शिक्षा के सुनहरे भविष्य की उम्मीद जगाता है राजनीतिक हस्तक्षेप ?
पिछले हफ्ते दिल्ली के शिक्षा मंत्री श्री मनीष सिसोदिया का गुजरात के स्कूलों का दौरा सुर्खियों में रहा,साथ ही भारतीय जनता पार्टी के सांसदों का दिल्ली के स्कूलों का निरीक्षण भी सुर्खियों में छाया रहा। हाल ही में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री दिल्ली के स्कूलों को देखने आए थे। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल करीब- करीब अपने सभी संबोधनों में शिक्षा और स्कूल का जिक्र करते हैं और अमूमन स्कूलों को देखने भी जाते हैं।
राजनीतिक नेताओं का स्कूली दौरा या शिक्षा से संबंधित मुद्दों पर राय रखने को कैसे देखा और समझा जा सकता है?
लोगों एक बड़ा समूह इसे अनावश्यक मानता है। उन्हें लगता है कि शिक्षा में राजनीतिक दखलअंदाजी से किसी का भला नहीं होता है। यह सिर्फ दिखावा होता है। यहां वे शिक्षा और राजनीति के संबंधों को देखने और समझने में भूल कर बैठते हैं। किसी भी लोकतांत्रिक देश में शिक्षा, राजनीति से अलग नहीं हो सकता है। और अगर एक बड़ा समूह इस बात को मानता है कि राजनीति का शिक्षा में हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए तो यह शिक्षा के राजनीति की विफलता है कि उसने एक अहम मुद्दे पर जनता को अंधेरे में रखा हुआ है।
बहरहाल, इस बात में कोई दो राय नहीं कि शिक्षा का राजनीति से गहरा संबंध है। मैं अपने अन्य लेखों में भी इस विषय के बारे में लिखता रहा हूं। कक्षा के अंदर हम क्या पढ़ाते हैं? किताबों में क्या लिखा हुआ है? शिक्षकों की सेवा शर्तें क्या होंगी? छोटी से छोटी हर बात राजनीति तय करती है। हम शिक्षा और राजनीति के इन संबंधों को जितनी जल्दी और जितनी स्पष्टता से देख पाएंगे शिक्षा के लिए उतना ही भला होगा।
राजनीतिक नेताओं का स्कूलों का दौरा एक बहुत ही स्वागत योग्य कदम है। अगर इन दौरों का सिलसिला जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब शिक्षा के क्षेत्र में भी सुनहरे भविष्य की कल्पना की जा सकती है। लोकतंत्र में जो मुद्दे राजनीतिक विमर्श का विषय नहीं बन पाती है उसे दरकिनार कर दिया जाता है। राजनीतिक नेताओं के स्कूल दौरे और शिक्षा से जुड़े हुए मुद्दों पर उनके बयान, शिक्षा को राजनीतिक विमर्श के दायरे में लेकर आती है।
हाल ही में कृष्ण कुमार के एक लेख को पढ़ते हुए एक अहम विषय ने मेरा ध्यान आकर्षित किया। स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले देश के शीर्ष नेताओं,गांधी, टैगोर, जाकिर हुसैन जैसी शख्सियत, शिक्षा से संबंधित मुद्दों पर बोलते थे,लिखते थे और संस्थानों के निर्माण में अपनी भूमिका निभाते थे। यह भारत का दुर्भाग्य रहा की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद चोटी के नेताओं ने शिक्षा के मुद्दों से एक दूरी बना ली।
दिल्ली के मुख्यमंत्री श्री अरविंद केजरीवाल देश के एक बड़े राजनीतिक शख्सियत हैं। शिक्षा के मुद्दों पर लगातार बोलते हैं,संस्थानों के निर्माण में रुचि लेते हैं। उनके नेतृत्व में दिल्ली में लगातार पिछले 7 वर्षों में शिक्षा के बजट पर कुल बजट का 25% हिस्सा खर्च किया जा रहा है। अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, अतिशी मरलेना जैसे बड़े राजनीतिक शख्सियत जब लगातार शिक्षा के मुद्दों में दिलचस्पी ले रहे हैं, तो सवाल यह उठता है कि क्या ज्यादा दिनों तक देश के अन्य हिस्सों में शिक्षा से जुड़े सवालों पर आंखें मूंदना संभव हो सकेगा?
