पी टी एम; स्कूली दुनिया को गहराई से समझने का अवसर!
"तीन पेरेंट्स जो गाँव मे थे उनसे मैंने वर्चुअली कांटेक्ट कर लिया"
एक-एक पेरेंट्स तक पहुँचने की यह ज़िद दिल्ली के सरकारी स्कूलों में हो रहे एक बेहतरीन परिवर्तन को दर्शाता है। सरकारी स्कूलों की दुर्दशा की एक मुख्य वजह शिक्षक और अभिभावक के बीच की दूरी में भी देखा जाता है। समाजशास्त्री शिक्षक और अभिभावक के बीच की इस दूरी को वर्ग स्वभाव से भी जोड़ कर देखते हैं। अमूमन सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षक और वहाँ पढ़ने वाले बच्चों के बीच सामाजिक हैसियत में बड़ा फ़र्क देखा जाता है। निजी स्कूलों में स्थिति बराबर या विपरीत है। सामाजिक हैसियत के इस अंतर को शिक्षक-अभिभावक संवाद में झाँक कर देखा जा सकता है। जहाँ अक्सर बच्चों की पढ़ने सम्बन्धी समस्या के लिए अभिभावक को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है |
दिल्ली में स्थिति कुछ अलग है| शिक्षा मंत्री द्वारा खुद आकर अभिभावक से मिलना, रेडियो, टीवी एवं अखबार के ज़रिये विज्ञापन, स्कूलों को सजाना, चाय-बिस्किट की व्यवस्था, अभिभावक को यह यकीन दिलाता है कि परिस्थितियाँ बदल चुकी हैं। अब उनकी पीठ पर सरकार का हाथ है। सामाजिक हैसियत के अंतर को इस तरीके से कुछ हद तक न्यूट्रलाइज़ कर दिया गया है।
वैसे समाज शास्त्र की नज़र से स्कूल में PTM उतनी ही महत्वपूर्ण घटना है, जितना सूर्य ग्रहण एवं चन्द्रग्रहण खगोल शास्त्र के लिए। स्कूल सोशियोलॉजी के क्षेत्र में काम करने वाले लोग इस दिन शिक्षक-अभिभावक संवाद और उनके बॉडी लैंग्वेज से समाज, शिक्षा, राजनीति, अर्थशास्त्र और संस्कृति के तालमेल को बहुत करीब से देख और समझ सकते हैं।
अब यहाँ मैं कुछ संवादों को रखता हूँ, इसे पढ़कर पाठक अपने समाजशास्त्रीय ज्ञान एवं अनुभव से इस महत्वपूर्ण घटना का कुछ अंदाज़ा लगा सकते हैं। ये संवाद किसी एक शिक्षक एवं अभिभावक के बीच का नहीं है| इन सभी वक्तव्यों को स्वत्रंत रूप से देखना उचित होगा| लेख के आखिरी हिस्से में इसका विश्लेषण किया गया है |
शिक्षक- ये अंक ऑनलाइन परीक्षा पर आधारित है, मैं इसमें तुम्हारे प्रदर्शन को ऑथेंटिक नही मानती हूँ, अब काफ़ी मेहनत करनी पड़ेगी।
P- इसका काम ही क्या है, सिर्फ़ पढ़ना, तुम लोग अपना पढ़ो,मैं नही कहती कि काम करो।
T- बच्चों को छुट्टी में गाँव नहीं ले जाना है
P- मई में गाँव में पूजा है, 10 दिनों के लिए जाना है
T- सिर्फ़ 10 दिन न
P- 10-15 दिन
P- दो साल से तो सही से पढ़ाई हुई नही इन लोगों की
T- जो बच्चे अच्छे होते हैं वो पढ़ाई में कम नंबर लाएँ ये अच्छी बात नही है।
P- ये ध्यान कम देती है मैडम!
T- याद करके भी नही आती! आप व्हाट्सएप चेक नही करती हैं? हम वहां भी सूचना देते हैं, अपने बेटे को कहियेगा वो पढ़कर आपको बताएगा!
P- जरूरी हो तभी जाते हैं गाँव
T- स्कूल में आकर कैसा लगता है
P- बहुत अच्छा
T- 70% अच्छा है लेकिन और अधिक मेहनत की ज़रूरत है।
T- बच्चा बहुत अच्छा है, कोआपरेटिव है।
P- विसनाहा लिख दो कोई बात नहीं।
ऑनलाइन शिक्षा
यहाँ ऑनलाइन शिक्षा से संबंधित कुछ वक्तव्य हैं जो बहुत दिलचस्प है|
शिक्षक- ये नंबर ऑनलाइन परीक्षा पर आधारित है, मैं इसमें तुम्हारे प्रदर्शन को ऑथेंटिक नही मानती हूँ, अब काफ़ी मेहनत करनी पड़ेगी।
अभिभावक - दो साल से तो सही से पढ़ाई हुई नही इन लोगों की!
