हिंदी, परसाई और गुरुजन की व्यथा
आज हिंदी दिवस है—एक ऐसी भाषा जो इस देश के करोड़ों लोगों को आपस में जोड़ती है। एक बड़ी आबादी के लिए यह भाषा सहज उपलब्ध है। इस भाषा में रचे गए गीत, सिनेमा और साहित्य हमारे व्यक्तित्व को गढ़ते हैं। हिंदी का एक समृद्ध साहित्य है और मुझे इस साहित्य से गहरा लगाव है।
वैसे मैं साहित्य का विद्यार्थी नहीं रहा हूँ, लेकिन सामाजिक विज्ञान साहित्य के बिना अधूरा है। पिछले दो दशकों से अनेक हिंदी साहित्यकारों की रचनाओं के माध्यम से मेरा नुक्ता-ए-नज़र विकसित हुआ है। मेरे ख्याल से इसमें सबसे अधिक असर हरिशंकर परसाई जी का रहा है। उनकी संपूर्ण रचनावली छह खंडों में प्रकाशित है और मैंने सभी खंड पढ़ लिए हैं।
आज उन्हीं का एक लेख मैं यहाँ संलग्न कर रहा हूँ। यह लेख उन्होंने 1948 में शिक्षकों पर लिखा था। हाल ही में शिक्षकों की स्थिति पर सर्वोच्च न्यायालय की भी एक टिप्पणी आई है, जिसमें कहा गया है कि केवल सम्मान देने से काम नहीं चलता, उनका वेतन भी सम्मानजनक होना चाहिए। 1948 में हरिशंकर परसाई यही बात लिख रहे थे।
कुछ मामलों में कितनी निरंतरता है—शिक्षकों की दयनीय हालत में पिछले 75 वर्षों में कोई खास बदलाव नहीं आया है। बहरहाल, हिंदी दिवस के मौके पर हरिशंकर परसाई जी का लिखा यह लेख पढ़ते हैं…
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