कार्य कुशल होना, कार्य में गुणवत्ता लाना, सतत एक जैसा प्रदर्शन करते रहना, इन विचारों ने मुझे बहुत दिनों तक आकर्षित किया | कई तरह के प्रयोग भी मैंने किए, कुछ मामूली सफलता के बाद उसमें निराशा ही हाथ लगी | एक और वाक्य है जो मुझे बहूत आकर्षित करता है “ Institutionalize your life “ अर्थात जीवन को एक संस्था में परिवर्तित कर देना | सतही तौर पर ये सभी वाक्य काफी आकर्षक लगते हैं | विचारों के इस चक्र से बाहर निकलना भी काफी मुश्किल है | हम जितना ज्यादा कार्य कुशल होते हैं , सतत एक जैसा प्रदर्शन करते हैं उतनी ही हमें तारीफ मिलती है | हम अपने छात्रों से भी इसी तरह की उम्मीद करते हैं | छात्र भी अपने जीवन को मशीन बना लें, इस बात की पूरी कोशिश करते हैं | कुछ उदहारण से यह बात और भी साफ हो जाएगी, जैसे कि वह हमेशा पंक्तिबद्ध हो कर चलें, किसी भी काम से पहले हमारी इज़ाज़त लें, सही समय पर अपना गृह कार्य पूरा कर लें, कक्षा से बाहर निकलें या कक्षा के अन्दर आएँ तो हमारी इज़ाज़त लें, इत्यादि |
व्यावहारिक जरुरतों को पूरा करने के लिए अगर इन नियमों का पालन किया जाता है, तो इसमें कोई बुराई नहीं है, परंतु अगर एक संस्था के अन्दर काम करते-करते, धीरे-धीरे हम भी संस्था में परिवर्तित होते जा रहे हैं | संस्था के संचालकों के लिए यह बहुत ही सुकून की बात है | लेकिन इन्हीं संस्थाओं में अगर कोई व्यक्ति अपने मनुष्य होने की बात को याद कर लेता है, तो फिर तमाम तरह की दिक्कतें सामने आने लगती हैं| मनुष्य होने से मेरा अभिप्राय है कि एक व्यक्ति कभी कार्य कुशल होगा और कभी नहीं भी होगा, वह सतत एक जैसा प्रदर्शन नहीं कर पाएगा |भाषा विज्ञान के अनुसार संस्था और मशीन दोनों अलग-2 शब्द हैं, लेकिन इस लेख में मैंने इन दोनों शब्दों का इस्तेमाल एक ही अर्थ में किया हैं |संस्था मनुष्य होने के इस आवश्यक गुण को बर्दाश्त नहीं कर पाती है |
हालांकि किसी भी परिपेक्ष्य में मनुष्य का मशीनीकरण निंदनीय है ,परंतु शिक्षा में तो इसके लिए कोई जगह ही नहीं होनी चाहिए | एक शिक्षक जब मशीन की तरह कम करने लगता है , तो वस्तुतः वह शिक्षक रह ही नहीं जाता है | शिक्षक का तो एक विशेष काम होता है कि वह अपने छात्राओं के साथ मिलकर एक ऐसी कक्षा का निर्माण करता है जिसमें हर तरह के विचार एवं संवाद के लिए जगह होती है | जिस शिक्षक का मशीनीकरण हो गया है, वहाँ ये सब ख़त्म हो जाता हैं |
मुझे ऐसा लगता है कि कोई भी व्यक्ति अपना मशीनीकरण नहीं चाहता है, लेकिन संस्था की ताकत के समक्ष कुछ चीख एवं पुकार के साथ लोग घुटने टेक देते हैं | स्कूल एक संस्था के रूप में किस प्रकार शिक्षकों का मशीनीकरण करने का प्रयास करता हैं इसके कुछ उदाहण इस प्रकार हैं:-
1) अलग अलग विषयों के लिए समय सरिणी
2) निर्देशित सिलेबस ( महीने बार विश्लेषण )
3) निरीक्षण
4) बच्चों की कॉपी में काम पूरा करवाना
5) ऊपर से निर्धारित मूल्यांकन व्यवस्था
6) पाठ्य पुस्तक ( Text Book)
