सवाल शिक्षक के पेशे के प्रति संस्थागत अवहेलना का है |  

सवाल शिक्षक के पेशे के प्रति संस्थागत अवहेलना का है |  

Posted on: Sun, 08/27/2023 - 13:52 By: admin
Teaching

 

                                सवाल शिक्षक के पेशे के प्रति संस्थागत अवहेलना का है|

 

 

हाल ही में उत्तर प्रदेश के जिला मुजफ्फरनगर से एक 'चौंकाने' वाली घटना सामने आई है और मीडिया में इसको लेकर भारी आक्रोश है। इस घटना का किसी ने वीडियो रिकॉर्डिंग कर लिया और इसे सोशल मीडिया साइट्स पर अपलोड कर दिया । समाज के अलग-अलग वर्ग के लोगों ने इस घटना को लेकर आपत्ति जताई है और शिक्षक के ऊपर कार्यवाही की मांग की जा रही है।

 

शिक्षा से सरोकार नहीं रखने वाले लोगों के लिए इस तरह की प्रतिक्रिया देना बहुत ही आम बात है। यह घटना एक जघन्य अपराध है और इसमें शिक्षक के प्रति उचित कानूनी कार्यवाही तो होनी ही चाहिए लेकिन साथ में हमें कुछ और प्रश्नों पर भी विचार करना चाहिए।

 

गरीब बच्चों की शिक्षा भारत में हाशिये का विषय है। इसे समझना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है, लाखो की संख्या में रिक्त पद, अनुबंध पर आधारित नौकरी, और टूटी-फूटी भवन, यह समझने  के लिए काफ़ी है | अगर हम इस प्रश्न पर विचार करें कि इस पेशे में कौन आ रहा है,तो चित्र और  स्पष्ट हो जाएगा।

 

शिक्षक के पेशे में आने वाले अधिकतर लोग इस पेशे को अपने अंतिम चुनाव के रूप में लेते हैं; जब वे कहीं और सफल नहीं हो पाते हैं तो अंत में शिक्षक के पेशे में आ जाते हैं। पिछले दो-तीन दशक में जिस कदर देश के अलग-अलग हिस्सों में स्थापित विश्वविद्यालयों का पतन हुआ है इसका असर शिक्षक की शिक्षा पर भी पड़ा है। अधिकतर ऐसे शिक्षक हैं जिन्होंने नियमित रूप से स्नातक की पढ़ाई नहीं की है यानी कि उन्हें कॉलेज जाने का मौका नहीं मिला है। उनके पास डिग्री है लेकिन बिना नियमित रूप से कॉलेज गए!

 

बिना उचित स्नातक और स्नातकोत्तर शिक्षा को ग्रहण किये, एक बेहतर शिक्षण की कल्पना वास्तविकता के धरातल पर खड़ी नहीं उतरती है। शिक्षक-प्रशिक्षण की तो बात करना ही अनुचित होगा। कुछ उदाहरणों को छोड़ दें तो शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान की व्यवस्था हमारे देश में करीब-करीब समाप्त हो चुकी है। B.Ed की डिग्री पैसे खर्च कर आसानी से मिल जाती है।

 

इस पृष्ठभूमि को सामने रखना इसलिए जरूरी होता है कि अधिकतर शिक्षक उस मौके से दूर रहे जहाँ उन्हें संस्कार में मिले पूर्वाग्रहों को तर्क की कसौटी पर जाँचने और परखने का मौका मिलता। कॉलेज की शिक्षा इस संदर्भ में बहुत मददगार साबित होती है। हालाँकि वह इस बात की गारंटी नहीं देती है कि कोई व्यक्ति जिसने नियमित रूप से कॉलेज की शिक्षा ग्रहण की है वह अपने पूर्वाग्रहों से बाहर आ जाएगा, लेकिन एक मौका तो जरूर उपलब्ध करवाती है।

 

शिक्षा के नीतिगत दस्तावेजों पर भी अगर हम नजर डालते हैं तो वह इसे एक दक्ष पेशे के रूप में नहीं मानती है। जिस तरह आए दिन समाचार पत्रों में समाचार छपता रहता है कि किस प्रकार शिक्षकों को अलग-अलग तरह के प्रशासनिक कार्यों में संलग्न कर दिया जाता है, कम से कम इससे इतना तो स्पष्ट होता ही है कि शिक्षण के पेशे को स्पेशलाइज्ड स्किल के रूप में नहीं लिया जाता है।

 

ऐसे में यह उम्मीद करना कि भारत के स्कूलों में पढ़ा रहे लाखों शिक्षक अपने पूर्वाग्रहों से बाहर आकर छात्रों को पढ़ा पाएँगे एक अनुचित माँग है!

 

गनीमत है कि कक्षा में होने वाली बहुत सी बातचीत वहीं दबकर रह जाती है, कभी कोई अंबेडकर उन अनुभवों को बाहर लाते हैं तो कभी कोई ओमप्रकाश वाल्मीकि बनकर, और अब आज के जमाने में कभी-कभी कुछ वायरल वीडियो के जरिए बाहर आ जाता है, अन्यथा 77 साल के स्वतंत्र भारत के इतिहास में, हमारी शिक्षा व्यवस्था ने सामाजिक कुरीतियों को कम करने में कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाई है। धार्मिक और जातिगत पूर्वाग्रह अपनी जगह बनी हुई है, लैंगिक समानता के मामले में भी कोई बड़ा उलट फेर नहीं हो पाया है।

 

वैश्विक बाजार में काम करने के लिए हमने कामगारों की एक फौज जरूर तैयार की है। और इसे ही हम अपनी शिक्षा व्यवस्था की उपलब्धि मान रहे हैं। हालॉंकि नीतिगत दस्तावेजों में यह बात रेखांकित की गई है कि कोई भी शिक्षा व्यवस्था अपने शिक्षकों की योग्यता के बाहर नहीं जा सकता है, इसके बावजूद लगातार इस पेशे को बेहतर बनाने पर ध्यान नहीं दिया गया।