अब पता चलने दो

अब पता चलने दो

Posted on: Sun, 02/05/2023 - 13:53 By: admin
'पीरियड फेस्ट' और 'pad-यात्रा' के जरिए कल उन्होंने हजारों लोगों तक उन्हीं की भाषा में गीत-संगीत और नाटक के जरिए इस टैबू को तोड़ने का प्रयास किया है। पिछले कई वर्षों से इस तरीके के कार्यक्रम के जरिए सच्ची सहेली लड़कियों को सशक्त बनाने का काम कर रही हैं। और उनका यह स्लोगन कितना पावरफुल है- 'अब पता चलने दो'!

 

अब पता चलने दो

 

माहवारी को लेकर समाज में प्रचलित मान्यताओं से हमारा वास्ता बहुत छोटी उम्र से ही पड़ने लगता है। अपने लैंगिक पहचान के आधार पर हमारा अनुभव अलग-अलग होता है। अन्य मान्यताओं और प्रचलित धारणाओं के साथ जोड़कर देखते हुए यह माना जाता है कि माहवारी के दौरान कुछ खास तरह के रेस्ट्रिक्शन रखा जाता है। एक पितृसत्तात्मक समाज और परिवार में पलते-बढ़ते हुए हम इसे नैसर्गिक मान लेते हैं। मन में यह सवाल भी नहीं आता है कि जिसके साथ यह हो रहा है उस पर कैसा बीतता होगा। सामान्यीकरण(generalisation) की प्रक्रिया की यही खासियत होती है कि यह सवाल को गायब कर देता है।

 

शिक्षा और जागरूकता की भूमिका यहीं शुरू होती है कि यह हर उन बातों पर सवाल उठाए जिसे सामान्य मान लिया गया है। गौर से देखने और समझने पर पता चलता है कि सामान्यीकरण की प्रक्रिया वस्तुतः नियंत्रण का एक तरीका होता है। हम जिस समूह पर नियंत्रण स्थापित करना चाहते हैं उसके सवाल को हम असामान्य बना देते हैं और उसके अनुभवों को हम सामान्य मान लेते हैं। पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं के ऊपर नियंत्रण स्थापित करने के लिए कई तरह के मान्यताओं और रीति-रिवाजों का सहारा लेता है। मासिक धर्म से जुड़ी हुई मान्यताएं और रीति रिवाज भी नियंत्रण स्थापित करने के उन्हीं तरीकों का हिस्सा है।

 

वैज्ञानिक समझ और प्रगतिशील विचारों के आधार पर इन मान्यताओं को चुनौती मिलना शुरू हुआ लेकिन कई बार यह एक बहुत ही छोटे समूह के बीच सिमट कर रह गया। शोध और शिक्षा के जगत से जुड़े हुए लोगों के पास अमूमन उस भाषा का अभाव होता है जिसके जरिए वे ज्ञान की बातों को आम लोगों तक पहुंचा सकें। उदाहरण के लिए मासिक धर्म से जुड़ी तमाम मान्यताओं और रीति-रिवाजों को अंधविश्वास और रूढ़ि बद्ध धारणा के रूप में बहुत पहले स्थापित कर दिया गया लेकिन दुनिया भर में आज भी इन मान्यताओं का प्रचलन हर समाज में देखने को मिलता है। इनमें से कुछ प्रचलित मान्यताएं हैं जैसे माहवारी के दौरान महिलाओं को अलग कर देना, पूजा घर और रसोई घर में उन्हें जाने देने से मना करना, बाल नहीं धोना, इत्यादि। अलग-अलग सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ में इन मान्यताओं का अलग-अलग रूप है। मिट्टू दास एक प्रसिद्ध एंथ्रोपॉलजिस्ट है और उन्होंने इस संदर्भ में एक बहुत ही ज्ञानवर्धक रिसर्च पेपर लिखा हुआ है, जिसका शीर्षक है "परफॉर्मिंग अदर्स इन सेल्फ"। इस पेपर में उन्होंने असम में मासिक धर्म से संबंधित अंधविश्वास और रूढ़िबद्ध धारणाओं के बारे में लिखा है और खास करक उन अनुभवों को बताया है जो एक महिला के लिए 'डीह्यूमनाइज'  होने वाला अनुभव होता है।

 

जैसा कि मैंने पहले लिखा है कि एकेडमिया के पास इस संदर्भ में पर्याप्त रिसर्च और जानकारी है। लेकिन आम लोगों तक इसे कैसे पहुंचाया जाए; इसके लिए जो उपयुक्त भाषा है, मैं मानता हूं कि इसका खोज 'सच्ची सहेली' के माध्यम से डॉ सुरभि ने किया है। 

 

'पीरियड फेस्ट' और 'pad-यात्रा' के जरिए कल उन्होंने हजारों लोगों तक उन्हीं की भाषा में गीत-संगीत और नाटक के जरिए इस टैबू को तोड़ने का प्रयास किया है। पिछले कई वर्षों से इस तरीके के कार्यक्रम के जरिए सच्ची सहेली लड़कियों को सशक्त बनाने का काम कर रही हैं। और उनका यह स्लोगन कितना पावरफुल है- 'अब पता चलने दो'! रूढ़िवादी धारणाओं को तोड़ने का यह एक सशक्त हथियार होता है कि हम समाज में उसके बारे में बातचीत शुरू करें! यह लेख भी उसी बातचीत के कड़ी को एक कदम आगे बढ़ाता है और आप सब से अपील करता है कि अपने दायरे में आप भी 'अब पता चलने दो' जैसे कैंपेन को आगे बढ़ाएं और मासिक धर्म से जुड़ी हुई तमाम गलत धारणाओं को तोड़ने में मदद करें ताकि यह समाज हम सबके लिए गरिमा के साथ जीने का एक बेहतर जगह बन सके।