ऊपर चिन्हित किए गए बिन्दुओं के बिना एक अच्छे स्कूल की कल्पना भी मुश्किल है, लेकिन इन सबकी व्यावहारिक उपयोगिता हैं | कई बार मैं देखता हूँ कि जैसे ही एक पीरियड की घंटी बजती है, शिक्षक तुरंत कक्षा से निकल कर दुसरी कक्षा में पहुँच जाते हैं, पिछली कक्षा में पढ़ा रहे विषय को इस तरह छोड़ते हैं जैसे किसी ने बटन दबा दी हो | ऐसे ही नई कक्षा में बिलकुल मशीन की भाँती अपना काम शुरू कर देते हैं |
पाठ्यक्रम को पूरा करवाना शिक्षकों के परम कर्तव्यो में गिना जाता हैं, शिक्षकों पे अविश्वास का आलम इस हद तक पहुँच चूका है कि शिक्षा निदेशालय सभी स्कुलों के लिए एक साथ हफ्तेवार विवरण के साथ सिलेबस बना के भेज देती है | प्रत्येक शिक्षक को इस बात का पालन करना होता है | एक बार एक साथी से बातचीत हो रही थी कि अगर बच्चों के साथ हमारे रिश्ते मजबूत होते हैं, अर्थात जब हम अपनी निजी जिंदगी को एक दुसरे से साझा करते हैं, तो बच्चे कक्षा में बेहतर तरीके से चर्चा में शामिल होते हैं | हम दोनों ही इस बात पर सहमत थे, लेकिन तभी उन्होंने बताया कि हमें तो एक अप्रैल को भी पाठ्क्रम के अनुसार कक्षा में पढ़ाना होता है | और एक मायूसी सी छा गई | एक अप्रैल शैक्षणिक कार्य दिवस का पहला दिन होता है | एक अन्य साथी बता रहे थे कि कुछ कारणवश बारहवी कक्षा के बच्चों को उन्होंने एक ही दिन में तीन घंटे एक ही विषय पढाया, बाद में उन्हें पता चला कि समय सरणी के अनुसार आज ही उन्हें उन्हीं छात्रों को एक घंटा और पढ़ाना है जिसको वो पहले ही तीन घंटे पढ़ा चुके थे | वह अभी तक अपने आप को मशीन नहीं बना पाए हैं, अब ऐसा करने से उन्होंने मना कर दिया | वो बता रहे थे कि बच्चे कैसे और कितना सीखते हैं, इस बात को वो ज्यादा महत्त्व देते हैं, न कि वो कितने घंटे पढ़ते हैं | संस्था जो कि शिक्षक को मशीन बनाना चाहती है, इस बात से बेहद नाराज़ हुई |
निरीक्षक के खौफ का किस्सा तो बहूत पुराना है , सरकारी स्कुलों में शिक्षकों की कई पीढ़ी बदल चुकी है, लेकिन निरीक्षक का खौफ बदस्तूर अभी भी बना हुआ है | निरीक्षक के दल स्कुल पर औचक छापा मारते हैं | कभी-कभी समाचार पत्रों में भी छपता है कि आज फलाने स्कुल में छापा मारा गया है | आसपास के सभी स्कूल सतर्क हो जाते हैं, डर का आलम यूँ छाया होता हैं कि अगर कोई अनजान व्यक्ति सूट बूट में स्कुल आ जाए तो कुछ देर के लिए हडकंप मच जाता है , बच्चों को इस तरह शांत करवा दिया जाता है, मानो पूरा स्कूल एक साथ गहन समाधी में उतर गया हो | शिक्षक अपने मशीनीकरण के उच्चतम स्तर पे होते हैं और हो भी क्यों न, आखिर उन्हें कुछ न कुछ तो सुनना ही है , अगर बच्चों से बात करते हुए पकड़े गए, और ब्लैक बोर्ड खाली है तो फिर ब्लैक बोर्ड खाली रहने के लिए डांट, और अगर ब्लैक बोर्ड पे लिखते हुए पाए गए, तो फिर बच्चों की तरफ़ ध्यान नहीं देने के लिए डांट | बहूत ही उहापोह की स्थिति होती है | पैर डगमगाने लगते हैं | कौन संभालेगा इस पैर को ? मशीन बन जाना ही बेहतर है |