शायद नहीं! जैसा कि हम अन्य मुद्दों के संदर्भ में देख सकते हैं। देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग अलग राजनीतिक दल बिजली और पानी मुफ्त में जनता को मुहैया कराने का वादा कर रही है। महिलाओं के लिए लोक परिवहन की मुफ्त में व्यवस्था की जा रही है। इस सब का प्रयोग दिल्ली से ही शुरू हुआ था। कई राज्य सरकारों ने अपने मंत्रियों और अधिकारियों के समूह को दिल्ली के स्कूलों में शिक्षा व्यवस्था में हुए परिवर्तन को देखने और समझने के लिए भेजा है। राजनीतिक बयानबाजी इस मुद्दे पर थोड़ा कम है लेकिन बदलाव की शुरुआत हो चुकी है। नए भवन भले ही नहीं बनाए जा रहे हो, रंग-रोगन की शुरुआत हो चुकी है। और ऐसी उम्मीद की जा सकती है कि जल्दी ही नए भवन भी बनाए जाएंगे,शिक्षकों की नियुक्ति भी की जाएगी।
भारत के आजादी के 75 वर्ष के बाद शायद यह पहला ऐसा मौका है जब देश के शीर्ष के कुछ राजनीतिक नेता स्कूली शिक्षा के मुद्दों मे दिलचस्पी ले रहे है। शीर्ष नेतृत्व जब शिक्षा जैसे मुद्दों में दिलचस्पी लेते हैं तो बहुत दिनों तक इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है और इसीलिए मैं समझता हूं कि भारत में हम शिक्षा के सुनहरे भविष्य की कल्पना कर सकते हैं। शिक्षा के सुनहरे भविष्य में विश्वास और बढ़ जाता है जब आप दिल्ली के मुख्यमंत्री श्री अरविंद केजरीवाल के इस बयान को सुनते हैं।
"कुछ लोग हमारी स्कूलों में कमियां निकालने आए थे हम उनका स्वागत करते हैं।वे हमारी गलतियां बताएं हम ठीक कर लेंगे, हम सुधार कर लेंगे"
यह एक महत्वपूर्ण वक्तव्य है। शिक्षा के मुद्दों पर चर्चा कुछ छुपा कर नहीं किया जा सकता है। उन तमाम कमियों को बाहर लाना होगा, उस पर बातचीत करनी होगी और तभी उसमें सुधार की गुंजाइश हो सकती है। देश के अलग-अलग राज्यों में जहां भी जो राजनीतिक दल सत्ता में है उन्हें यह स्वीकार करना होगा कि पिछले 20-30 वर्षोँ में सरकारी स्कूलों को तबाह किया गया है। बिना इस तथ्य को स्वीकार किए बदलाव की शुरुआत नहीं हो सकती है।
इस तबाही के लिए कोई एक राजनीतिक दल जिम्मेदार नहीं है। तबाही उस आधुनिक आर्थिक विचारधारा से आती है जहां यह माना जाता है कि लोगों को, मिलने वाली सुविधाओं के लिए, कीमत अदा करनी पड़ेगी। यह विचारधारा शिक्षा और स्वास्थ्य को भी सुविधाओं के क्षेत्र में ले आता है और यह भूल कर बैठता है कि शिक्षा और स्वास्थ्य लोगों के गरिमा पूर्ण जीवन जीने के लिए आवश्यक शर्तें हैं। इन्हें सुविधाओं के कैटेगरी में नहीं रखा जा सकता है। आधुनिक लिबरल आर्थिक विचार ने दुनिया के विकासशील देशों में स्कूली व्यवस्था को तबाह कर दिया है, भारत भी उसका एक हिस्सा है।
दिल्ली के स्कूल इस वक्त पूरे देश के लिए आकर्षण के केंद्र बने हुए है। तमाम उतार-चढ़ाव के बावजूद केरल सरकारी स्कूल के ढांचे को मजबूत बनाए रखने में सफल रहा है। आंध्र प्रदेश की सरकार हाल के दिनों में शिक्षा पर अपने खर्च को बढ़ा दिया है। पंजाब और हिमाचल प्रदेश में सरकारी स्कूलें अभी भी तबाह होने से बची हुई है। तमिलनाडु की सरकार अपने यहां स्कूलों में व्यापक परिवर्तन लाने के लिए तत्पर नजर आती है। हम उम्मीद कर सकते हैं कि शिक्षा की राजनीति जल्दी ही देश के अन्य हिस्सों में और खासकर उत्तर भारत के राज्यों, उत्तर प्रदेश, बिहार,मध्य प्रदेश, राजस्थान, और हरियाणा में बदलाव की एक बयार लाएगी।
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