अपने शहर की तलाश में

अपने शहर की तलाश में

Posted on: Sat, 10/31/2020 - 07:42 By: admin

शिव प्रकाश नींद में कुछ  जोर जोर से बोल रहा था, बगल में लेटी उसकी पत्नी, अनुप्रिया, झटपट मोबइल ऑन करती है और शिव प्रकाश क्या बोल रहा है उसको रिकॉर्ड करने लगती है। क्या पता कुछ राज की बात पता चल जाए। आदमी कई बार नींद में ऐसी बातें बोलने लगता है जो वह जगे हुए में नहीं बोल पाता है। 

हौ कका एकटा गीत कह क न, कहुना बाट कटी जेतै।

जनि जाती सब छै संग म, ठीक नै लागै छै। कका, गै बी दहक एकटा गीत, सिंटूआ क मम्मी से हो कहैत छ।

 

…..हे लागल एती बेर, हे लागल एती बेर,आजू के दिनवा हो दीनानाथ….

 

कका हौ ई त छठी के गीत छियै। 

किछ आवाज सुनलहक, लागै छै फेर पुलिस वाला आबै छै, कका, रोड स उतैर जा, सब गोटा दूर दूर भ क बैस जा, ई सब जहन चैल जेतै फेर चल ब।

शिवकुमार के मुंह से चीख निकलने लगती है और आंखों से आंसू। वह जोर जोर से रो रहा है। अनुप्रिया से अब देखा नही गया, उसने मोबाइल साइड में रख दिया और शिवकुमार को जगा दिया।

हरबड़ा कर उठते हुए शिवकुमार बोलता है 

क्या हुआ, क्या हुआ, सब ठीक तो है, उसने गुड़िया की ओर देखा। गुड़िया सो रही थी। अनुप्रिया किचन से पानी लाने चली गई थी।

गर्म पानी का ग्लास शिवकुमार के हाथ में थमाते हुए वह कहती है 

‘थोड़ी देर टहल लो फिर सो जाओ’

यह कहकर वह लेट जाती है। शिवकुमार वहीं बैठ जाता है आंखें बंद कर लेता है। अचानक ही सपने की कुछ कुछ बातें उसे याद आने लगी।

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आज से 20 वर्ष पहले जब वह दिल्ली आया था तो वह मजदूर ही तो था। ट्रेन के जनरल डब्बे में ऊपर की दो सीटों के बीच गमछी बांधकर उसमें लटकते हुए उसने किसी तरह अपने गाँव से दिल्ली तक कि यात्रा की थी। 20 सालों में उसकी जीवन की यात्रा बदल गयी है। लेकिन उसके दो साथी जिसके साथ वह पहली बार शहर आया था आज भी उसी इलाके में मजदूरी करते हैं जहां शिवप्रकाश पहली बार रूका था। कभी-कभार जब वे लोग गांव में मिल जाते हैं और पूछ लेते हैं 

“आप तो भूल ही गए अब हमें”

शिव प्रकाश झेंपते हुए उत्तर देता है 

“ऐसी कोई बात नहीं है”

लेकिन आज पहली बार उसे लग रहा है कि वह और उसके जैसे हजारों लोग जो मजदूर के जीवन से मध्यम वर्गीय जीवन तक की यात्रा करते हैं ,वे वाकई अपने मजदूर साथियों को भूल चुके हैं। और अगर भूल नहीं गए हैं तो कैसे वे अपने घरों में बैठकर मज़े से अंताक्षरी खेल रहे हैं, टीवी देख रहे हैं, बेवजह तालियां बजा रहे हैं, दीए जला रहे हैं, और दूसरी तरफ मजदूर हजारों मील की दूरी पैदल तय कर रहे हैं, बिना पानी, बिना खाने के। लोगों को अपने घरों में रहने के लिए कहा गया है,लेकिन शहर में भला मजदूरों का अपना घर कब से हो गया, वह अपने घर ही तो जा रहे हैं। हमारे आधुनिक शहर मजदूरों के लिए काम करने की जगह है, रहने की नहीं।

यही सब सोचते सोचते-2 वह फिर से नींद में चला जाता है।

कका चोट ज्यादा लग ल की।

“आब की करब, कहूना चलैत जा, ढोरहा क लागै छै जेना हाथ टूटी गेलै। गमछा स बाइन्ह दे लियै हँ” 