अनेक कर्म कांडों में से एक प्रमुख कर्म कांड है कि बच्चे सभी विषयों की कॉपी बनाएँ, शिक्षकों के निर्देशानुसार उस पे जिल्द चढ़ाएँ और फिर प्रत्येक अध्याय के अंत में दिए हुए प्रश्न का उत्तर अपनी नोट बुक में लिखें| प्रश्न एवं उत्तर लिखने के लिए स्याही का रंग भी तय होता है | निर्धारित तारीख को शिक्षक इन नोटबुकों को चेक करके प्रधानाध्यापक के कार्यालय में पहुँचाते हैं, मकसद यह देखना नहीं होता है कि बच्चों ने काम किया या नहीं, मकसद यह देखना होता है कि शिक्षक ने काम करवाया या नहीं | एक पूर्ण अविश्वास का वातावरण ! शिक्षक मशीन बन जाना ही बेहतर समझता है |
पूर्व निर्धारित एवं किसी अन्य के द्वारा निर्धारित मूल्यांकन व्यवस्था, शिक्षकों के मशीनीकरण के काम को और आगे बढ़ाता है, पठन-पाठन के केंद्र में यही सवाल सबसे बड़ा होता है कि परीक्षा में कौन से सवाल आएँगे और इस मामले में किसी अन्य की तो बात ही जाने दें, बच्चे भी सवाल उठाते हैं, कि आपने वो सवाल नहीं करवाए जो परीक्षा में आएँगे | बच्चे उदहारण देते हैं बाकी शिक्षकों का जो सवाल और जवाब ब्लैक बोर्ड पर करवाते हैं और सभी शिक्षकों से इसी तरह की उम्मीद रखते हैं | परम्परा को अगर कोई शिक्षक तोड़ने की कोशिश करता है तो बच्चे उठ खड़े होते हैं |
पाठ्य पुस्तक को स्कूलों में गीता, कुरान और बाइबल जैसी जगह मिल चुकी है | शिक्षक के मशीनीकरण में इसका भी बड़ा हाथ हैं | निर्धारित पाठ्य पुस्तक में लिखी हुई बातों के अलावा अगर कोई शिक्षक कुछ और बताने या सिखाने का प्रयास करता है तो इसका मतलब वह बात-चीत कर रहा है | कोई भी विषय सीखने या पढ़ने लायक तभी है, जब वह पाठ्य पुस्तक का हिस्सा है | अगर कुछ शिक्षक इस तरह का प्रयास भी करते हैं, तो उनके बारे में कहा जाता है कि “अरे! वह पढाता थोड़ी न है, बात बना के चला आता है|” निरीक्षक कहते हैं कि उन्हें तुरंत पता चल जाता है कि कौन पढाता है और कौन बात बनाता है | यहाँ तक कि कभी-कभी बच्चे भी सवाल उठाते हैं और कहते हैं कि ‘सर, आज तो पढ़ा दो|’ बेचारे बच्चे भी क्या करें ‘कंडीशनिंग’ बरी गहरी है |
शिक्षकों का मशीनीकरण बहूत ही दुर्भाग्यपूर्ण है, मेरे अनुभव में अधिकतर निजी स्कूल इस दौर में काफी आगे निकल चुके हैं, सरकारी स्कूल भी उसी नक्शे कदम पर चलना चाहती है, जो की उचित नहीं है | जो मशीन बन चुके हैं, उनका मनुष्यीकरण बहूत ही कठिन है, परंतु लाखों की संख्या में शिक्षकों को मशीन बनने से रोका जा सकता है | अगर हम ऐसा नहीं कर पाए तो मनुष्य जैसा दिखने वाला हम मशीनों का एक समाज पैदा कर देंगे, जिसमें एक व्यक्ति सड़क किनारे घायल पड़े किसी व्यक्ति को देख कर यूँ ही निकल जाएगा क्योंकि उसे दफ्तर निर्धारित समय पे पहुँचना होगा | वह मनुष्य जैसा दिखेगा लेकिन मशीनों जैसा संवेदनहीन होगा | मशीनों का विकास नहीं होता है और अगर होता भी है तो मनुष्य के द्वारा होता है |
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