समय का दवाब : स्कूली शिक्षा का संकट

समय का दवाब : स्कूली शिक्षा का संकट

Posted on: Sun, 04/27/2025 - 04:26 By: admin
Schooling

 

  समय का दवाब : स्कूली शिक्षा का संकट

 

हमारे कुछ साथियों ने स्कूल में समय की कमी को लेकर एक दिलचस्प चर्चा शुरू की। खास तौर पर, बच्चों को लंच के लिए केवल 20 मिनट का समय दिया जाता है, जो इतना कम है कि वे ठीक से भोजन नहीं कर पाते। स्कूल में कुछ देर ठहरकर कोई भी यह अंदाजा लगा सकता है कि स्कूल एक मशीन की तरह गतिशील है। कुछ लोग मानते हैं कि समय की इस कमी को स्कूल का समय बढ़ाकर पूरा किया जा सकता है। इस दिशा में प्रयोग भी हुए हैं—स्कूलों का समय धीरे-धीरे बढ़ाया गया, छुट्टियों में कटौती की गई, और सर्दी-गर्मी की छुट्टियों में कक्षाएँ आयोजित की गईं। देश के कई हिस्सों में स्कूल अब ऑफिस की तरह 8 घंटे चलते हैं। लेकिन स्कूल का समय बढ़ाना इस समस्या का समाधान नहीं है। यदि स्कूल 8 घंटे का कर दिया जाए, तो 10 घंटे की जरूरत महसूस होगी; 10 घंटे के बाद 12 घंटे की, और यह सिलसिला चलता रहेगा।

बाजार में प्रचलित एक नारा, “कैच देम अर्ली”, स्कूलों पर थोप दिया गया है। लगभग हर सरकारी और गैर-सरकारी संस्था, जिसने किसी विशेष क्षेत्र में ‘विशिष्ट ज्ञान’ विकसित किया है, अपनी बातें बच्चों तक जल्दी से जल्दी पहुँचाना चाहती है। इससे पाठ्यचर्या पर जबरदस्त दवाब  पड़ता है, और स्वाभाविक रूप से हर वक्त समय की कमी महसूस होती है। इस दवाब  से निपटने के लिए स्कूली व्यवस्था मशीन की तरह काम कर रही है। शिक्षक, प्राचार्य, और बच्चे—किसी के पास भी रुककर सोचने का समय नहीं है। इस पूरी प्रक्रिया में ‘सोचना’ गायब हो गया है। शिक्षा का मूल अर्थ था सोचने की क्षमता को बढ़ाना, लेकिन हमने इसमें से सोचना ही निकाल दिया। अब यह वैसी ही है जैसे गन्ने के डंठल से रस निकाल लिया जाए और केवल खाली छिलका रह जाए।

अब सवाल उठता है कि जब जीवन के हर पहलू में इतनी तेजी से बदलाव हो रहे हैं और नई जानकारियाँ सामने आ रही हैं, तो यदि हम स्कूलों में बच्चों को यह सब नहीं सिखाएँगे, क्या वे महत्वपूर्ण ज्ञान से वंचित नहीं रह जाएँगे? इसका एक जवाब यह है कि हम कोशिश तो करते हैं कि उन्हें सब कुछ सिखा दें, लेकिन फिर भी वे कई महत्वपूर्ण जानकारियों से वंचित रह जाते हैं। आखिरकार, हमारी सारी मेहनत इस बात पर अटक जाती है कि बच्चे किसी तरह पास होकर अगली कक्षा में चले जाएँ।

तो फिर समाधान क्या है? स्कूलों का समय बढ़ाना रास्ता नहीं है; बल्कि, इसे और कम करना चाहिए। सर्दी, गर्मी, त्योहारों, और सप्ताह में दो दिन की छुट्टियाँ बच्चों और शिक्षकों, दोनों को मिलनी चाहिए, किसी विषय पर सोचने के लिए पर्याप्त समय की आवश्यकता होती है।

यदि हम बाल मनोविज्ञान को आधार बनाकर विचार करें, तो कुछ सूत्र मिल सकते हैं। स्कूल आने वाले बच्चे ऊर्जा और नई चीजें जानने की सहज जिज्ञासा से भरे होते हैं। वे लगातार ‘नियंत्रित स्थान’ से बाहर निकलने की कोशिश करते हैं। यही कारण है कि जब एक शिक्षक कक्षा से जाता है और दुसरे के  आने में थोड़ा समय लगता है, तो उस छोटे से अंतराल में कक्षा में खुशी का माहौल बन जाता है। किसी शिक्षक के  छुट्टी पर होने पर भी बच्चे आमतौर पर प्रसन्न होते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि वे शिक्षकों को पसंद नहीं करते; बल्कि, वे नियंत्रित स्थान से कुछ देर के लिए मुक्त होना चाहते हैं। यह खुशी तब और स्पष्ट होती है जब स्कूल की छुट्टी की घंटी बजती है या खेल के मैदान में बच्चे होते हैं। बच्चे हर वक्त वही चीजें देखना, सुनना, और सीखना नहीं चाहते, जो हम उन्हें सिखाते हैं। वे खुद तय करना चाहते हैं कि क्या देखना है, क्या सुनना है, कहाँ जाना है, और किसके साथ बैठना है। नियंत्रित स्थान के बीच जो थोड़ा-सा अनियंत्रित स्थान उन्हें मिलता है, उसी में उनके व्यक्तित्व का वास्तविक विकास होता है।

