ग़ज़ा में ध्वस्त होती वैश्विक प्रणाली का असर आज न कल हम सब पर पड़ेगा

ग़ज़ा में ध्वस्त होती वैश्विक प्रणाली का असर आज न कल हम सब पर पड़ेगा

Posted on: Sun, 10/22/2023 - 04:26 By: admin
Conflict

 

            ग़ज़ा में ध्वस्त होती वैश्विक प्रणाली का असर आज न कल हम सब पर पड़ेगा

 

जब से होश संभाला है, इजराइल-फिलिस्तीन के बीच की लड़ाई की खबरें सुन रहा हूँ! पहले, रेडियो पर समाचार सुनता था और तमाम अंतरराष्ट्रीय खबरों में यह खबर भी एक होती थी। फिर, टीवी के माध्यम से कुछ दृश्य सामने आने लगे और आजकल सोशल मीडिया के जरिए इस लड़ाई का लाइव प्रसारण हो रहा है। रोते-बिलखते बच्चे, अपने बच्चों को खो चुके माता-पिता का असह्य पीड़ा, छत विछत होते शरीर, अपनों को बंधक बना लिए जाने का डर और न जाने हिंसा के और कई रूप, समाचार के इन माध्यमों से घर-घर पहुँच रहा है।

 

हर कुछ सालों के अंतराल पर दोहराए जाने वाले इस हिंसा के बीच पलते-बढ़ते बच्चे और वह समाज न जाने किस तरीके के सपनों को संजोता होगा, बिना सुरक्षित भविष्य के क्या सपने देखे भी जा सकते हैं? 2018 में अमेरिका यात्रा के दौरान एक फिलिस्तीनी शिक्षिका से मिलने का मौका मिला था। उनकी सूनी आंखें यह बात चीख-2 कर बता रही थी कि सिर्फ जीवित रहने की सांत्वना है। बाकी इस जीवन में अपनों को खोने का दुख, और जो बचे हैं उसे खो देने के डर के अलावा और कुछ नहीं है।

 

युद्ध और हिंसा जीतने और हारने वालों के गम के बीच का फर्क ज्यादा नहीं बांट पाता है। जो पक्ष जीत रहा होता है, उनके यहां भी कई मां-बाप अपने बच्चों को खोते हैं, तो कई बच्चे अपने मां-बाप को खोते हैं। खेत-खलिहान, घर, कारखाने बर्बाद हो जाते हैं। आधुनिक युद्ध में जीतना सिर्फ राजनेताओं के लिए उनके राजनीतिक कैरियर को एक उड़ान दे सकता है, बाकी जीतने और हारने वाले दोनों देशों के जनता अंततः हारती हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध के संबंध में बयान देते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने बहुत अच्छी बात कही थी, यह युग युद्ध का नहीं है। इंसान ने जब से अपने आप को साम्राज्य के रूप में संगठित किया, युद्ध का हमारा इतिहास भी उतना ही पुराना है। करीब 3000 साल के युद्ध के इतिहास से हम इतना भी नहीं सीख सकते कि युद्ध अंततः विनाश लाता है। ऐसा नहीं है कि मानवीय संवेदनाओं को युद्ध से उत्पन्न भयावाह मंजर ने नहीं झंझोरा है। इसी के परिणामस्वरूप 1920 में लीग ऑफ नेशन की स्थापना की गई थी। कुछ ही वर्षों में पाया गया कि लीग ऑफ नेशन  अपने उद्देश्यों में सफल नहीं हो पा रही थी और दो दशक के अंदर ही पूरी दुनिया ने द्वितीय विश्व युद्ध के भयानक मंजर को देखा। दुनिया एक बार फिर से इकट्ठा हुई और संयुक्त राष्ट्र संघ का गठन हुआ।

 

