सार्वजनिक शिक्षा लोकतंत्र के विस्तार की कुंजी है।
१८वीं लोकसभा के गठन के लिए देश में चुनाव का उत्सव अपने चरम पर है। इसमें कोई शक नहीं की विविधताओं से भरे इस देश में लोकतंत्र की सफलता दुनिया के लिए एक मिसाल है। अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद अभी तक लोकतंत्र दुनिया में शासन की सबसे बेहतरीन प्रणाली मानी जाती है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता, समानता और न्याय के लिए लोकतांत्रिक प्रणाली प्रतिबद्ध होती है। लोकतंत्र की गहरी जड़ों से जुड़ा हुआ है सार्वजनिक शिक्षा का उद्भव और विस्तार।
यूँ तो भारत में शिक्षा व्यवस्था का इतिहास हजारों साल पहले शुरू होता है, लेकिन सार्वजनिक शिक्षा लोकतंत्र की तरह एक बहुत ही आधुनिक अवधारणा है। कुछ वर्ग और समूह के लिए शिक्षा की व्यवस्था अलग-अलग समय पर समाज में हमेशा से रही है, लेकिन सबके लिए शिक्षा की व्यवस्था एक आधुनिक अवधारणा है। क्या सार्वजनिक शिक्षा एक गैर लोकतांत्रिक व्यवस्था में संभव है?
यह बहुत हद तक गैर लोकतांत्रिक व्यवस्था में शासकों के व्यक्तित्व पर निर्भर करता है, लेकिन लोकतंत्र यह चुनाव शासकों के व्यक्तित्व पर नहीं छोड़ता है, बल्कि अपनी संस्थाओं के जरिए यह सुनिश्चित करता है कि शासक चाहे जो भी हो, शिक्षा की व्यवस्था सबके लिए जरूर होनी चाहिए।
आजादी के बाद से सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था का लगातार विस्तार हुआ है। प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्तर पर इसका सार्वभौमीकरण हो चुका है, यानी कि करीब-करीब सभी बच्चों का किसी न किसी स्कूल में दाखिला हो गया है। उच्च शिक्षा क्षेत्र में अभी और भी काम होना बाकी है। लेकिन 1990 के दशक से निजी पूंजी से पोषित निजी संस्थानों का शिक्षा क्षेत्र में बड़े स्तर पर दखल अंदाजी शुरू हुआ है। स्कूली शिक्षा में निजी पूंजी से पोषित निजी संस्थाओं की भागीदारी करीब 50% तक पहुंच चुकी है। सार्वजनिक शिक्षा लगातार सिकुड़ रही है।
अगर लोकतंत्र की गहराई और विस्तार से सार्वजनिक शिक्षा का एक रिश्ता है तो क्या सार्वजनिक शिक्षा के दायरे में लगातार हो रही कटौती का लोकतंत्र के सिकुड़ने से भी कोई रिश्ता है?
हाल ही में समाचारों में गलगोटिया यूनिवर्सिटी की एक घटना लोगों के सामने आयी और इस प्रश्न का जवाब इस घटना से बहुत हद तक मिलता है। निजी पूंजी कुछ निजी एजेंडा के साथ शिक्षा में निवेश करती है, इस निवेश का मकसद समता, बराबरी और न्याय के सिद्धांतों पर आधारित समाज के निर्माण का नहीं होता है, बल्कि किसी तरह मुनाफा कमाने का होता है। और मुनाफा कमाने के होड़ में ये संवैधानिक सिद्धांतों से समझौता कर लेते हैं। कुछ मामलों को छोड़ दिया जाए तो यह निजी पूंजी की प्रकृति है।
निजी पूंजी आधारित शिक्षा व्यवस्था लोकतंत्र के लिए पोषक नहीं हो सकती है, लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं कि हमारी व्यवस्था में इसके लिए कोई जगह नहीं हो। चिन्हित क्षेत्रों में निजी पूंजी के निवेश को बढ़ावा दिया जाना चाहिए, और उसके प्रभाव एवं विस्तार पर कड़ी निगरानी होनी चाहिए। विद्यालय एवं विश्वविद्यालय में भवनों के निर्माण, आधुनिक लैब, खेल के संसाधन इत्यादि के क्षेत्र में इन निवेशों को बढ़ावा देना चाहिए। लेकिन करिकुलम निर्माण, शिक्षक प्रशिक्षण इत्यादि के क्षेत्र में उनकी भूमिका को सीमित किए जाने की खास आवश्यकता है। और हमारे पास इसका एक बहुत बड़ा उदाहरण शिक्षक प्रशिक्षण के क्षेत्र में निजी निवेश के द्वारा पोषित कॉलेज का है। पूरे देश में निजी कॉलेज जो B.Ed और शिक्षक के अहर्ता से जुड़ी अन्य डिग्रियां बाँटती हैं, शिक्षक प्रशिक्षण के क्षेत्र की पूरी संरचना को ध्वस्त कर चुकी है। यह संतोष की बात है कि नई शिक्षा नीति ने इस समस्या को पहचाना है और इसको दुरुस्त करने के लिए सुझाव भी दिए हैं। जिसमें एक महत्वपूर्ण सुझाव है कि “स्टैंड अलोन” B.Ed कॉलेजों को बंद कर दिया जाना चाहिए, और B.Ed कॉलेजों को यूनिवर्सिटी का हिस्सा बनाया जाना चाहिए।
हमारे देश की एक बहुत बड़ी आबादी के जीवन में किसी भी तरह की गतिशीलता (Social mobility) शिक्षा के जरिए ही संभव है, और यह काम सिर्फ सार्वजनिक शिक्षा कर सकती है। निजी पूंजी द्वारा पोषित शिक्षा संस्थान तमाम अवरोधकों का इस्तेमाल करके बड़ी आबादी को शिक्षा तक उनकी पहुंच को कठिन बनाती हैं। समानता, स्वतंत्रता और न्याय के सिद्धांतों पर आधारित समाज निर्माण में सार्वजनिक शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका है और सार्वजनिक शिक्षा सुनिश्चित करने में लोकतंत्रिक व्यवस्था की बड़ी भूमिका है। यह चुनाव सिर्फ़ सरकार चुनने के लिए नहीं है, बल्कि सार्वजनिक शिक्षा के विस्तार की संभावनाओं को जिन्दा बनाये रखने का भी चुनाव है |
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