12 वीं के बाद...
देश के अलग-अलग हिस्सों में करीब-करीब 1.5 मिलियन बच्चे सीबीएसई के 12वीं बोर्ड की परीक्षा दे रहे हैं। अगले 2 से 3 सप्ताह में उनके सारे एग्जाम खत्म हो जाएँगे। जहाँ एक ओर कुछ बच्चों के लिए उनकी जिंदगी के सपनों का सफ़र शुरू होगा। वे स्कूल की अनुशासित ज़िंदगी और चार दीवारों से बाहर निकलकर यूनिवर्सिटी के उन्मुक्त प्रांगण में अपना कदम रखेंगे। वहीं दूसरी ओर लाखों बच्चे अपने सपनों के सफ़र के आखिरी दौर में होंगे। इस लेख में मैं उन बच्चों की बात कर रहा हूँ जो गरीब, कमजोर घरों से आते हैं और खासकर इनमें से अधिकतर बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं।
"क्या कर रहे हो आजकल" का जवाब यह कहते हुए देने~ "पढ़ाई कर रहा हूँ" का समय खत्म हो रहा है। आगे से किसी ने पूछ लिया कि कहाँ पढ़ाई करते हो? तो वे झट से अपने स्कूल का नाम बता देते थे। अगले दो साल इस सवाल से बचने और इसका कुछ उल्टा-पुल्टा उत्तर देने में बीत जाएगा जब तक कि वे अपनी वास्तविकता को स्वीकार कर पाएँगे। कुछ बच्चे फिर भी जवाब देंगे और यह पूछे जाने पर कि कहाँ पढ़ाई कर रहे हो? "ओपन से"
पूछने वाला इससे आगे फिर पढ़ाई के बारे में नहीं पूछता है। इस मामले में लड़कियों की हालत और खराब है। कइयों के माता-पिता ने तो शहर कभी नहीं लौटने के लिए उनके गाँव की टिकट बुक करा दी है। उन्हें बताया नहीं गया है लेकिन शायद साल-दो साल में शादी करवा दी जाएगी। स्कूल में अपनी बेटियों को पढ़ाने का इन अभिभावकों का उद्देश्य पूरा हो गया। लड़कियाँ पढ़ें, अपने पैरों पर खड़े हो, ये उनका मकसद नहीं था। अगर कुछ लड़कियाँ ऐसा कर पाती हैं तो यह माता-पिता की उम्मीद से आगे बढ़कर प्रदर्शन करना होता है अन्यथा उनकी उम्मीद यही थी कि उन्होंने 12वीं तक की पढ़ाई पूरी करवा कर 'पढ़ी-लिखी दुल्हन'(Schooled Bride) बनने के लिए अपनी बेटी को तैयार कर लिया है।
अपनी पारिवारिक परिस्थिति के कारण जो लड़कियाँ गाँव जाने से बच जाती हैं। उनमें से अधिकतर जॉब मार्केट में कदम रखती हैं। परिवार की लड़खड़ाती आर्थिक स्थिति, चमचमाते बड़े स्क्रीन के मोबाइल का शौक और उच्च शिक्षा की महँगाई, ये तीनों मिलकर करीब-करीब सरकारी स्कूल से पास होने वाले सभी बच्चों को यूनिवर्सिटी जाकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने से रोक देता है।
इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि 12वीं कक्षा के बाद उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों का प्रतिशत दुनिया के विकसित देशों की तुलना में हमारे यहाँ बेहद कम है। यह करीब-करीब 27% है। विकसित देशों में यह प्रतिशत 70 से 80 के आसपास है। नई शिक्षा नीति में, 2035 तक इसे बढ़ाकर 50% तक करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है।
स्कूलों में बच्चों को बनाए रखने के उद्देश्य से जिस प्रकार नीतिगत स्तर पर व्यापक परिवर्तन लाए गए जिसकी वजह से बड़ी संख्या में बच्चे 12वीं तक की पढ़ाई पूरी कर पाते हैं। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण योजनाएँ हैं; मिड डे मील स्कीम, बच्चों को स्कूल से ही किताब उपलब्ध करवाया जाना, यूनिफॉर्म के पैसे दिए जाना, कई तरह के स्कॉलरशिप की व्यवस्था और मुफ्त शिक्षा।
