Welfare Vs Identity Politics

Welfare Vs Identity Politics

Posted on: Sat, 10/31/2020 - 07:37 By: admin

दिल्ली में चुनावों के तारीख की घोषणा हो चुकी है। भारतीय लोकतांत्रिक राजनीति के इतिहास में शायद पहली बार जन सरोकार की राजनीति का सीधा मुकाबला पहचान की राजनीति से है। वर्षों से पहचान की राजनीति केंद्र और राज्य के चुनावों में अपना दबदबा बनाए हुई है। पहचान की राजनीति से मेरा मतलब है धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र, राष्ट्र इन सब को आधार बना कर चुनाव लड़ना।

जन सरोकार की राजनीति की कभी बात हुई भी तो बहुत हल्के तौर पर । विपक्ष ने कभी-कभी सरकार से सवाल पूछ लिए कि आपने शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में क्या काम किया है । इसे लेकर कभी किसी राजनीतिक दल में कोई गंभीरता नहीं रही है। आज तक किसी सरकार ने अपने बजट का एक चौथाई हिस्सा शिक्षा पर खर्च नहीं किया है । ऐसा लगता रहा है कि वे चुटकी लेने के लिए कभी-कभी सवाल पूछ लेते हैं क्योंकि उन्हें भी पता था कि अगर वे सरकार में आएंगे तो ऐसा कुछ करेंगे नहीं।

दिल्ली के संदर्भ में यह बहुत ही दिलचस्प होने जा रहा है। सत्तारूढ़ दल इस बात को लेकर जिद पर अड़ी है की वे जन सरोकार की राजनीति के ऊपर ही लोगों से वोट मांगेंगे। अक्सर यह काम विपक्ष किया करती थी। पहली बार ऐसा हो रहा है कि सत्ता पक्ष कह रही है कि हमसे पूछो कि हमने शिक्षा में क्या काम किया है, हमने स्वास्थ्य के क्षेत्र में क्या काम किया है। बिजली और पानी को ले कर हमने क्या काम किया है।

जन सरोकार की राजनीति और पहचान आधारित राजनीति के बीच का यह दिलचस्प मुकाबला और इसका जो भी परिणाम होगा वह पूरे देश के लिए एक नया राजनीतिक एजेंडा स्थापित करेगा।

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पहचान आधारित राजनीति भावनाओं के ऊपर काम करती है और ऐसा देखा गया है कि भारत में मतदाताओं के भावनाओं को भड़काना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं होता है वहीं दूसरी ओर जन सरोकार की राजनीति किसी दल से असली काम की अपेक्षा करती है जो आसान नहीं होता है। 

जन सरोकार यानी शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर अगर अब राजनीति नहीं होगी तो शायद बहुत देर हो जाएगा। जिस प्रकार करीब-करीब पूरे देश में सरकारी स्कूल व्यवस्था और सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों की व्यवस्था को खंडहर में बदल दिया गया है उसका खामियाजा अब मिडिल क्लास भी भुगत रहा है । दो बच्चों का निजी स्कूल में फीस भरना अधिकतर मिडिल क्लास परिवारों के औकात से बाहर की बात हो रही है। इंश्योरेंस के जरिए स्वास्थ्य को सुरक्षित करने वाले लोग समझ रहे हैं कि इंश्योरेंस, कंपनियों का बिजनेस मॉडल है किसी के स्वास्थ्य की सुरक्षा का मॉडल नहीं है। हमारा यह देश जहां 85% के आसपास कामकाजी लोग महीने का दस हज़ार या उससे कम पर अपना जीवन यापन कर रहे हैं उनके जीवन में अगर किसी भी तरह का बदलाव संभव है तो वह सिर्फ जन सरोकार की राजनीति से ही संभव है।