स्कूल रिफॉर्म सीरीज में आज बात करते हैं स्कूल और समुदाय के बीच के संबंध का। ऐसा नहीं है कि हर चीज यहीं आकर मुझे देखने को मिला है,सिर्फ यह फर्क है कि जो बातें हमारे यहां अभी विचारों के स्तर पर है उसको यहां धरातल पर देखा जा सकता है। स्कूल और समुदाय के बीच संबंध को लेकर जो बातें मुझे अपने यहां सीखने को मिला है, यहां मैं उसका विस्तार देख पाया हूं। अक्सर मैं अपने दोस्तों के साथ बात करते हुए इस संबंध में अजय चौबे, सर को कोट करता हूं, वे अकसर कहते हैं कि ‘स्कूल बिेलोंगस टू कम्युनिटी’ । उनका यह विचार संदर्भों में समाहित है,समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण लिया हुआ है, अमेरिका की स्कूलों में यही बात थोड़ी सी डिस्टॉर्टेड फॉर्म में देखने को मिला और यहां शिक्षको के बीच ऐसी मान्यता है कि ‘Here the parents rule’।
दोनों ही बातों का थोड़ा सा पड़ताल कर लेते हैं। जब हम यह मानते हैं कि ‘स्कूल बिलॉन्ग टू कम्युनिटी’ तो वास्तविक अर्थों में हम स्कूल को कम्युनिटी के ही एक विस्तार के रूप में देखते हैं। स्कूल कोई चिरकालिक संस्था तो है नहीं, आधुनिक स्कूल व्यवस्था बहुत पुराना नहीं है। समाज जब जटिल होने लगा होगा, लोगों ने इस बात की जरूरत महसूस की होगी कि अपने ही बीच से कुछ लोगों को भविष्य की चुनौतियों से निपटने के लिए बच्चों को प्रशिक्षित करने की जिम्मेदारी दे दी जाय। समय के साथ-2,यह दोनों संस्थाएं इतनी अलग-अलग तरीके से विकसित होती गई कि एक संस्था के रूप में स्कूल यह भूल चुकी है कि वह समुदाय से ही निकली हुई है। कई स्कूलों में तो ऐसा माहौल बना दिया गया है कि समुदाय से कोई व्यक्ति अगर उसके अंदर कदम रखता है,वह घबराता है। स्कूल के गर्भ गृह यानी कि प्रिंसिपल के कमरे तक पहुंचते-पहुंचते तो पसीने आ जाते हैं।
लोगों की तरह, हमारे स्कूल भी होमोजीनियस नहीं है, एक तरफ अगर ऐसे स्कूल है जहां पेरेंट्स जाते हुए घबराते हैं तो दूसरी तरफ हमारे पास ऐसे भी स्कूल है जहां पेरेंट्स के आने से प्रिंसिपल और शिक्षक घबराए हुए रहते हैं। अमेरिकी स्कूल में जब यह बात हमें बताई गई कि ‘Here the parents rule’ तो इसका यही तात्पर्य है कि पेरेंट्स काफी डोमिनेटिंग है और शिक्षकों को उससे थोड़ी परेशानी होती है। और थोड़ी भी क्या यहां तो स्कूल प्रशासन पूरी तरह से पेरेंट्स बॉडी के हाथ में ही है।
भारत,अमेरिका, लैटिन अमेरिका, अफ्रीका के कुछ देश, मध्य पूर्व के कुछ देश तथा रसिया,इन सभी जगहों से आए हुए शिक्षकों से बातचीत में जो एक बात सामने आई की स्कूल चाहे किसी भी तरह का हो शिक्षक और पेरेंट्स लाइन के दो अलग-अलग साइड में खड़े हैं। ऐसा लगता है जैसे एक-दूसरे के खिलाफ है। और यह बहुत ही अफसोस की बात है। बच्चों की भलाई के लिए दोनों को ही अपनी रिसोर्सेज को एक साथ लाकर, काम करने की जरूरत है। बहुत जरूरी है की स्कूल पेरेंट्स के अंदर विश्वास पैदा करे,स्कूल में उनका स्वागत करे और साथ ही जब पेरेंट्स स्कूल में आते हैं तो उनमें एक कमिटमेंट हो कि वे स्कूल को कुछ देने के लिए आए है। अपने संसाधनों से और अपने अनुभव से स्कूल की व्यवस्था को और मजबूत बनाने आए हैं। पर इस बात को मान लेने में कोई बुराई नहीं होगी कि स्कूल अंततः समुदाय का ही है, स्कूल समुदाय से ही आया है। भारत में निजी स्कूलों में एक नया ट्रेंड चल पड़ा है जहां पेरेंट्स को कस्टमर्स की तरह ट्रीट किया जाता है। स्कूल और समुदाय के आपसी रिश्ते को यह नया ट्रेंड बर्बाद कर सकता है।
आप सबको आज Sarah Lawrence Lightfoot के द्वारा दिए हुए एक भाषण के लिंक के साथ छोड़ता हूं। Sarah, हार्वर्ड में प्रोफेसर हैं, और आजीवन कम्युनिटी और स्कूल के रिश्ते पर उन्होंने काम किया है। इन्होंने कई किताबें भी लिखी है जिसमें सबसे प्रमुख किताब है एसेंशियल कन्वर्सेशन।
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