इन दोनों वक्तव्यों को एक साथ देखने से स्पष्ट होता है कि अभिभावक एवं शिक्षक दोनों ही ऑनलाइन शिक्षा को प्रभावी नहीं मानते हैं| यह शिक्षा के भविष्य के लिए एक बेहद सुखद संयोग है| मैं अपने अन्य लेखों में इस बात का ज़िक्र करता रहा हूँ कि जल्दी ही प्रचार तन्त्र के ज़रिये ऑनलाइन एजुकेशन को ऑफ़लाइन एजुकेशन से बेहतर सिद्ध कर दिया जायेगा| मैं चाहता हूँ कि मैं अपने भविष्यवाणी में असफल हो जाऊँ|
इस सम्बन्ध में एक और वक्तव्य दिया गया है जो वर्चुअल माध्यमों का शिक्षा में बेहतरीन समावेश का उदहारण है | साथ ही इसकी सीमाओं को भी दर्शाता है!
"तीन पेरेंट्स जो गाँव मे थे उनसे मैंने वर्चुअली कांटेक्ट कर लिया"
“आप व्हाट्सएप चेक नही करती हैं? हम वहां भी सूचना देते हैं, अपने बेटे को कहियेगा वो पढ़कर आपको बताएगा”
गाँव नही जाना है
T- बच्चों को छुट्टी में गाँव नही ले जाना है
P- मई में गाँव मे पूजा है, 10 दिनों के लिए जाना है
T- सिर्फ़ 10 दिन न
P- 10-15 दिन
कई अभिभावक इस सम्बन्ध में शिक्षक से मोल-भाव करते नज़र आए! इस बीच कुछ सवाल मेरे मन में भी उभर रहे थे?
- आखिर क्यों गाँव जाने के प्रति अभिभावक और बच्चे इतने उत्सुक रहते हैं? शहर इन्हें जीविकोपार्जन का साधन मुहैया कराता है, लेकिन शायद इन्हें अपनाने में चूक जाता है|
- क्या बच्चों के गाँव जाने की प्रक्रिया को ‘शिक्षा से दूर जाना’ कहा जाना उचित है?
- लगातार बदलते आर्थिक हालात क्या बच्चों को गाँव जाने से रोक सकता है?
- भारत का सांस्कृतिक ताना-बाना क्या अभिभावकों के पास कोई विकल्प भी छोड़ता है कि वे गाँव के किसी खास उत्सव में जाने से इंकार कर दें?
इस विषय पर जल्दी एक सुंदर लेख के लिए मैं अपने किसी मित्र से आग्रह करूँगा जो गाँव जाने की प्रक्रिया और शिक्षा से इसके सम्बन्ध का ज्ञान्मिमंसीय विश्लेषण कर सकें |
“विसनाहा लिख दो कोई बात नहीं”
समाजशास्त्रीय दृष्टि से इस कथन को देखें| अपने नाम का उच्चारण गलत हो जाने पर शिक्षक से माफ़ी मँगवाने वाले युग में कुछ अभिभावक ऐसे भी हैं जिन्हें जब पूछा गया कि आपका क्या नाम लिखूँ तो उनका उत्तर था…
“विसनाहा लिख दो कोई बात नहीं”
इनका नाम विष्णु है|
याद करके भी नही आती
शिक्षकों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले शब्दों में ‘चुप हो जाओं’ के बाद शायद सबसे ज्यादा इस्तेमाल में आने वाला जुमला यही है…याद करना! इसे अलग-अलग तरीके से कहा जाता है, जैसे कि…यहाँ से यहाँ तक याद कर लेना, 5 सवाल याद कर लेना, पाठ याद कर लेना, इत्यादि! समझ बनाना शब्द का इस्तेमाल न के बराबर है| याद किए जाने के बेहतर तरीके बताने वाले शिक्षक भी बेहतर शिक्षक कहलाते हैं…उनके लिए तालियाँ बजाई जाती है| ब्रिटिश लेखिका लूसी क्रेहान ने अपनी पुस्तक-क्लेवर लैंड में जापान और चीन में याद किए जाने संबंधित घटना को सराहा है| इसके कुछ उपयोगी पक्ष हो सकते हैं, लेकिन बहरहाल भारत में इस शब्द को प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए| भाषाविज्ञानी बताते हैं कि दैनिक व्यवहार में शब्दों के प्रयोग में परिवर्तन से बहुत कुछ बदल जाता है| शब्द अपने आप में इतिहास, परम्परा एवं प्रचलित मान्यताओं का वाहक होता है| याद करने पर आधारित परीक्षा प्रणाली को अगर बदलना है तो एक बदलाव यह भी ज़रुरी है|
फ़िलहाल इस लेख में इतना ही| जैसा कि मैंने ऊपर लिखा है, शिक्षक-अभिभावक संवाद स्कूल सोशियोलॉजी के लिए सबसे अहम् घटना है| स्कूली दुनिया की बेहतर समझ के लिए हमें लगातार इसका आयोजन करते रहना चाहिए |
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