School reform series # classroom management
अमेरिकी शिक्षा व्यवस्था से प्राप्त अनुभव के आधार पर मैं उन कुछ बदलावों की बात कर रहा हूं, जिसे अपने यहां की शिक्षा व्यवस्था में कुछ बदलावों के साथ लागू किया जा सकता है। इसके पहले अंक में मैंने लेसन प्लानिंग की बात की थी और आज दूसरे अंक में मैं बात करना चाहता हूं # classroom management की।
पढ़ने लिखने की संस्कृति में जो भी बदलाव होना है वह तो क्लास रूम से ही होना है इसलिए क्लासरूम मैनेजमेंट बहुत ही महत्वपूर्ण विषय बन जाता है। मेरे अनुभव के अनुसार भारत में और अमेरिका में क्लासरूम मैनेजमेंट को लेकर जो अवधारणा है वह बहुत अलग-अलग है। भारत में चाहे वह सरकारी स्कूल हो या निजी स्कूल इस बात पर खास जोड़ दिया जाता है कि क्लास रूम में जब बच्चे बैठे हैं तो वह बिल्कुल शांत होकर बैठे रहें और शिक्षक की बातों को सुनते रहे। इस बात पर कभी गौर नहीं किया जाता है कि आखिर कब तक सुनते रहे। अब,जब मैं विद्यार्थी के रूप में यूनिवर्सिटी के कक्षाओं में 2 घंटे 3 घंटे के लिए बैठता हूं तो नींद सी आने लगती है, क्लास रूम से बाहर निकलने का मन करता रहता है और इस बात की यहां आजादी है तो हम निकल भी जाते है।
अपने यहां तो हम शिक्षकों की बड़ी कामना होती है कि हमें पढ़ाने के लिए बच्चे नहीं,बुद्ध मिले -एक दम शांत। कोई शिक्षक कैसा पढ़ाते हैं इस बात का भी लेखा-जोखा इसी से होता है कि उनकी क्लास में बच्चे कितने शांत होकर के बैठते हैं। इसमें शिक्षक की भी गलती नहीं है उनसे उम्मीद ही ऐसी की जाती है कि वह बच्चों को शांत रखें। इसके लिए अक्सर शब्द इस्तेमाल किया जाता है कि डिसिप्लिन करके रखें। एक व्यापक परिपेक्ष में अगर इसको देखें तो यह समस्या सिर्फ शिक्षक और बच्चों का ही नहीं है, हमारे समाज की संरचनात्मक ढांचा ऐसा है जिसमें हर ताकतवर समूह अपने से कम ताकतवर समूह को शांत करके रखना चाहता है। शिक्षक बच्चों को शांत रखना चाहते हैं, प्रिंसिपल शिक्षकों को, अधिकारी प्रिंसिपल को, और इस तरह से यह एक लंबी कड़ी सी बनती जाती है। लेकिन एक लोकतांत्रिक समाज के लिए यह आदर्श स्थिति नहीं है। एक मजबूत लोकतंत्र की तो निशानी ही यह है कि लोग सवाल उठाने के लिए कितने स्वतंत्र हैं?
यहां स्कूल में प्रिंसिपल से जब मेरी बात हो रही थी तो उन्होंने बताया कि जब वह किसी कक्षा के बगल से गुजरते हैं तो इस बात पर उनकी खास ध्यान होती है कि बाहर आवाज किसकी आ रही है- शिक्षक की या बच्चे की। अगर बाहर बच्चों की आवाज़ आ रही है तो इसका मतलब क्लास में कुछ अच्छा काम हो रहा है और अगर शिक्षक की आवाज आ रही है तो इसका मतलब है कि शिक्षक को पढ़ाना सीखने की जरूरत है। यहां की स्कूलों में पूरी कोशिश की जाती है कि शिक्षक जितना कम से कम बोले क्लास में उतना ज्यादा अच्छा है। शिक्षक पूरी तरह से फैसिलिटेटर की भूमिका में होते हैं। बोलने से ज्यादा समय शिक्षक यह सोचने में लगाते हैं कि किस तरह बच्चों को अलग-अलग प्रोजेक्ट में इंगेज किया जाए जहाँ वह खुद से कुछ काम करें। इस संबंध में एक दो बातेंं बहुत महत्वपूर्ण है
-
यहां एक पीरियड के बाद दूसरे पीरियड में शिक्षक नहीं, बच्चे एक क्लासरूम से निकलकर से दूसरे क्लासरूम में जाते हैं।
-
करीब-करीब हर शिक्षक को एक क्लासरूम मिला हुआ है जो क्लासरूम के साथ साथ उनके लिये ऑफिस का काम भी करता है।
-
क्लास रूम के अंदर बच्चे अक्सर ग्रुप में बैठे हुए नजर आते हैं, शिक्षक कुछ निर्देश भी दे रहे हो तो यह जरूरी नहीं है कि बच्चे शिक्षक की तरफ देखते हों।
-
बच्चों को बैठने के लिए मूवेबल चेयर और टेबल लगे हुए हैं, बच्चों को अलग-अलग ग्रुप वर्क के लिए बांटना इस कारण से आसान हो जाता है।
मुझे लगता है कि यह कोई बड़ी बात नहीं है।एक शिक्षक भी अपने स्तर पर इन बदलावों को अपने क्लास रूम में ला सकते हैं।हालांकि कोई भी नया काम चुनौती भरा तो होता ही है लेकिन अगर अपने काम को लेकर के आप में आत्मविश्वास होता है तो फिर वह काम आप आसानी से कर पाते हैं।
दिल्ली में काम कर रहे शिक्षकों के लिए यह एक बेहतरीन समय है। वह हर बदलाव स्वागत के योग्य है जो बच्चों के पढ़ने लिखने की क्षमता को बढ़ाता है। यह एजुकेशन रिवोल्यूशन का दौर है और इस बदलाव में शामिल सभी लोगों का शिक्षा व्यवस्था में स्वागत है,यह मैं अपने अनुभव से कह सकता हूं।
- Log in to post comments