विद्यालय – एक वैकल्पिक नज़रिया

विद्यालय – एक वैकल्पिक नज़रिया

Posted on: Fri, 10/30/2020 - 16:49 By: admin

विद्यालय  एक वैकल्पिक नज़रिया

फिज़ा प्रियंवदा के कंधे पर चढ़ी हुई है| तोइबा और ज्योति रस्सी उच्छाल रही हैं, अमन बीच में कूद रहा है| कुछ बच्चे मैदान के एक कोने में पड़े एक कूड़े दान में से कुछ ढूँढने की कोशिश कर रहे हैं| स्कूल में एक वाटर टैंक बन रहा है, इस कारण मिट्टी की खुदाई हुई है….. उसी खुदी हुई मिट्टी से बना टीला मैदान में है……. कुछ बच्चे उस पर चढ़े हुए हैं और वहाँ से नीचे कूद  रहे हैं| कही-कही समूह में बच्चे खड़े हैं और बातचीत कर रहे हैं| एक मधुर-सी मुस्कान है इन सभी के चेहरे पर| एक से वस्त्र पहने हुए इन बच्चों के बीच कुछ रंग-बिरंगे वस्त्र पहने हुए बच्चे भी नज़र आ रहे हैं| इन रंग-बिरंगे वस्त्रों में जो बच्चे खेल रहे हैं, उन्होंने मेरा ध्यान आकर्षित किया| स्कूल में बच्चे शायद ही कभी रंगीन कपड़ों में नज़र आते हैं…….कभी-कभी जन्मदिन के अवसर पर या फिर स्कूल के ही किसी कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए| मैं इन बच्चों के पास गया……. इनके चेहरे भी अपरिचित हैं, लेकिन एक अजीब-सा उत्साह इनके चेहरे पर झलक रहा है| स्कूल आने की ऐसी ख़ुशी बहुत कम बच्चों के चेहरे पर नज़र आती है| धीरे–धीरे मैंने देखा कि स्कूल के मैदान में ये इतनी ख़ुशी के साथ इधर-उधर दौड़ रहे हैं, जैसे दौड़ना ही इनका  सबसे प्रिये काम हो| मैदान के एक किनारे पर कुछ झूले लगे हैं, इन बच्चों ने जम कर उन झुलों का लुत्फ़ उठाना शुरू किया| एक आध दिनों में स्कूल की बाकी सुविधाओं का भी इन्होंने लाभ उठाना शुरू किया| ‘मिड डे मिल’ योजना का खाना बच्चे बड़े चाव से खाते हुए नज़र आ रहे हैं|

सर्दी का यह महीना है और सुबह के 11 बजे की यह तस्वीर दिल्ली के एक सरकारी स्कूल की है| बच्चे लंच ब्रेक में अपनी कक्षा से निकल कर मैदान में आए हैं| हल्की-हल्की धूप खिली हुई है और बच्चे शिक्षकों की नज़रों से दूर इसका आनंद उठा रहे हैं|

उत्सुकता के कारण मैंने इन बच्चों के बारे में जानकारी ली, बच्चों से भी बात-चीत की और इनको पढ़ाने वाले अध्यापकों से भी| इनकी उम्र 8 वर्ष से 17 वर्ष के बीच है| हाल ही में स्कूल में सर्व शिक्षा अभियान के तहत स्कूल नहीं आ रहे बच्चों को स्कूल में लाया गया है| इसके लिए 3 शिक्षकों की नियुक्ति अनुबंध के आधार पर की गई है| बच्चों से बात-चीत के दौरान मुझे लगा कि स्कूल इन बच्चों के लिए एक अलग मायने रखता है| स्कूल से इनकी उम्मीदें और आशाएँ कुछ अलग होती हैं| बेंच पर बैठना, खुले मैदान में खेलना, जी भर कर खाना और पानी पीना, झूले झूलना, दोस्तों और शिक्षकों से बात-चीत करना, शायद इन बच्चों के लिए ज़्यादा मायने रखता है| कुछ देर इन बच्चों के साथ रहने पर मुझे एहसास हुआ कि इनके अपने ही अनुभव हैं जिन्दगी के, इनकी अपनी भाषा है, और स्कूल अगर इसको जगह दे पाए तो यही शायद स्कूल के लिए एक बड़ी उपलब्धि होगी| कुछ ही देर में मुझे पता चला कि इनकी शब्दावली भी कितनी अलग है, पानी को ये कच्चा पानी और पक्का पानी कहते हैं, शिक्षक को ‘तू’ कहकर पुकारते हैं| मैडम को कह रहे हैं कि तुम ‘करीना कप्पोर’ जैसी लगती हो| एक दम निडर और साहसी हैं ये बच्चे| इनकी बातों को थोड़ी देर तक सुन कर मुझे लगा कि हम लोग बच्चों को क्या से क्या बना देते हैं| हमारे ‘आदर्श’ बच्चे अपनी बोतलों से पानी पीने के लिए भी शिक्षक से पूछते हैं|

