शिक्षक, शिक्षा और साहित्यिक दृष्टिकोण
पिछले सप्ताह हमने 'रीड विद अ टीचर' के वार्षिक अंक का आयोजन किया और इस तरह 2 वर्षों से जारी शिक्षा साहित्य को पढ़ने और पढ़ाने की संस्कृति को बढ़ावा देने वाले इस कार्यक्रम के एक महत्वपूर्ण पड़ाव को पार किया। 'रीड विद अ टीचर' के मंच से हमने अब तक कुल 42 रीडिंग सेशन का आयोजन किया है। इनमें से अधिकतर, मेरे ख्याल से, 30 से अधिक किताबें शिक्षा साहित्य से जुड़ी हैं।
शिक्षा साहित्य को पढ़ने और पढ़ाने की संस्कृति को बढ़ावा देने के पीछे क्या वजह हो सकती है?
यह कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण है। इसी मायने में, शिक्षा साहित्य शिक्षा जगत का दर्पण है। शिक्षक और बच्चे हर रोज अपने घर से निकलते हैं, स्कूल जाने के लिए तैयार होते हैं, और घर छोड़ने से पहले दर्पण के सामने जाकर अपने चेहरे को संवारते हैं। लेकिन बिना शिक्षा साहित्य को पढ़े, हम मान सकते हैं कि शिक्षक बिना दर्पण देखे स्कूल जा रहे हैं।
1930 के दशक में गिजुभाई द्वारा लिखी गई किताब "दिवास्वप्न" में दर्पण का एक जिक्र है जहां वह बताते हैं कि बच्चे कैसे अपने बाल सजाकर, दांत साफ कर और साफ कपड़े पहनकर स्कूल आते हैं। उन्होंने इसके लिए स्कूल में दर्पण की व्यवस्था करवाई थी। एक रूपक के रूप में, दर्पण बहुत महत्वपूर्ण है। बिना शिक्षा साहित्य से रूबरू होए, शिक्षा में लगे लोग बिना दर्पण देखे अपने कार्य कर रहे हैं, जिससे सुधार या बदलाव की संभावना कम हो जाती है।
हम शिक्षा साहित्य से क्या समझते हैं?
मोटे तौर पर, वे सभी लेख, किताबें, शोध पत्र, कविताएं, इत्यादि हैं जो स्कूल की दुनिया के आसपास लिखी गई हैं, जिनमें बच्चों, शिक्षकों, किताबों का जिक्र है। मैं कई शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम में साथियों से पूछता हूं कि क्या वे कुछ पत्रिकाओं का नाम साझा कर सकते हैं जो नियमित रूप से इन मुद्दों पर प्रकाशित होती है। अक्सर, निराशा ही हाथ लगती है। शिक्षा विमर्श, संदर्भ, पाठशाला भीतर और बाहर, लर्निंग कर्व, इत्यादि जैसे कुछ पत्रिकाओं का नाम मैं उनसे साझा करता हूं! और इसके बाद, मैं उनसे पूछता हूं कि कितनों ने इन पत्रिकाओं को कभी पढ़ा है? अधिकतर शिक्षक मानते हैं कि उन्होंने ऐसी पत्रिकाएं कभी पढ़ी नहीं हैं। यहाँ तक कि कई शिक्षक तो इन पत्रिकाओं के मौजूदगी से भी अनभिज्ञ होते हैं।
यह चर्चा हमें इस बात पर विचार करने पर मजबूर करती है कि हमारे शिक्षा प्रणाली में शिक्षा साहित्य की आवश्यकता को कितना महत्व दिया जाता है। क्या हम अध्यापकों को यह समझाने के लिए प्रयासशील हैं कि उनका पेशेवर विकास शिक्षा साहित्य के माध्यम से भी हो सकता है? अगर हम शिक्षा के विकास और उसकी प्रगति की दिशा में चरण रखना चाहते हैं, तो शिक्षा साहित्य को अध्यापकों, विद्यार्थियों और शिक्षा जगत के अन्य प्रतिभागियों तक पहुँचाने की जरूरत है। इससे उन्हें न केवल नई जानकारी मिलेगी बल्कि वे अपने विचार और सोच में भी विस्तार पा सकेंगे।
