सबसे बड़ी बात जिसका जिक्र एक बार पहले भी इस लेख में आया है कि विकास के वैकल्पिक नज़रिये पर चर्चा होनी चाहिए। भविष्य के संसाधन; साफ़ हवा और स्वच्छ पानी, को कैसे बचाया जाए इन पहलुओं पर शायद हम अरुणाचल से बहुत कुछ सीख सकते हैं। अरुणाचल के लोग, वहाँ की प्राकृतिक संपदा,वहाँ की जीवन शैली हमें एक मौका देती है कि पश्चिम के उस नजरिए को चुनौती दे सकें जिसने विकास की आधुनिक अवधारणा के नाम पर हमारे जीवन को कृत्रिमता और खोखलेपन से भर दिया है। यह अंतर उतना ही स्पष्ट है जितना अंतर हमारे कृत्रिम पार्क और अरुणाचल के सदाबहार वन में है।
- Log in to post comments