ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया को हमेशा से मानव सभ्यता के लिए आवश्यक माना गया है। हमारी आपसी बात-चीत ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया का एक अहम हिस्सा है। आधुनिक समय में ऐसा आसानी से देखा जा सकता है कि 'विशिष्ट ज्ञान' अमूमन यूनिवर्सिटी, कॉलेज और स्कूलों तक सीमित होकर रह जाता है।
स्कूली बच्चों को सामाजिक विज्ञान के अलग-अलग अवधारणाओं को पढ़ाते हुए कई बार ऐसा लगता है कि यह ज्ञान सहज रूप से सभी लोगों तक क्यों नहीं पहुंच पाता है। ऐसी कई अवधारणाएं है, जैसे 'एक से अधिक पहचान' की अवधारणा, सामाजिक और सांस्कृतिक पूंजी की अवधारणा, और ऐसे अनगिनत अवधारणाएं जो सामाजिक विज्ञान के शिक्षक के रूप में हम जानते हैं लेकिन हमारे आसपास के लोग नहीं जानते हैं। इस वजह से कई तरह की परेशानियां,गलतफहमियां और यहां तक कि संघर्ष की स्थिति भी पैदा होती है।
Social Science4SocialLife के फोरम पर हुई बातचीत के दौरान यह सहमति बनी कि हम कोशिश करेंगे कि हमारे किताबों में जो अवधारणाएं हैं हम उन अवधारणाओं और हमारे सामाजिक जीवन के बीच के रिश्ते को सामने लाएं। डॉक्टर बी पी पांडेय ने अपने संबोधन में इस बात पर जोर दिया कि सामाजिक विज्ञान जो शायद सबसे ज्यादा स्टीरियोटाइप का विषय बन चुका है जैसे कि... याद करना पड़ता है, बहुत बोरिंग है, इसे पूर्वाग्रह से बाहर निकालने की जरूरत है। बात-चीत के माध्यम से हम इसे कॉन्प्लेक्स सोशल प्रॉब्लम को समझने और उसका हल निकालने वाले एक जीवंत विषय के रूप में स्थापित कर सकते हैं।
Twitter Space पर आयोजित बातचीत में सभी सदस्यों ने SociaScience4SocialLife की अवधारणा के महत्व के बारे में अपने विचार रखे। अपने संक्षिप्त टिप्पणी में जन्मेजय जी ने यह साझा किया कि किस प्रकार उनके लिए अपने ही स्कूल में आदर्श और वास्तविकता की दुनिया एक हो जाती थी जब वे अपनी बेटी को सामाजिक विज्ञान की कक्षा में अन्य बच्चों के साथ पढ़ाते थे।
चर्चा में शामिल होते हुए हरीश जी, अंजू सचदेवा एवं मीनाक्षी मल्हारी मैडम ने अन्य विषयों जैसे अंग्रेजी और गणित के साथ सामाजिक विज्ञान के अवधारणाओं का समायोजन किस प्रकार हो और इसकी उपयोगिता के बारे में अपने विचार रखें। सब्जेक्ट डिसिप्लिन के बाउंड्री को कैसे कमजोर किया जाए इस संबंध में बोलते हुए वंदना जी ने एक उदाहरण साझा किया कि एक चार्ट-पापड़ी बेचने वाला भी हर वक्त यह सोचता है कि वह कैसे बेचने के तरीके और उसे बनाने के तरीके को बेहतर कर सके और शिक्षा में तो हमेशा ही यह गुंजाइश है कि हम लगातर इसको बेहतर करने के बारे में सोच सकते हैं।
इस संबंध में मैंने भी एक उदाहरण साझा किया जो मैंने प्रोफेसर अभिजीत पाठक के एक लेक्चर में सुना था। जहां वह कह रहे थे कि एक गणित का शिक्षक जब बच्चों से यह सवाल पूछता हैं कि पेप्सी की कीमत पिछले साल इतना था और इस साल इतना बढ़ गया तो कितने प्रतिशत का इजाफा हुआ है। अगर वही सवाल इस तरीके से पूछा जाए कि नींबू पानी पिछले साल इतने में मिल रहा था और इस साल कितने में मिल रहा है? इसमें कितने प्रतिशत का इजाफा हुआ और अगर नहीं हुआ तो क्यों? क्यों पेप्सी की कीमत तेजी से बढ़ता हैं लेकिन नींबू-पानी की कीमत तेजी से नहीं बढ़ता है ? इस प्रकार हम एक अलग तरह का कंससनेस बच्चों में जगा सकते हैं।
चंडीगढ़ से श्री गौरव गोयल इस परिचर्चा में शामिल हुए और उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि किस प्रकार हम करंट अफेयर्स को सामाजिक विज्ञान के कक्षा का हिस्सा बना सकें। चर्चा को आगे बढ़ाते हुए श्री आलोक मिश्र एवं विकास श्रीवास्तव ने इस बात को रेखांकित किया कि हमें अपने textbook में उन अवधारणाओं की पहचान करनी होगी जिसे हम दैनिक जीवन से जोड़ सकें। गुरविंदर जी एवं पंकज जी ने इस तरह की चर्चा की सार्थकता के बारे में अपने विचार रखें।
अभी शुरुआत में हम इसे एक साप्ताहिक चर्चा के रूप में शुरू कर रहे हैं। हर सप्ताह मंगलवार शाम 5:00 बजे समाजिक विज्ञान के हमारे एक साथी चर्चा को मॉडरेट करेंगे और हम अपने टेक्सबुक से किसी एक अवधारणा कि पहचान कर उसके बारे में बातचीत करेंगे। हमारी बातचीत के केंद्र में यह मुद्दा रहेगा कि अमुख अवधारणा सामाजिक जीवन जीने में हमें किस प्रकार मदद करती है और इसके महत्व को हम बच्चों को कैसे बता सकते हैं।
इस सम्बंध में विस्तृत जानकारी @reflectivediary पर मिल सकेगा
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