हमें यह समझना होगा कि शिक्षा साहित्य केवल एक विषय या अध्ययन क्षेत्र नहीं है, बल्कि यह शिक्षा के प्रत्येक पहलु में उत्तराधिकार और संवाद का माध्यम है। स्कूल की दुनिया में होने वाले दैनिक कार्य को हम एक दिनचर्या का हिस्सा मान सकते हैं, लेकिन इसी दिनचर्या के माध्यम से समाज, राजनीति, और अर्थव्यवस्था अपने तंत्र को न सिर्फ लोगों तक पहुंचाती है बल्कि लोगों को उसे मानने और उसे आगे बढ़ाने के लिए तैयार करती है। इसके तरफ हमारा ध्यान उस दिन जाता है जब हम किसी व्यक्ति को अपने आसपास ऐसा आचरण या ऐसा विचार अभिव्यक्त करते हुए देखते हैं, जहां अनायास ही हमारे मुंह से निकलता है "इतने पढ़े-लिखे होने के बावजूद भी यह ऐसा सोचता है या यह ऐसा व्यवहार कर रहा है।" यह याद दिलाता है कि जिस शिक्षा व्यवस्था से वह व्यक्ति निकल कर आया है, वहां शिक्षा देने और ग्रहण करने की प्रक्रिया मशीनी थी।
शिक्षा-साहित्य को आधार बनाकर जब हम स्कूल की दुनिया की गतिविधि का आकलन करते हैं तो पाते हैं कि किताबों में लिखा हर शब्द, शिक्षकों द्वारा कही जाने वाली हर बात, स्कूल की दीवारों पर लगे हर पोस्टर, स्कूल के नियम और कानून, एक बड़ी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था का परिचालक है। बिना शिक्षा-साहित्य के हम उसे डिकोड नहीं कर पाते हैं | यह सवाल पूछा जा सकता है कि ठीक है, इसमें क्या परेशानी है? इसमें परेशानी यह है कि हम अनवरत रूप से गैर बराबरी, धार्मिक, जातीय-भेदभाव, लैंगिक असमानता, जैसे महत्वपूर्ण विषयों को अनजाने में ही बढ़ावा देते रहते हैं। समाजशास्त्री इसे सामाजिक पुनरुत्पादनका सिद्धांत कहते हैं। कृष्ण कुमार के द्वारा लिखी हुई किताब "चूड़ी बाजार में लड़की" को पढ़ते हुए आपको एहसास होगा की लैंगिक समानता के मसले पर हम बहुत कुछ हासिल नहीं कर पाए हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि, उर्मिला पवार, कांचा इलाया के लेखों और किताबों को पढ़ते हुए आपको एहसास होगा की जाति आधारित भेदभाव को कम करने में हमें कोई ज्यादा सफलता नहीं हासिल हुई है। और धार्मिक भेदभाव को समझने के लिए तो किसी साहित्य को पढ़ने की जरूरत भी नहीं है।
इस लेख में मुख्य रूप से इस प्रश्न पर विचार किया गया है कि हमें शिक्षा-साहित्य क्यों पढ़ना चाहिए। पढ़कर क्या-क्या संभव है, इस पर हर पढ़ने वाला व्यक्ति अपनी राय रखेगा। आखिर में,आखिरी हिस्से में मैं उसे रूपक को फिर से दोहराना चाहूंगा की हर दिन स्कूल के लिए निकलते वक्त जब भी हम दर्पण के सामने जाते हैं हम अपने आप से एक सवाल पूछ सकते हैं कि क्या आज हमने शिक्षा साहित्य के दर्पण में अपने आप को झांक कर देखा है?
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