Social character of Learning by Prof Krishna Kumar

Social character of Learning by Prof Krishna Kumar

Posted on: Sat, 10/31/2020 - 07:08 By: admin

Social character of Learning by Prof Krishna Kumar

किताब पर चर्चा सीरीज के इस अंक में हम बात कर रहे हैं कृष्ण कुमार द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘सोशल कैरेक्टर ऑफ लर्निंग’। किताब को पढ़ते हुए आपको एहसास हो जाएगा कि भारत में शिक्षा के क्षेत्र में विचारकों की कमी नहीं रही है। आप ने अगर जॉन डीवी, फ्रेरे, जैसे विचारकों को पढ़ा है तो कृष्ण कुमार को पढ़ते हुए भी आपको गर्व की अनुभूति होती है। हम सब भाग्यशाली हैं कि कृष्ण कुमार जैसे विचारक हमारे समकालीन है। हम में से कई लोगों को इनसे पढ़ने का मौका मिला । हमने इनको कई सेमिनार में बोलते हुए सुना है या कम से कम इन का वीडियो लेक्चर तो सुना ही है। इनके कई विचारों से मैं सहमति नहीं रखता हूं लेकिन फिर भी कृष्ण कुमार एक बड़े विचारक है इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है।

वे इस किताब में जिन मुद्दों के बारे में वे चर्चा कर रहे हैं उनमें से ज्यादातर बातें हिंदी में उन्हीं के द्वारा लिखी हुई किताब ‘राज समाज और शिक्षा’ में उपलब्ध है।

इस किताब में उन्होंने कनाडा की स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली किताबें तथा मध्य प्रदेश के सरकारी स्कूल में पढ़ाई जाने वाली किताबों का विश्लेषण किया है। टेक्स्ट बुक का विश्लेषण कैसे किया जा सकता है, उसके कितने अलग अलग पैरामीटर्स हो सकते हैं शायद इन बातों को समझने के लिए इससे बेहतर सोर्स हो नहीं सकता है। शिक्षक के रूप में टेक्स्ट बुक के साथ हमारा एक गहरा रिश्ता होता है लेकिन टेक्सबुक किस तरह एक ऑर्गेनाइज नॉलेज को बच्चों तक पहुंचाती है और उसके पीछे की जो पूरी एक जर्नी होती है, जो पॉलिटिक्स ऑफ नॉलेज होता है इस किताब को पढ़ते हुए आप इन सब के बारे में जान पाएंगे। आप को पढ़ते हुए लगेगा कि ‘अच्छा! जिन टेक्सबुक को मैं इतने सालों से पढ़ा रहा हूँ इसको इतने अलग अलग आयाम से भी देखा जा सकता है’ आप दंग रह जाएंगे।

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शिक्षक के रूप में टेक्सबुक के संबंध में हमारी समझ कुछ गिने-चुने वक्तव्य तक ही सिमट कर रह जाती है जैसे कि

यह बहुत बोरिंग है

यह बहुत लंबी है

इसमें जो लिखा है वह बच्चों को समझ में नहीं आता है

यह जो घटना है वह अब प्रासंगिक नहीं रह गया है

टेक्सबुक बनाने वालों को स्कूली शिक्षा का अनुभव नहीं होता है।

वे बच्चों की दुनिया को नहीं जानते हैं।

और इसी तरह की बातें। मैं यह नहीं कहना चाहता हूं कि टेक्सबुक के संबंध में शिक्षक के रूप में जो भी हमारी समझ है वह महत्वपूर्ण नहीं है लेकिन उसकी वैल्यू और बढ़ जाएगी जब हम उसे व्यापक संदर्भ में देखने और समझने लगेंगे और इसलिए यह बहुत जरूरी है कि सभी शिक्षक इस किताब को जरूर पढ़ें।

आइए आपका परिचय किताब से लिए हुए कुछ चुनिंदा पंक्तियों से करवाते हैं जिससे मैं बहुत प्रभावित हुआ।

एक कहानी के संदर्भ में उसको एनालाइज करते हुए कृष्ण कुमार लिखते हैं

“we are taught that the defective and disabling culture of the poor is the cause of their poverty. In order to understand how poverty is caused, we are asked to note what the poor are doing to themselves on account of their ignorance and laziness. The poor are so submerged in their defective culture that they cannot see the source of their poverty without the cooperative intervention of the prosperous. The theory and the role of the teacher symbolised in this story offers us a model of economic pedagogy that denies any conflict between the rich and the poor. What interaction does take place is harmonious and friendly, and in this interaction it is the poor person who is ‘learning’ and the rich who is ‘teaching’.”

इस पैराग्राफ को पढ़ते हुए आप अपने आप से सवाल पूछ सकते हैं कि क्या इस तरह के विचारों से आपका सामना हुआ है ? क्या एक पैटर्न के रूप में आप इसको नहीं देखते हैं कि ज्यादातर लोग इसी तरीके से सोचते हैं? इस शब्द को थोड़ा और समझने की जरूरत है ‘इकनॉमिक पेडागोजी’। मैं इसको यहां नहीं बता रहा हूँ । मैं उम्मीद करता हूं कि आप इस किताब के साथ इंगेज होंगे।

और एक रीडर के रूप में आप इन पंक्तियों का मजा जरूर उठाएं । वह कहते हैं कि जब हम किसी टेक्स्ट के साथ इन्वॉल्व होते हैं तो ये किसी सोशल सिचुएशन में इंवॉल्व होने से अलग होता है और इस संदर्भ में ब्रिटन(1970) के हवाले से वे बताते हैं

Britton ‘(1970) uses this term. As spectators, we are both in the situation and out of it; our emotions are stirred by it, and at the same time we can appreciate, if we care to, the means by which our emotions are being stirred. This aspect of encounter with texts, however,’ does not prevent the formation of collective patterns of response. Recurrence of certain types of characters, styles of narration, choice of incidents, and choice of locations in texts may act as a pattern-forming force on individual readers’ responses.

और किताब को पढ़ते हुए भारतीय शिक्षा को समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से देखने की शायद आपमे एक रुचि पैदा हो सकती है। सिर्फ टेक्सबुक ही नहीं शिक्षक,शिक्षा की परंपरा, स्कूल, बच्चे इन सब के बारे कुछ दिलचस्प दृष्टिकोण आपको मिल सकता है। उदाहरण के लिए कि क्यों अपनी क्लास रूम में हम सवाल जवाब को लेकर के ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाते हैं, और अगर आपके अंदर बच्चों को लेकर माई-बाप (patronising) वाला बिहेवियर है तो आप थोड़ा असहज भी महसूस कर सकते हैं। कृष्ण कुमार (मेरे समझ के अनुसार) इसे सामंती परंपरा से जोड़कर देखते हैं।