अब ये बच्चे हमारे यहाँ नहीं आते हैं| तय आपको करना है कि ऐसा क्यों हुआ होगा?

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मुझे ऐसा लगता है कि स्कूल को लेकर जो हमारे मन की अवधारणा है उस पर प्रश्न उठाने की जरुरत है| आधुनिक स्कूल बच्चों को सिर्फ़ आज की बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था के लिए तैयार करती है और स्कूलों का मूल्यांकन सिर्फ़ इसी आधार पर होने लगा है कि स्कूल कितने बच्चों को बाज़ारी अर्थव्यवस्था के लिए तैयार कर पाती है| स्कूल के मूल्यांकन का यह सीमित आधार स्कूल के काम-काज पर बहुत ही बुरा असर डालता है| सभी स्कूल इस होड़ में शामिल हो चुके हैं और सरकारी स्कूल जो कि इस दौड़ में पिछड़ती हुई नज़र आ रही है, इस व्यवस्था के परिणाम को भुगत रही है| मीडिया और कॉर्पोरेट लॉबी सरकारी स्कूल की व्यवस्था को एक असफल व्यवस्था मानती है और धीरे- धीरे समाज के मध्य वर्ग ने भी इसको स्वीकार कर लिया है|

ऊपर जिन बच्चों से मैंने आपका परिचय कराया, क्या विद्यालय का अनुभव उन बच्चों का अधिकार नहीं है? अगर है तो क्या निजी स्कूल बच्चों को इस तरह के अनुभव प्रदान करवा सकती है? औद्योगिक शहरों में, हाल ही में झुग्गियों में रहने वाले लोगों की संख्या काफ़ी बढ़ी है| यहाँ पर पलने-पढ़ने वाले बच्चों के लिए स्कूल एक ‘स्पेस’ के रूप में बहुत अहम् हो गया है| ग्रामीण समाज में बच्चे सामाजीकरण के जिस दौर से गुजरते हैं, वह सुविधा इन बच्चों को नहीं मिल पाती है| ऐसे में स्कूल को यह भूमिका भी निभानी होगी| कई सरकारी स्कूल बखूबी इस काम को कर भी रहे हैं|

स्कूल परिसर में बच्चे क्या-क्या सीखते हैं इसका सही-सही मूल्यांकन कर पाना कठिन है| लेकिन स्कूल का अनुभव सभी बच्चों के लिए अहम् है और खासकर इन बच्चों के लिए| मूल्यांकन के हमारे सीमित नज़रिए या यूँ कहें कि ‘एक्सक्लूसिव एप्रोच’ ने हजारों बच्चों को स्कूल से बाहर कर दिया है| इन बच्चों के लिए स्कूलिंग एक अनुभव के रूप में एक खास उम्र तक हो, मैं इस का समर्थन करता हूँ और किसी भी आधार पर अगर इन बच्चों को स्कूलिंग के इस अनुभव से वंचित रखा जाता है तो मैं इसको बाल अधिकार का उल्लंघन मानता हूँ|