पढ़े-लिखे व्यक्तियों के जीवन का अध्ययन बताता है कि उनकी जीवन-यात्रा में एक ऐसा क्षण आता है, जब वे स्वतंत्र रूप से सीखने की यात्रा पर निकल पड़ते हैं। इस यात्रा में एक समय ऐसा भी आता है, जब विभिन्न विषय एकीकृत होकर सामने आते हैं। उदाहरण के लिए, गणित का गहरा अध्ययन करने वाला व्यक्ति किसी मौके पर इतिहास, अर्थशास्त्र, या साहित्य की भी उतनी ही गहरी समझ विकसित कर लेता है। यही बात साहित्यकार या इतिहासकार पर भी लागू होती है। एक कुशल इतिहासकार की गणित की समझ, स्कूल-कॉलेज में गणित पढ़कर पास हुए बच्चों से बेहतर हो सकती है। इसी तरह, एक गणितज्ञ की इतिहास की समझ, इतिहास पढ़ने वाले सामान्य छात्रों से बेहतर हो सकती है। सीखने की यह स्वतंत्र यात्रा ही सारे रहस्यों की कुंजी है। हम कितनी भी कोशिश कर लें कि स्कूल में सब कुछ सिखा दें, हम सफल नहीं होंगे। आपने देखा होगा कि कई बार बैटरी खराब हो जाने पर कार को धक्का देकर स्टार्ट करना पड़ता है, लेकिन मकसद होता है कि शुरुआती धक्के के बाद कार खुद चलने लगे। हममें से अधिकतर की सीखने की यात्रा ऐसी ही होती है—शुरुआत में स्कूल धक्का देता है, फिर समाज की विभिन्न संस्थाएँ धक्का देती हैं। बहुत कम लोग ‘सेल्फ-स्टार्ट’ हो पाते हैं।

तो क्या इसका मतलब यह है कि स्कूलों में पढ़ाई-लिखाई बंद कर देनी चाहिए? मैं स्कूल की कल्पना एक मिठाई की दुकान की तरह करता हूँ। जब आप मिठाई की दुकान पर जाते हैं, तो विभिन्न मिठाइयों को देखकर, चखकर यह तय करते हैं कि कौन-सी मिठाई खरीदनी है। कम-से-कम दसवीं कक्षा तक की पढ़ाई को इसी तरह देखा जाना चाहिए। इतिहास, साहित्य, गणित, विज्ञान, कला, और खेल—इन सभी विषयों के शिक्षकों को बच्चों को अपने विषय का स्वाद चखाने की कोशिश करनी चाहिए। प्रत्येक शिक्षक को यह प्रयास करना चाहिए कि जीवन का सारा ज्ञान-विज्ञान उनके विषय के माध्यम से समझाया जा सकता है। उन्हें अपने विषय की आकर्षक मार्केटिंग करनी चाहिए, ताकि बच्चे उससे प्रभावित हों। अंत में, बच्चे को यह चुनने की आजादी मिलनी चाहिए कि उसे कौन-सी ‘मिठाई’ खरीदनी है, यानी कौन-सा विषय चुनना है। इस प्रक्रिया में यदि स्वतंत्र सीखने की शुरुआत हो जाए, तो यह मान लीजिए कि बच्चा चाहे गणित चुने या साहित्य, अन्य विषयों का ज्ञान वह स्वयं हासिल कर लेगा।

अब मूल सवाल पर लौटते हैं: क्या मिठाइयों का स्वाद चखाने के लिए स्कूलों में बहुत समय चाहिए? नहीं। पाठ्यचर्या का बोझ कम करना होगा। हम यह चाहते हैं कि हर चीज स्कूल में सिखा दें, लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं है।

क्या पाठ्यचर्या को कम करना संभव है? यह आसान नहीं है। विशेषज्ञ मानते हैं कि हमारी सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था नहीं चाहती कि शिक्षा में ‘सोचना’ वापस आए, क्योंकि यह सामाजिक यथास्थिति को बनाए रखने में मदद करती है। विद्वानों ने इसका समाजशास्त्रीय विश्लेषण भी किया है। संभावना यही है कि पाठ्यचर्या का बोझ और बढ़ेगा, स्कूलों का समय भी बढ़ सकता है, और स्कूलों की मशीनीकृत व्यवस्था की गति को और तेज करने की कोशिश होगी। वैसे भी, वर्तमान स्कूली व्यवस्था औद्योगिक समाज की उपज है, जिसका मशीनों से गहरा नाता है। 2020 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति के प्रकाश में भारतीय ज्ञान परंपरा की चर्चा जोर-शोर से हो रही है, जो एक आशा की किरण है। इस परंपरा में शिक्षा में सोचने और मनन करने को केंद्र में रखा गया है। संभव है कि भविष्य में हम अपनी स्कूली व्यवस्था को इस दृष्टिकोण से देखना शुरू करें।