फ़ीस की भयावहता का अंदाजा इन बच्चों को पहली बार तब लगता है जब इन्हें सीबीएसई की परीक्षा के लिए रजिस्ट्रेशन करवाना होता है। हाल ही में सीबीएसई ने 10वीं और 12वीं की परीक्षा के लिए रजिस्ट्रेशन फ़ी को कई गुना बढ़ाते हुए 1500 से 2000 के आसपास कर दिया है। 10 से 15 हजार के मासिक आमदनी पर जीवन यापन करने वाले अभिभावक के लिए यह फ़ी भरना आसान नहीं होता है। सरकारी स्कूलों में कई बार शिक्षक आपस में पैसे कंट्रीब्यूट कर कुछ बच्चों की फ़ी का इंतजाम करते हैं।
यह ब्यौरा देना इसलिए ज़रूरी हुआ कि सरकारी कॉलेज में भी 1 वर्ष में 8 से 10 हज़ार की फ़ी भरना एक आम भारतीय परिवार से आने वाले बच्चों के लिए आसान नहीं होता है। ऊपर से कॉलेज आने-जाने का खर्चा और कुछ पॉकेट खर्च भी। दिल्ली कॉलेज की पढ़ाई में कुल मिलाकर 10 हज़ार के आसपास प्रति महीने का खर्च बैठता है। 2018 में अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट में यह बताया गया कि भारत में 82% पुरुष और 92% महिलाएँ 10 हज़ार से कम के मासिक वेतन पर अपना जीवन यापन करते हैं। हमारे अधिकतर बच्चे इन्हीं परिवारों से आते हैं। हम समझ सकते हैं कि क्यों यूनिवर्सिटी की पढ़ाई इनके लिए असंभव सा हो जाता है।
यूनिवर्सिटी की पढ़ाई से चूक जाने वाले हमारे कई बच्चे बाज़ार आधारित आर्थिक प्रक्रिया में हिस्सा लेंगे,कुछ पैसे भी कमाएँगे लेकिन वह एक महत्वपूर्ण पूँजी, 'सोशल कैपिटल' यानी कि सामाजिक पूंजी को बनाने से चूक पाएँगे जो अमूमन विश्वविद्यालय के प्रांगण में विकसित होते हैं। 12वीं तक की पढ़ाई अपने सामाजिक-आर्थिक हैसियत को चुनौती देने के लिए नहीं तैयार करता है। यह ज्यादा से ज्यादा बाजार आधारित अर्थव्यवस्था में इन्हें एक बेहतर उपभोक्ता बना देता है।
गरीब-कमजोर और पिछड़े घरों से आने वाले बच्चों की जिंदगी में अगर हम वास्तव में परिवर्तन चाहते हैं, अगर हम चाहते हैं कि वे अपने सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को चुनौती दे सकें तो हमें उन्हें विश्वविद्यालयों में लाना होगा। यह जिम्मेदारी अभिभावक नहीं उठा सकते।यह जिम्मेदारी राज्य को लेना पड़ेगा। वे तमाम सुविधाएँ उन्हें मुहैया करानी पड़ेगी जो स्कूली बच्चों के लिए करवाते हैं। नीतिगत स्तर पर व्यापक परिवर्तन लाना होगा। उच्च शिक्षा को भी पहुँच के दायरे में लाना होगा। अन्यथा हम लाखों-करोड़ों बच्चों को सामाजिक और सांस्कृतिक पूंजी निर्माण की प्रक्रिया से हमेशा-हमेशा के लिए बाहर धकेल कर 'सामाजिक पुनरुत्पादन' के चक्र में फँसा देते हैं। और इस तरह जाति, धर्म, पिछड़ापन और गरीबी की सीमाओं को मजबूती से बनाए रख पाते हैं।
Reference:
https://m.economictimes.com/jobs/92-female-82-male-workers-earn-less-th…
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