‘सीता-राम,सीता-राम, सीता-राम कहिए, जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिए’

कका पुलिस पर तामस नै आबै छ

बुरबक पुलिस पर कि तमसे बै, जे भाग म लिखल छै से हेबे करतै। 

होई है वही जो राम रचि राखा को करि तर्क बढाबहि साखा।

की बुझलहिं रे शिबुआ, तु थोड़े पढ़ी लिख लेलहिं न तें तोड़ा पुलिस पर गुस्सा आबै छौ।

कका सु न, थोड़े काल ओहि गाछी म बैस जै छी, फेर चलब, आ कोशिश करब जे राईत म ज्यादा चलब।

चोरी चपाटी का डर नै छै, राति म की। 

हौ कका, ई बीमारी अद्भुत छै,कियौ लग नै ए त, कनि ज्यादा दिन अगर रही गेलै त पुलिस क त का जे ख़त्म बुझहक।

पुलिस के गाड़ी की फिर से आवाज आती है, उधर शिवकुमार जोर-जोर से कराहने लगता है। अनुप्रिया झकझोरते हुए उसे उठाती है, क्या हो गया है तुम्हें, मोबाइल पर कुछ कॉमेडी देख लो, कहते हुए अनुप्रिया फिर से सो जाती है।

शिवकुमार की आंखों से नींद गायब हो जाता है। दिमाग में विचारों का झंझावात चलने लगता है। नींद में देखे हुए सपने उसे हकीकत से लगते हैं। आज इन मजदूरों के लिए बसों की व्यवस्था नहीं की जा रही हैं कल उन्हीं को फिर से बसों में भरकर गांधी मैदान लाया जाएगा, इनको फिर से भाई-बहन कहा जाएगा ईन्हें बार-बार बेवकूफ बनाया जा सकता है लेकिन सिस्टम के प्रति इनका भरोसा नहीं जीता जा सकता है। शायद यही तो वजह है, कि प्रधानमंत्री के कहने के बाद भी वे नहीं रुक रहे हैं। सिस्टम के प्रति इनके भरोसे को तोड़ने का काम पहली बार नही हुआ है। हमेशा से होता आया है, फर्क सिर्फ इतना है कि नई सरकारें,भरोसे तोड़ने के नए प्रयोग करते हैं।

शिवकुमार को अपने पिताजी की याद आ जाती है,आज से 50 वर्ष पहले वर्धमान में एक कारखाने में वे काम करते थे। कर्फ्यू लगने पर वे अपने गांव चले आते थे , आज भी तो वही हाल है कर्फ्यू लगने पर मजदूर अपने गांव जा रहे हैं, शहर में रहने की जगह ना तब उनके लिए था ना आज उनके लिए है।

यही सब सोचते- सोचते शिवकुमार एक बार फिर से नींद की आगोश में समा जाता है।

शिबुआ लागै छै जेना आई रामनवमी छियै, चल, आई खाई ल किछ भेट जे त बढियाँ, आ शायद कइल तक पँहुच जे ब।

कका हौ,राम नवमी म लोग बजरंगबली क पूजा किया करै छै?

रे बुरबक तु कि पढलिहिं लिखलिहिं, बजरंगे बली न, राम क संकट स निकाल लखिन, तें त हुनका संकटमोचन से हो कहल जै छैन।

लागै छै जेना अपनो सब क वेह संकट स निकालथुन

और कि त, सिर्फ हुनकर सुमिरन करैत च ल ।

फिर से पुलिस के गाड़ी की आवाज आती है, 

अनुप्रिया जोर-जोर से झकझोरते हुए शिवकुमार को उठाती है, सुबह हो चली है, उसकी आंखों से नींद तो जा चुकी है लेकिन जो बातें उसके सपने का हिस्सा थी वही बातें अब उसे हकीकत में परेशान करने लगी है। इस सुबह का इंतजार वह नहीं कर रहा था। वह शिबुआ,कका, सिंटूआ की मम्मी और ढोरहा सब को उसके गांव तक पहुंचा देना चाहता था,वह एक बार फिर से सो जाना चाहता था।