पिछले दो बड़े युद्धों में चाहे वह यूक्रेन-रूस का युद्ध हो या फिलहाल इजराइल और फिलिस्तीन का, संयुक्त राष्ट्र की विफलता चिंता उत्पन्न करती है। अगर संयुक्त राष्ट्र संघ युद्धों को रोकने में नाकामयाब होती है तो क्या हम फिर से एक और विश्व युद्ध के तरफ नहीं बढ़ रहे हैं? ऐसा नहीं है कि संयुक्त राष्ट्र कोशिश नहीं कर रही है, लेकिन ताकतवर देश जैसे कि अमेरिका और रूस संयुक्त राष्ट्र के इन कोशिशों को नाकाम कर देते हैं। दुनिया में शांति ताकतवर देश के हितों को सुरक्षित करने से नहीं बल्कि कमजोर देशों के अधिकारों को सुनिश्चित करने से आएगी।

 

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद एक आधुनिक लोकतांत्रिक वैश्विक प्रणाली की कल्पना की गई थी। और इसके केंद्र में एक विचार था कि मनुष्य के जन्म के परिस्थितियों का हम उसके भविष्य की संभावनाओं पर असर नहीं पड़ने देंगे। कितना खूबसूरत था यह सपना! अमेरिका, भारत और  यूरोप के बड़े हिस्से में इस सपने को साकार भी किया गया। अश्वेत पृष्ठभूमि से आने वाले बराक ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति बन पाए। जनजातीय पृष्ठभूमि से आने वाली द्रौपदी मुर्मू भारत की राष्ट्रपति बन पाई। और ऐसे अनेक उदाहरण हैं दुनिया भर में जहां एक ऐसी संवैधानिक प्रणाली को अपनाया गया जिसने जन्म के समय लोगों के परिस्थितियों को नजरअंदाज करते हुए बेहतर भविष्य की संभावनाएं सबके लिए पैदा की। लेकिन क्या यह बात हम ग़ज़ा में जन्म लेने वाले बच्चों के लिए कह सकते हैं? क्या ग़ज़ा में जन्म लेने वाले बच्चों को हम उनके जन्म से इतर एक ऐसी स्थिति प्रदान कर सकते हैं जहां उनका भविष्य सुरक्षित हो और वह अपने सपनों को एक नई उड़ान दे सकें?

 

हमें याद रखना होगा कि वैश्विक प्रणाली (world order) की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि ज्यादा से ज्यादा देशों में और संभव हो तो सभी देशों में उन परिस्थितियों को पैदा किया जाए, ऐसी सामाजिक राजनीतिक संरचनाएं बनाई जाए जो लोगों के बेहतर भविष्य को सुरक्षित कर सके। ऐसी सामाजिक राजनीतिक संरचनाओं से मेरा क्या मतलब है? उदाहरण के लिए किसी देश में रेलवे का एक ऐसा नेटवर्क बनाया जा सकता है जहां मैदाने के लोग, पहाड़ों के लोग, और मरुस्थल में रहने वाले लोग, सभी उस नेटवर्क के जरिए रेलवे की यात्रा कर सकते हैं। ठीक इसी प्रकार सामाजिक और राजनीतिक संरचनाएं तैयार की जाती है। यह थोड़ा सा अदृश्य होता है लेकिन थोड़ी कोशिश के बाद दिखने लगता है। शिक्षा और स्वास्थ्य तक सब की पहुंच, महत्वपूर्ण निर्णय लेने वाली संस्थाओं में सबका प्रतिनिधित्व, ऐसे कुछ उदाहरण हैं जो लोगों को अपने जन्म की परिस्थितियों से अलग हटकर बेहतर भविष्य संवारने का मौका देता है। किसी देश में इन संरचनाओं का बिखर जाना वैश्विक प्रणाली पर गहरा असर डालता है। भले ही हम हजार किलोमीटर दूर हों लेकिन ग़ज़ा में ध्वस्त होती वैश्विक प्रणाली का असर आज न कल हम सब पर पड़ेगा।