सामाजिक विज्ञान में अवधारणा की समझ

सामाजिक विज्ञान में अवधारणा की समझ

Posted on: Sat, 10/31/2020 - 08:12 By: admin
आशा सागर

एक बार पढ़ने पढ़ाने के तरीके पर चर्चा करते समय शिक्षाविद प्रोफेसर कृष्ण कुमार अवधारणा का प्रश्न उठाते हैं कि एक शिक्षक के नाते शिक्षण प्रक्रिया में हम इसे कितना महत्व देते हैं , या कितना देना चाहिए।
‘अवधारणा’ किसी भी विषय को समझने-समझाने का प्राथमिक पैमाना है। यह एक सहज, प्राकृतिक व अनिवार्य शर्त है – शिक्षण प्रक्रिया की। उतनी ही सहज जैसे वृक्ष कहते ही हरी पत्तियों से लदा एक तना मिट्टी में अपनी जड़ जमाए दिख जाए ।
पर क्या हम अपनी शिक्षण प्रक्रिया में इसे इसी रूप में समाहित कर पाते हैं ?
यहाँ मैं विशेषतः सामाजिक विज्ञान विषय के संदर्भ में इस पर प्रकाश डालना चाहूंगी। सामाजिक विज्ञान विषय एक समावेशी, समग्र व वृहत विषय है जो भूगोल, इतिहास, अर्थशास्त्र व राजनीतिक संदर्भों, घटनाचक्रों व सामरिक घटनाओं के निरंतर पठन पाठन अभ्यास से जुड़ा है। यह एक ऐसा विषय है जो भौतिक संसार के मानवीय परिप्रेक्ष को स्पष्ट करता है उदाहरण के लिए, एक सामाजिक विज्ञान के विद्यार्थी को एक देश की केवल भौतिक परिस्तिथियों जैसे नदी, पहाड़, क्षेत्रफल, मौसम आदि के बारे में ही पता नहीं होना चाहिए अपितु वहाँ की सरकार, उनकी नीतियों, जनभागीदारी, अधिकार व साथ ही इन सब का का उस देश के तात्कालिक व भविष्य की संभावित घटनाओं पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में भी जागरूक होना चाहिए।
मुझे इस विषय की महत्ता अन्य विषयों की तुलना में कहीं अधिक लगती है। हो सकता है आप इससे सहमत ना हो, पर मेरे पास इसके लिए पर्याप्त तर्क है। संसार कभी भी केवल अविष्कारों, जानकारियों या परिभाषीय ज्ञान से संचालित या प्रभावित नहीं हुआ है, महत्वपूर्ण यह रहा है कि इनकी दिशा क्या थी? क्या है? और क्या होगी?
यही कारण है कि जैसे-जैसे मनुष्य विज्ञान, प्रौद्योगिकी और तकनीकी दुनिया में आगे बढ़ता जा रहा है मानव – एक सभ्यता, एक प्रजाति और एक संस्कृति के रूप में पिछड़ता जा रहा है।

हर एक नया आविष्कार जैसे प्रकृति के दोहन व स्वयं मानव के पतन का एक नया मार्ग खोलता सा प्रतीत होता है। पर मैं फिर कहूंगी कमी ज्ञान में नहीं अपितु उसकी दिशा में है। सामाजिक विज्ञान विषय का अध्ययन व इसे अन्य विषयों के साथ समग्रता से जोड़ना इस समस्या का निदान हो सकता है। पर यहाँ एक गंभीर रुकावट है वही – ‘अवधारणा’ की।
ये विषय इतना आवश्यक व सम्पूर्ण होते हुए भी प्रचलित नहीं हो पाया, इसके पीछे गंभीर कारण है इस विषय के ज्ञान को हस्तांतरित किए जाने की विधि।
परिभाषायों को याद किया जाना, सीमित चित्रों भर का प्रयोग, प्रयोग विधि का लोप, मॉडल आदि का प्रयोग न किया जाना, भौगोलिक व ऐतिहासिक घटनायों को बगैर संदर्भ समझे ज्यों का त्यों रट लेने पर ज़ोर और महत्वपूर्ण प्रश्नों के दोहराव जैसी खतरनाक प्रवृति का निरंतर अभ्यास।
हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ सीखते की प्रक्रिया में जितनी अधिक सक्रिय होंगी, हम उतनी ही तीव्रता से सीखेंगे। पर इस विषय को पढ़ते-पढ़ाते समय केवल आँख और कान के प्रयोग पर ज़ोर रहता है।
कितना हास्यास्पद और निराशाजनक लगता है जब आप सामाजिक विज्ञान के किसी विद्यार्थी से लैगून या डेल्टा के बारे में पूछे और आपको मिले सिर्फ एक परिभाषा।
जब आप लोकतंत्र व अधिकारों की बात करें और सामने आ खड़ी हो रूढ़ियां।
जब बदलते मौसम, पर्यावरण, प्रकृति और उसके दोहन की बात हो और उनमें उत्तरदायित्व कहीं ना हो।
ठीक इसी जगह बात आती है – ‘अवधारणा’ की। कि हमने जो पढ़ा, क्या उसे समझ लिया है? उसके संदर्भ को छेड़ते ही उसकी छवि और उसका जीवंत रूप हमारे सामने दिखाई पड़ता है या नही। अगर नहीं तो यह वैसा ही है जैसे हरे भरे पेड़ों की कोई तस्वीर देखना। क्योंकि उसे सिर्फ देखकर आप उसे छूने, सूंघने और महसूस करने की संवेदना से कोसों दूर है और उसके बिना ना आप उससे जुड़ सकते हैं ना उसके प्रति उत्तरदायी हो सकते हैं।
सामाजिक विज्ञान विषय एक चाबी की तरह है जो हमें उस तस्वीर के अंदर लेकर जा सकता है। आवश्यकता है तो इस विषय को पढ़ने-पढ़ाने के तरीके पर पुनः विमर्श की।

आशा सागर
सामाजिक विज्ञान शिक्षिका
शिक्षा निदेशालय
ईमेल : ashanew1987@gmail.com
Twitter- @ashanew1987